रूढ़िवाद की देन है हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

इस्लामिक दर्शन और धर्म की परंपराओं के बारे में घृणा के माहौल को खत्म करने का सबसे आसान तरीका है मुसलमानों और इस्लाम धर्म के प्रति अलगाव को दूर किया जाए। मुसलमानों को दोस्त बनाया जाए। उनके साथ रोटी-बेटी के संबंध स्थापित किए जाएं। उन्हें अछूत न समझा जाए। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक देश में धर्मनिरपेक्ष संस्कृति को निर्मित करने लिए जमीनी स्तर पर विभिन्न धर्मों और उनके मानने वालों के बीच में सांस्कृतिक-सामाजिक आदान-प्रदान पर जोर दिया जाए। अन्तर्धार्मिक समारोहों के आयोजन किए जाएं। मुसलमानों और हिन्दुओं में व्याप्त सामाजिक अलगाव को दूर करने के लिए आपसी मेलजोल, प्रेम-मुहब्बत पर जोर दिया जाए। इससे समाज का सांस्कृतिक खोखलापन दूर होगा, रूढ़िवाद टूटेगा और सामाजिक परायापन घटेगा।

भारत में करोड़ों मुसलमान रहते हैं लेकिन गैर मुस्लिम समुदाय के अधिकांश लोगों को यह नहीं मालूम कि मुसलमान कैसे रहते हैं, कैसे खाते हैं, उनकी क्या मान्यताएं, रीति-रिवाज हैं। अधिकांश लोगों को मुसलमानों के बारे में सिर्फ इतना मालूम है कि दूसरे वे धर्म के मानने वाले हैं। उन्हें जानने से हमें क्या लाभ है। इस मानसिकता ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच के सामाजिक अंतराल को बढ़ाया है। इस अंतराल ने संशय, घृणा और बेगानेपन को पुख्ता किया है।

मुसलमानों के बारे में एक मिथ है कि उनका खान-पान और हमारा खान-पान अलग है, उनका धर्म और हमारा धर्म अलग है। वे मांस खाते हैं, गौ मांस खाते हैं। इसलिए वे हमारे दोस्त नहीं हो सकते। मजेदार बात यह है कि ये सारी दिमागी गड़बड़ियां कारपोरेट संस्कृति उद्योग के प्रचार के गर्भ से पैदा हुई हैं।

सच यह है कि मांस अनेक हिन्दू भी खाते हैं, गाय का मांस सारा यूरोप खाता है। मैकडोनाल्ड और ऐसी दूसरी विश्वव्यापी खाद्य कंपनियां हमारे शहरों में वे ही लोग लेकर आए हैं जो यहां पर बड़े पैमाने पर मुसलमानों से मेलजोल का विरोध करते हैं। मीडिया के प्रचार की खूबी है कि उसने मैकडोनाल्ड का मांस बेचना, उसकी दुकान में मांस खाना, यहां तक कि गौमांस खाना तो पवित्र बना दिया है, लेकिन मुसलमान यदि ऐसा करता है तो वह पापी है, शैतान है, हिन्दू धर्म विरोधी है।

आश्चर्य की बात है जिन्हें पराएपन के कारण मुसलमानों से परहेज है उन्हें पराए देश की बनी वस्तुओं, खाद्य पदार्थों, पश्चिमी रहन-सहन, वेशभूषा, जीवनशैली आदि से कोई परहेज नहीं है। यानी जो मुसलमानों के खिलाफ ज़हर फैलाते हैं वे पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के अंधभक्तों की तरह प्रचार करते रहते हैं। उस समय उन्हें अपना देश, अपनी संस्कृति, देशी दुकानदार, देशी माल, देशी खानपान आदि कुछ भी नजर नहीं आता। अनेक अवसरों पर यह भी देखा गया है कि मुसलमानों के प्रति घृणा फैलाने वाले पढ़े लिखे लोग ऐसी बेतुकी बातें करते हैं जिन्हें सुनकर आश्चर्य होता है। वे कहते हैं मुसलमान कट्टर होता है। रूढ़िवादी होता है। भारत की परंपरा और संस्कृति में मुसलमान कभी घुलमिल नहीं पाए, वे विदेशी हैं।

मुसलमानों में कट्टरपंथी लोग यह प्रचार करते हैं कि मुसलमान तो भारत के विजेता रहे हैं।वे मुहम्मद बिन कासिम, मुहम्मद गोरी और महमूद गजनवी की संतान हैं। उनकी संस्कृति का स्रोत ईरान और अरब में है। उसका भारत की संस्कृति और सभ्यता के विकास से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन सच यह नहीं है।

