टीपू विवाद आखिर किस तरह देश हित में है ?

tipu sultanशैलेन्द्र चौहान
कर्नाटक की कांग्रेस शासित सरकार 10 नवंबर से टीपू सुल्तान की जयंती मना रही है। बीजेपी के अलावा वीएचपी और बजरंग दल जैसे हिंदू संगठन इसके खिलाफ हैं। इतिहास में टीपू सुल्तान को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले एक मजबूत राजा के तौर पर जाना जाता है लेकिन हिंदू संगठन उसे एक क्रूर शासक मानते हैं। टीपू पर लाखों हिंदुओं के धर्मपरिवर्तन एवं हिंदू मंदिरों तथा ईसाइयों के गिरजाघरों को तोड़ने का आरोप लगाया जा रहा है। इस विवाद के मूल में ”फ्रीडम स्ट्रगल इन केरला” नामक संकलन है। सरदार के एम पणिक्कर का नाम लेकर कुछ हिन्दू संगठन कुछ इस तरह अपना नफ़रत अभियान चला रहे हैं जो सोशल मीडिया पर भी वायरल किया है – “टीपू सुलतान को हमारे इतिहास में एक प्रजावत्सल राजा के रूप में दर्शाया गया है। टीपू ने अपने राज्य में लगभग 5 लाख हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया। लाखों की संख्या में कत्ल कराये। कुछ एतिहासिक तथ्य मेरे पास उपलब्ध हैं जिनसे टीपू के दानवी हृदय का पता चलता है।” टीपू (?) के शब्दों में – “यदि सारी दुनिया भी मुझे मिल जाए, तब भी मैं हिंदू मंदिरों को नष्ट करने से नहीं रुकूंगा”-(फ्रीडम स्ट्रगल इन केरल)। आश्चर्य की बात यह है कि पणिक्कर विद्वान साहित्यकार और लेखक थे तथा एक अच्छे प्रशासक भी थे उन्होंने अंग्रेजों से लेकर कांग्रेस के शासन में देश-विदेश में कई महत्त्वपूर्ण जगहों पर कार्य किया था। न तो उनकी विचारधारा हिंदूवादी थी न ही बहुत ढूंढने के बावजूद मुझे उनका कोई ऐसा लेख या टिप्पणी देखने को मिली। अलबत्ता ‘फ्रीडम स्ट्रगल इन केरल’ में रवि वर्मा के नाम से एक लेख प्रकाशित किया है ‘टीपू सुल्तान एज नोन इन केरला’ जिसमें इस तरह के विचार अवश्य शामिल हैं जिसमें टीपू को एक क्रूर, कट्टर और धर्मांध मुसलमान बताया गया है। इसमें बहुत से संदर्भ हैं जिनमें प्रमुख स्रोत है मलाबार के तत्कालीन कलेक्टर विलियम लोगन का सरकारी संकलन ‘मलाबार मैनुएल’। विलियम लोगन स्वयं एक बेहद असहिष्णु और भारतीयों से नफ़रत करने वाला अंग्रेज था। एक और बात जो प्रचारित की जा रही है वह है कि – “दी मैसूर गजेतिअर” में लिखा है – “टीपू ने लगभग 1000 मंदिरों का ध्वस्त किया।” 22 मार्च 1727 को टीपू ने अपने एक सेनानायक अब्दुल कादिर को एक पत्र लिखा की – “12000 से अधिक हिंदू मुसलमान बना दिए गए। ध्यान देने की बात है कि टीपू का जन्म ही 1750 ईसवीं में हुआ था तब 1727 में पत्र कैसे लिखना संभव था। फिर कहा गया कि “14 दिसम्बर 1790 को उसने अपने सेनानायकों को पत्र लिखा कि – “मैं तुम्हारे पास मीर हुसैन के साथ दो अनुयाई भेज रहा हूँ उनके साथ तुम सभी हिन्दुओं को बंदी बना लेना और 20 वर्ष से कम आयु वालों को कारागार में रख लेना और शेष सभी को पेड़ से लटकाकर वध कर देना”। और भी कि टीपू ने अपनी तलवार पर भी खुदवाया था – “मेरे मालिक मेरी सहायता कर कि, मैं संसार से काफिरों (गैर मुसलमान) को