सच यह है कि 15वीं शताब्दी से लेकर आज तक भारत के सांस्कृतिक -राजनीतिक-आर्थिक निर्माण में मुसलमानों की सक्रिय भूमिका रही है। पन्द्रहवीं से लेकर 18वीं शताब्दी तक उत्तरभारत की प्रत्येक भाषा में मुसलमानों ने शानदार साहित्य रचा है। भारत में तुर्क, पठान अरब आदि जातीयताओं से आने शासकों को अपनी मातृभाषा की भारत में जरूरत ही नहीं पड़ी, वे भारत में जहां पर भी गए उन्होंने वहां की भाषा सीखी और स्थानीय संस्कृति को अपनाया। स्थानीय भाषा में साहित्य रचा। अपनी संस्कृति और सभ्यता को छोड़कर यहीं के होकर रह गए। लेकिन जो यहां के रहने वाले थे और जिन्होंने अपना धर्म बदल लिया था उनको अपनी भाषा बदलने की जरूरत महसूस नहीं हुई। जो बाहर से आए थे वे स्थानीय भाषा और संस्कृति का हिस्सा बनकर रह गए।

हिन्दी आलोचक रामविलास शर्मा ने लिखा है मुसलमानों के रचे साहित्य की एक विशेषता धार्मिक कट्टरता की आलोचना, हिन्दू धर्म के प्रति सहिष्णुता, हिन्दू देवताओं की महिमा का वर्णन है। दूसरी विशेषता यहाँ की लोक संस्कृति, उत्सवों-त्यौहारों आदि का वर्णन है। तीसरी विशेषता सूफी-मत का प्रभाव और वेदान्त से उनकी विचारधारा का सामीप्य है।

उल्लेखनीय है दिल्ली सल्तनत की भाषा फारसी थी लेकिन मुसलमान कवियों की भाषाएँ भारत की प्रादेशिक भाषाएँ थीं। अकबर से लेकर औरंगजेब तक कट्टरपंथी मुल्लाओं ने सूफियों का जमकर विरोध किया। औरंगजेब के जमाने में उनका यह प्रयास सफल रहा और साहित्य और जीवन से सूफी गायब होने लगे। फारसीयत का जोर बढ़ा।

भारत में ऐसी ताकतें हैं जो मुसलमानों को गुलाम बनाकर रखने, उन्हें दोयमदर्जे का नागरिक बनाकर रखने में हिन्दू धर्म का गौरव समझती हैं। ऐसे संगठन भी हैं जो मुसलमानों के प्रति अहर्निश घृणा फैलाते रहते हैं। इन संगठनों के सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव का ही दुष्परिणाम है कि आज मुसलमान भारत में अपने को उपेक्षित, पराया और असुरक्षित महसूस करते हैं।

जिस तरह हिन्दुओं में मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा करने वाले संगठन सक्रिय हैं वैसे ही मुसलमानों में हिन्दुओं के प्रति घृणा पैदा करने वाले संगठन भी सक्रिय हैं। ये एक ही किस्म की विचारधारा यानी साम्प्रदायिकता के दो रंग हैं।

हिन्दी के महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने हिन्दू-मुस्लिम भेद को नष्ट करने के लिए जो रास्ता सुझाया है वह काबिलोगौर है। उन्होंने लिखा-‘‘ भारतवर्ष में जो सबसे बड़ी दुर्बलता है, वह शिक्षा की है। हिन्दुओं और मुसलमानों में विरोध के भाव दूर करने के लिए चाहिए कि दोनों को दोनों के उत्कर्ष का पूर्ण रीति से ज्ञान कराया जाय। परस्पर के सामाजिक व्यवहारों में दोनों शरीक हों, दोनों एक-दूसरे की सभ्यता को पढ़ें और सीखें। फिर जिस तरह भाषा में मुसलमानों के चिह्न रह गए हैं और उन्हें अपना कहते हुए अब किसी हिन्दू को संकोच नहीं होता, उसी तरह मुसलमानों को भी आगे चलकर एक ही ज्ञान से प्रसूत समझकर अपने ही शरीर का एक अंग कहते हुए हिन्दुओं को संकोच न होगा। इसके बिना, दृढ़ बंधुत्व के बिना, दोनों की गुलामी के पाश नहीं कट सकते, खासकर ऐसे समय, जबकि फूट डालना शासन का प्रधान सूत्र है।’’