समाप्त कर दूँ”। “ऐसे कितने और ऐतिहासिक (?) तथ्य टीपू सुलतान को एक मतान्ध, निर्दयी, हिन्दुओं का संहारक साबित करते हैं क्या ये हिन्दू समाज के साथ अन्याय नही है कि, हिन्दुओं के हत्यारे को हिन्दू समाज के सामने ही एक वीर देशभक्त राजा बताया जाता है ??” यहां ध्यान देने की बात है कि सुल्तान अंग्रेजों के सामने हार नहीं मान रहा था जबकि मराठों की संधि अंग्रेजों से बनी हुई थी। मराठे टीपू से परास्त हुए थे इसलिए वे उसके शत्रु थे। अंग्रेज भारत के स्वतंत्रता संग्राम को हर कीमत पर कमजोर करना चाहते थे इसलिए उन्होंने ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपनाई थी। लेकिन तब भी ऐसा कुछ मैसूर गजेतिअर में दिखाई नहीं देता। अब एक दूसरा पक्ष भी है। उड़ीसा के भूतपूर्व राज्यपाल, राज्यसभा के पूर्व सदस्य और इतिहासकार प्रो. विशम्भरनाथ पाण्डेय ने अपने अभिभाषण और लेखन में कुछ ऐतिहासिक तथ्यों और वृतान्तों को उजागर किया है। उन्हीं के शब्दों में ‘‘कुछ मैं ऐसे उदाहरण पेश करता हूं, जिनसे यह स्पष्ट हो जायेगा कि ऐतिहासिक तथ्यों को कैसे विकृत किया जाता है। जब मैं इलाहाबाद में 1928 र्इ0 में टीपू सुल्तान के सम्बन्ध मे रिसर्च कर रहा था, तो ऐंग्लो-बंगाली कालेज के छात्र-संगठन के कुछ पदाधिकारी मेरे पास आए और ‘हिस्ट्री-एसोसिएशन’ का उद्घाटन करने के लिए मुझको आमंत्रित किया। ये लोग कालेज से सीधे मेरे पास आए थे। उनके हाथों में कोर्स की किताबें भी थीं, संयोगवश मेरी निगाह उनकी इतिहास की किताब पर पड़ी। मैने टीपू सुल्तान से संबंधित अध्याय खोला तो मुझे जिस वाक्य ने बहुत ज्यादा आश्चर्य में डाल दिया वह यह था ‘‘तीन हजार ब्राह्मणों ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि टीपू उन्हें ज़बरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था।’’। इस पाठ्य-पुस्तक के लेखक महामहोपाध्याय डा. हरप्रसाद शास्त्री थे जो कलकत्ता विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाध्यक्ष थे। मैने तुरन्त डा. शास्त्री को लिखा कि उन्होंने टीपू सुल्तान के सम्बन्ध में उपरोक्त वाक्य किस आधार पर और किस हवाले से लिखा है। कर्इ पत्र लिखने के बाद उनका यह जवाब मिला कि उन्होंने यह घटना ‘गजेटियर’ (Mysore Gazettier) से उद्धृत की है। मैसूर गजेटियर न तो इलाहाबाद में और न ही इम्पीरियल लाइब्रेरी, कलकत्ता में प्राप्त हो सका। तब मैने मैसूर विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति सर बृजेन्द्र नाथ सील को लिखा कि डा. शास्त्री ने जो बात कही है, उसके बारे में जानकारी दें। उन्होंने मेरा पत्र प्रोफेसर श्री कन्टइया के पास भेज दिया जो उस समय मैसूर गजेटियर का नया संस्करण तैयार कर रहे थे। प्रोफेसर श्री कन्टइया ने मुझे लिखा कि तीन हजार ब्राह्मणों की आत्महत्या की घटना ‘‘मैसूर गजेटियर’’ में नहीं है, और मैसूर के इतिहास के एक विद्यार्थी की हैसियत से उन्हें इस बात का पूरा यकीन है कि इस प्रकार की कोर्इ घटना घटी ही नही हैं। उन्होंने मुझे सूचित किया कि टीपू