भारत में मुसलमान विरोध का सामाजिक और वैचारिक आधार है जातिप्रथा, वर्णाश्रम व्यवस्था। इसी के गर्भ से खोखली भारतीयता का जन्म हुआ है जिसे अनेक हिन्दुत्ववादी संगठन प्रचारित करते रहते हैं। जातिप्रथा के बने रहने के कारण धार्मिक रूढ़ियां और धार्मिक विद्वेष भी बना हुआ है।

भारत में धार्मिक विद्वेष का आधार है सामाजिक रूढ़ियाँ। इसके कारण हिन्दू और मुसलमानों दोनों में ही सामाजिक रूढ़ियों को किसी न किसी शक्ल में बनाए रखने पर कट्टरपंथी लोग जोर दे रहे हैं। इसके कारण हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष बढ़ा है। सामाजिक एकता और भाईचारा टूटा है। हिन्दू-मुसलमान एक हों इसके लिए जरूरी है धार्मिक-सामाजिक रूढ़ियों का दोनों ही समुदाय अपने स्तर पर यहां विरोध करें।

हिन्दू-मुस्लिम समस्या हमारी पराधीनता की समस्या है। अंग्रेजी शासन इसे हमें विरासत में दे गया है। इस प्रसंग में निराला ने बड़ी मार्के की बात कही है। निराला का मानना है हिन्दू मुसलमानों के हाथ का छुआ पानी पिएं, पहले यह प्राथमिक साधारण व्यवहार जारी करना चाहिए। इसके बाद एकीकरण के दूसरे प्रश्न हल होंगे।

निराला के शब्दों में हिन्दू-मुसलमानों में एकता पैदा करने के लिए इन समुदायों को ‘‘वर्तमान वैज्ञानिकों की तरह विचारों की ऊँची भूमि’’ पर ले जाने की जरूरत है। इससे ही वे सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों से मुक्त होंगे।

10 COMMENTS

  1. जगदीश्वर चतुर्वेदी जी, सर्व प्रथम मैं आपको मुबारकबाद देता हूँ कि आप एक अच्छे अभियान का हिस्सा बनते जा रहे हैं. यूँ तो इस देश में हर किसी को अपनी राय देने का पूरा अधिकार है, प्रोफ़ेसर को भी और दूकानदार बनिए को भी. प्रोफ़ेसर का दृष्टिकोण अध्यन प़र आधारित, पढ़ा-लिखा और दलीलों के साथ होगा जबकि दूकानदार उसी विषय प़र अपने सीमित ज्ञान के आधार प़र अपनी राय देगा. मैं जानता हूँ कि इस देश में हिन्दू-मुस्लिम शादियाँ सबसे ज्यादा कामियाब रही हैं और ऐसी शादियों का प्रतिशत भी निरंतर बढ़ता जा रहा है. यह अजीब सी बात है कि मुस्लिम लड़कों को पसंद कर उनसे शादियाँ करने वाली लडकियों में हिन्दू लड़कियां अधिक पाई गयी है और वे अपने जीवन में सफल भी होती हैं. न उन्हें दहेज़ को लेकर जलना पड़ता है और न उन्हें बुर्के में रहकर अपना मुंह छुपाना पड़ता है. ससुराल का समर्थन भी खूब मिलता है और मज़हबी आज़ादी भी. मेरी श्रीमती भी हिन्दू हैं और उनकी सुबह गायत्री मंत्रोच्चार से शुरू होती है. दाम्पत्य-जीवन के २८ साल पूरे हो गए.ससुराल में अरएसेस की पूरी पैठ है प़र मुझे आजतक पता ही नहीं चला कि मैंने हिन्दू लड़की से शादी की है.शाहरुख़ के ससुर तो अपने दामाद को अपनी बेटी गौरी से भी ज्यादा भाव देते हैं और कहते हैं कि शायद उन्होंने पिछले जनम मे कुछ अच्छे कार्य किये थे.मैं दिल्ली में ही असंख्य परिवारों को जानता हूँ जो खुशाल जिंदगी जी रहे हैं. ठीक इसके विपरीत . हिन्दू लड़कों में मुस्लिम लड़कियों से शादी करने का प्रतिशत मात्र एक प्रतिशत है और वे (कुछ उदाहरणों को छोड़कर) सफल नहीं हैं. यह सन्देश क्या दर्शाता है. दूसरी बात, गालियां कौन देता है, जो कमज़ोर होता है.ख़ाली डिब्बे आवाजें करते हैं लेकिन उनसे डरा नहीं जाता. शेर की गूँज से जंगल दहल जाता है. अभिव्यक्ति की आज़ादी है तो कहने का भी सबको अधिकार भी है. आप उनकी दलीलें भी तो देखिये और भाषा….? उनको न तो हिन्दू मायिथालोगी का पता है न इस्लाम का. न हिंदी आती है, न उर्दू. न बोलना आता है न शब्दों का उच्चारण करना. क्या करेंगे आप? जो शाखा में बता-पढ़ा दिया गया, वह पढ़ लिया. वही उनका ज्ञान है.तांबे प़र कलई चढ़ सकती है, टीन प़र नहीं. उन्हें तो खुद अपने बारे में भी नहीं मालूम है कि उनका ओरिजिन क्या है. मैं इस तरफ ध्यान नहीं देता. अपना तो काम है कि जलाते चलो चिराग/रस्ते में ख्वाह दोस्त या दुश्मन का घर मिले.