सुल्तान के प्रधानमंत्री पुनैया नामक एक ब्राह्मण थे और उनके सेनापति भी एक ब्राह्मण कृष्णराव थे। उन्होंने मुझको ऐसे 156 मंदिरों की सूची भी भेजी जिन्हें टीपू सुल्तान वार्षिक अनुदान दिया करते थे। उन्होंने टीपू सुल्तान के तीस पत्रों की फोटो कापियां भी भेजीं जो उन्होने श्रृंगेरी मठ के जगदगुरू शंकरचार्य को लिखे थे और जिनके साथ सुल्तान के अति घनिष्ठ मैत्री सम्बन्ध थे। मैसूर के राजाओं की परम्परा के अनुसार टीपू सुल्तान प्रतिदिन नाश्ता करने से पहले रंगनाथ जी के मंदिर में जाते थे, जो श्रीरंगापटन के किले मे था। प्रोफेसर श्री कन्टइया के विचार में डा. शास्त्री ने यह घटना कर्नल माइल्स की किताब ‘हिस्ट्री ऑफ मैसूर’ (मैसूर का इतिहास) से ली होगी। इसके लेखक का दावा था कि उसने अपनी किताब ‘टीपू सुल्तान का इतिहास’ एक प्राचीन फारसी पांडुलिपि से अनूदित किया हैं, जो महारनी विक्टोरिया की निजी लाइब्ररी में थी। खोज-बीन से मालूम हुआ कि महारानी की लाइब्रेरी में ऐसी कोर्इ पांडुलिपि थी ही नहीं। डा. शास्त्री की किताब पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में पाठयक्रम के लिए स्वीकृत थी। मैंने कलकत्ता विश्वविद्यालय के तत्कालीन वी सी सर आशुतोष चौधरी को पत्र लिखा और इस सिलसिले में अपने सारे पत्र-व्यवहार की नकलें भजीं और उनसे निवेदन किया कि इतिहास की इस पाठय-पुस्तक में टीपू सुल्तान से सम्बन्धित जो गलत और भ्रामक वाक्य आए हैं उनके विरूद्ध समुचित कार्यवाही की जाए। सर आशुतोष चौधरी का शीध्र ही यह जवाब आ गया कि डा. शास्त्री की उक्त पुस्तक को पाठयक्रम से निकाल दिया गया हैं। परन्तु मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि आत्महत्या की वही घटना 1972 र्इ0 में भी उत्तर प्रदेश में जूनियर हार्इ स्कूल की कक्षाओं में इतिहास के पाठयक्रम की किताबों में उसी प्रकार मौजूद थी।” अक्सर यह कहा जाता है कि अंग्रेजों ने इतिहास अपने ढंग से लिखा है लेकिन साम्प्रदायिकता के मामले में उन्हें ही आदर्श मान लिया जाता है। इस सिलसिले में महात्मा गांधी की वह टिप्पणी भी पठनीय है जो उन्होंने अपने अख़बार ‘यंग इंडिया’ मे 23 जनवरी, 1930 र्इ0 अंक में पृष्ठ 31 पर की थी। उन्होंने लिखा था कि – ‘‘ मैसूर के फतह अली (टीपू सुल्तान) को विदेशी इतिहासकारों ने इस प्रकार पेश किया है कि मानो वह धर्मान्धता का शिकार था। इन इतिहासकारों ने लिखा हैं कि उसने अपनी हिन्दू प्रजा पर जुल्म ढाए और उन्हें जबरदस्ती मुसलमान बनाया, जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत थी। हिन्दू प्रजा के साथ उसके बहुत अच्छे सम्बन्ध थे। मैसूर राज्य (अब कर्नाटक) के पुरातत्व विभाग ( Archeology Department ) के पास ऐसे तीस पत्र हैं, जो टीपू सुल्तान ने श्रृंगेरी मठ के जगदगुरू शंकराचार्य को 1793 र्इ0 में लिखे थे। इनमें से एक पत्र में टीपू सुल्तान ने शंकराचार्य के पत्र की प्राप्ति का उल्लेख करते हुए उनसे यह निवेदन किया है कि वे उसकी और सारी दुनिया की भलार्इ कल्याण और खुशहाली के लिए तपस्या और प्रार्थना करें। अन्त में उसने शंकराचार्य से यह भी निवेदन किया है कि वे मैसूर लौट आऐं क्योंकि किसी देश में अच्छे लोगों के रहने से अच्छी वर्षा होती है, फसल अच्छी होती हैं और खुशहाली आती है।’’ यह पत्र भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखे जाने के योग्य हैं। ‘यंग इण्डिया’ में आगे कहा गया हैं- ‘‘ टीपू सुल्तान ने हिन्दू मन्दिरों विशेष रूप से श्री वेंकटरमण, श्री निवास और श्री रंगनाथ मन्दिरों को जमीनें एवं अन्य वस्तुओं के रूप में बहुमूल्य उपहार दिए। कुछ मन्दिर उसके महलों के अहाते में थे यह उसके खुले जेहऩ, उदारता एवं सहिष्णुता का जीता-जागता प्रमाण है। इससे यह वास्तविकता उजागर होती है कि टीपू एक महान शहीद था। जो किसी भी दृष्टि से आजादी की राह का हकीकी शहीद माना जाएगा, उसे अपनी इबादत में हिन्दू मन्दिरों की घंटियों की आवाज से कोर्इ परेशानी महसूस नहीं होती थी। टीपू ने आजादी के लिए लड़ते हुए जान दे दी और दुश्मन के सामने हथियार डालने के प्रस्ताव को सिरे से ठुकरा दिया। जब टीपू की लाश उन अज्ञात फौजियों की लाशों मे पार्इ गर्इ तो देखा गया कि मौत के बाद भी उसके हाथ में तलवार थी, वह तलवार जो आजादी हासिल करने का जरिया थी। टीपू के ये ऐतिहासिक शब्द आज भी याद रखने के योग्य हैं ‘ शेर की एक दिन की जिन्दगी लोमड़ी के सौ सालों की जिंदगी से बेहतर है।‘ कुछ लोगों के लिए स्वतंत्रता संग्राम महत्वहीन है क्योंकि उनकी उस यज्ञ में कोई भूमिका ही नहीं रही। वे अंतर्मन से संभवतः अंग्रेज गुलामी के ही समर्थक रहे। आज भी पश्चिम के गोरों से उन्हें अत्यधिक प्रेम है। उन्हें शत्रु, मुसलमान ही दिखाई देते हैं जो इस देश में स्थाई रूप से बस गए। मैं ऐसा भी नहीं मानता कि टीपू ने अपनी और पडोसी राज्य की प्रजा से ज्यादतियां नहीं की होंगी। वह सुल्तान था। उस समय युद्ध वीरता की निशानी थे, हारे हुए राजा और उसकी प्रजा को लूटना, मारना जायज माना जाता था। अशोक ने कलिंग युद्ध में लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा था। हिंदू राजा भी इसके अपवाद नहीं थे। लेकिन यदि तथ्यों को तोड़मरोड़ कर सांप्रदायिक रंग दिया जाए तो इसे अपराध की श्रेणी में ही रखा जायेगा। अंत में मैं कहना चाहूंगा कि इतिहास को तत्कालीन परिस्थितियों एवं साक्ष्यों के आधार पर ही परखा जाना चाहिए न कि भावनात्मक आधार पर।

3 COMMENTS

  1. A vary good and factual article on Tipu sultan has been written by Journalist Shailedra Chauhan. A communal Hate campaign usually launched for vote bank politics.

  2. शैलेंद्र जी,

    सबूतों के सात तथ्य परख लेख की भागीदीरी देने हेतु बहुपत आभार.

    laxnmirangam.blogspot.in

  3. इतिहास के बारे में दो कहावते काफी प्रसिद्ध हैं – 1- इतिहास स्वयं को दोहराता है और 2, इतिहास बहुत निर्दयी होता है । हमारा दुर्भाग्य कि हमारे पास अपना कोई प्रामाणिक इतिहास अथवा इतिहासकार नहीं है ।

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