  2. चतुर(वेदी) जी मुस्लिमो से प्यार करते है तो उद्धहरण प्रस्तुत करने से लिए कश्मीर के हिंसा ग्रस्त इलाके में कुछ महीने रह लीजिये .

  3. sureshji aap bhi vyarth matha fodi kar rahe hain. chaturvedi jaise logon ka kam hi mukhya muddon se bhatkana hai. in jaise logon ko hinduon ko gaali dene ke paise milte hain. main chahunga ki vyarth me panne mat rangiye. pathak kripa kar ke gambhir muddon me dhyan kendrit karen.
    in vyarth ki baaton me na uljhen.
    sdhanyavaad

  4. चतुर्वेदी तुम इस्लाम को कितना जानते हो? तुम कहते हो “मुसलमानों को दोस्त बनाया जाए। उनके साथ रोटी-बेटी के संबंध स्थापित किए जाएं।” क्या तुम जानते हो ऐही कोशिश करने की सजा अपनी जान दे कर चुकानी पडती है, जम्मू एवं बिहार के उदाहरण नवभारत टाईम्स के आर्काईव मे मिल जाएंगे। और छोडो हिन्दू मुस्लिम के विवाह संबंध की बात अगर तुम शिया और सुन्नी के विवाह संबंध ही तय करवा दो तो तुमको शांति पुरस्कार का दावेदार धोषित कर दिया जाएगा।

    तुम्हारा एक पेटेंट मार्का है कि सभी लेखों मे कम से कम एक झूठ जरूर होगा तुमने यह लिखा है “भारत में ऐसी ताकतें हैं जो मुसलमानों को गुलाम बनाकर रखने, उन्हें दोयमदर्जे का नागरिक बनाकर रखने में हिन्दू धर्म का गौरव समझती हैं।” ऐसा कोइ हिन्दू संगठन नही सोचता पर हाँ अगर वामपंथी विचारधारा ऐसी है तो कह नही सकते, क्योंकि उनके निर्देश चीन से आते हैं और शेन जियांग मे जिस तरह से मुस्लिमों के साथ बर्ताव किया गया है उसकी पुनरावृत्ति यहां तो होनी ही है आखिर HQ के patteren पर ही चलेंगे न।

  5. वही पुराना दर्रा, जिस विषय का क.ख.ग.भी मनहीं जानते, उस पर भी पुरे अधिकार से लिखना ! आदरणीय मित्र चतुर्वेदी जी आप बात को समझना नहीं चाहते या समझ सकते ही नहीं ? suresh जी के uthaaye prashnon के uttar to आप shaayad he den, ye aapakee paramparaa या swabhaaw hai ही नहीं.
    kewal ek prashn का jawaab dhundhiye ki saare sansaar mein islaam को ek khatare के ruup mein dekhane के kyaa kaaran hain. agar saamywaad के ilaawaa kuchh aur padhane से parhez n ho to kuraan shreef ek baar padh len. khulee ankhon से padhenge to islaam aur muslim समझ aa jaayegaa. fir आप hinduon को dosh नहीं de paayenge. पर jaanataa hun ki puuwaagrahon को chhodanaa aapake wash kee बात नहीं. fir भी deepaawali kee haardik shubh kaamanaayen !

  6. pranam
    saahitya ke bare me likhe to achchha hoga aur kisi visay ki jankari nahi ho to na likhe eslam par aap etna bhasharh dete hai eslam me gau hatya kab se jurh gaya etihas bataeye jabaab mai duga barha kitab parhate hai aap mujaffar husain ki likhee kitab hai -slam aur sakahar -jarur parheeye aap jaise logo se aisi ummeed nahi hai 3 karorh musalman sidhe gau palan se jurhe hai aap ki jankari ke liye hal hi me 10 lakh musalmano ne vicepresident se gau hatya bandee ke liye likhit aagrah kiya hai es par unka kahana tha 1 karorh laao etni chhoti sankhya thik nahi hai aap ke parisram ko mai salam karta hu jaldi aaogena mujhe bhi lagana hai musalmano par dag laga haye hai angrej use chhurhana hai kitab lekar jamin par jayege to sachchae pata chal jayegi anubhav ka gyan hi sachcha gyan hota hai ek sujhav aur hindu manyatayon ke vaigyanikaran aadhar par bhi aapko parhane ki jarurat hai nigetiv hi lekar chalege to koe bat hi nahi hai

  7. क्या कीजियेगा, कितना सर पटकियेगा आ. सुरेश जी. आप लाख सर पटक लें इन जैसे तत्वों को कभी आप तार्किकता का पाठ पढ़ा ही नहीं सकते. आपने बिलकुल सही कहा है कि अगर केवल इन्द्रेश जी को बेहतर तरीके से काम करने दिया जाता तो अपने-आप देश गंगा-यमुनी संस्कृति में दुबकी लगाना शुरू कर देता. लेकिन यह इन तत्वों को क्यूँकर रास आये. फ़िर इनकी दूकान से नफरत का सामान खरीदने कौन जाएगा. बहरहाल..जबतक राष्ट्रवादी प्रबुद्ध जन कायम हैं तब-तक इनके मंसूबे सफल नहीं हो सकते. अच्छा, शानदार और प्रासंगिक साल उठाया है आपने चिपलूनकर जी….साधुवाद.

  8. आदरणीय चतुर्वेदी जी,

    १) “…मुसलमानों को दोस्त बनाया जाए। उनके साथ रोटी-बेटी के संबंध स्थापित किए जाएं…”
    चलिये आप शुरुआत कीजिये…

    २) “…जिस तरह हिन्दुओं में मुसलमानों के प्रति घृणा पैदा करने वाले संगठन सक्रिय हैं वैसे ही मुसलमानों में हिन्दुओं के प्रति घृणा पैदा करने वाले संगठन भी सक्रिय हैं। ये एक ही किस्म की विचारधारा यानी साम्प्रदायिकता के दो रंग हैं…”
    आपने अब तक “दूसरी” साम्प्रदायिकता के खिलाफ़ कितना और कैसा लिखा है? कब तक “हिन्दुओं” और “हिन्दू साम्प्रदायिकता” पर ही लिखते रहेंगे… अब तो ऊब होने लगी है।

    ३) आपने कहा “…वे कहते हैं मुसलमान कट्टर होता है। रूढ़िवादी होता है। भारत की परंपरा और संस्कृति में मुसलमान कभी घुलमिल नहीं पाए…”
    आप जैसे विद्वान से जानना चाहूंगा कि “वन्देमातरम” देश के गौरव का प्रतीक है या साम्प्रदायिक है? फ़िर अगला सवाल तो आप खुद-ब-खुद जान जायेंगे…

    ४) कश्मीर समस्या को “राजनैतिक” मानने वाले या तो भोले हैं या मूर्ख हैं… यह विशुद्ध धार्मिक समस्या है…। अब चतुर्वेदी जी तमाम ग्रन्थ खोजकर मुस्लिम सहिष्णुता और भाईचारे के बारे में बताएंगे कि “ऐसा क्यों होता है कि जैसे ही किसी क्षेत्र में मुस्लिम बहुसंख्यक हो जाता है, वैसे ही वहाँ रह रहे अल्पसंख्यकों की हालत बदतर होती जाती है?”

    ५) पंडित चतुर्वेदी जी यह भी बताएंगे कि शाहबानो मसले पर देश के कितने “उदारवादी मुस्लिम” जोरशोर से सामने आये? और उन्होंने सिद्धान्त-फ़ेंकू वामपंथियों के साथ मिलकर कांग्रेस के खिलाफ़ आंदोलन चलाया…

    ६) केरल में प्रोफ़ेसर के हाथ काटने वालों पर न कोई ठोस जाँच हो रही है, न ही कार्रवाई… ये कैसा वामपंथ है सर जी? या सारे सिद्धान्त सिर्फ़ किताबें लिखने तक ही सीमित हैं?

    मुस्लिमों से सम्बन्ध मधुर बनाने और उनसे सार्थक बातचीत में इन्द्रेश जी कार्यरत थे, लेकिन यह कांग्रेस और वामपंथियों को रास नहीं आया… अब कैसे भरोसा करें आपके इस “धुर-आदर्शवादी” लेखन पर?

Leave a Reply to ranjan zaidi Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here