तेल का खेल

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शैलेन्द्र चौहान
आखिर आईएस उर्फ़ इस्लामिक स्टेट है क्या, किन कारणों से यह अस्तित्व में आया ? इस संगठन का प्रचलित नाम था आईएसआईएस अर्थात् ‘इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया’, इसके कई नाम हैं जैसे आईएसआईएल्, दाइश आदि। आईएसआईएस के नाम से इस संगठन का गठन अप्रैल 2013 में किया गया था। इब्राहिम अव्वद अल-बद्री उर्फ अबु बक्र अल-बगदादी इसका मुखिया था। ईराक एवं सीरिया में सक्रिय आईएस जून 2014 में बनाया गया। यह एक जिहादी सुन्नी सैन्य समूह है। अरबी भाषा में इस संगठन का नाम है ‘अल दौलतुल इस्लामिया फिल इराक वल शाम’। इसका हिन्दी अर्थ है- ‘इराक एवं शाम का इस्लामी राज्य’। शाम सीरिया का प्राचीन नाम है। शुरू में अल कायदा ने इसका हर तरह से समर्थन किया किन्तु बाद में अल कायदा इस संगठन से अलग हो गया। अब यह अल कायदा से भी अधिक मजबूत और क्रूर संगठन के तौर पर जाना जाता हैं। यह दुनिया का सबसे अमीर आतंकी संगठन है जिसका बजट 2 अरब डॉलर का है। 29 जून 2014 को इसने अपने मुखिया को विश्व के सभी मुसलमानों का खलीफा घोषित कर दिया। विश्व के अधिकांश मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों को सीधे अपने राजनीतिक नियंत्रण में लेना इसका घोषित लक्ष्य है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये इसने सबसे पहले लेवेन्त क्षेत्र को अपने अधिकार में लेने का मंसूबा बनाया जिसके अन्तर्गत जॉर्डन, इजरायल, फिलिस्तीन, लेबनान, कुवैत, साइप्रस तथा दक्षिणी तुर्की का कुछ भाग आता हैं। आईएसआईएस के सदस्यों की संख्या करीब 10,000 बताई जाती है।
आखिर यह आतंकवाद है क्या ? हिंसात्मक घटनाओं के माध्यम से लोगों में भय पैदा करना आतंकित करना कहलाता है और यह कार्य आतंक कहलाता है। जब यह आतंक भयानक रूप से सब ओर फ़ैल जाता है तो इसे ‘आतंकवाद’ कहते हैं। आज इसने संपूर्ण विश्व को अपनी चपेट में ले रखा है। इसका प्रमुख कारण यह है कि विश्व का कोई भी राष्ट्र बहुत गंभीरता साथ इसे ख़त्म करने का प्रयास नही कर रहा है, खास तौर से वे बलशाली देश जो महाशक्ति कहे जाते हैं। बल्कि परोक्ष रूप से कहीं न कहीं वे इसके सूत्रधार भी रहे हैं। यही कारण है कि इस अत्यंत भयानक बुराई का अंत होने के बजाय इसका विस्तार ही हो रहा है। फ्रांस की राजधानी पेरिस में 13 नवंबर की रात आठ आतंकी हमले हुए। आतंकियों ने पहले लोगों को बंधक बनाया और फिर रेस्टोरेंट, फुटबॉल स्टेडियम जैसे सार्वजनिक स्थलों पर हमला किया। इन हमलों में 128 लोगों की मौत हो गई। बताया जा रहा है कि पेरिस में हमला करने आए आतंकी आईएसआईएस के स्लिपर सेल से थे। इस बीच, 14 तारीख को आईएसआईएस का एक वीडियो सामने आया, जिसमें आतंकी कह रहे हैं कि वे फ्रांस को चैन से नहीं जीने देंगे। बीते कुछ वर्षों से पेरिस के साथ ही दूर-दराज़ के कई इलाके इस्लामी चरमपंथियों के लिए मददगार हुए हैं। जानकारों का मानना है कि फ्रांस से 500 से ज़्यादा मुस्लिम लोग जिहादियों के साथ लड़ने के लिए सीरिया और इराक़ गए हैं। किसी भी पश्चिमी देश से लड़ने जाने वालों की यह सबसे बड़ी संख्या है। आखिर क्यों ? तथ्य यह भी है कि इन इलाकों में बेरोज़गारी और शहरी सुख-सुविधाओं के अभाव के कारण मुस्लिम युवक ‘जिहाद’ की ओर आकर्षित हुए हैं। पश्चिमी देशों में बहुत साफ़ तौर पर नस्लवादी सोच अभी भी कई स्तरों पर मौजूद है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस हर जगह नस्ली हिंसा देखने-सुनने को मिलती रहती है। आतंकवाद का सम्बन्ध किसी निश्चित स्थान, राज्य या राष्ट्र से हो सकता है। आतंकवाद के अनेक रूप हो सकते हैं, यथा- धार्मिक आतंकवाद, राजनीतिक आतंकवाद, राज्य का आतंकवाद या किसी विशेष समूह अथवा व्यक्ति का आतंकवाद आदि इत्यादि। एक देश या स्थान पर जो आतंकवादी घटनाएं घटती हैं, उनका प्रभाव समूचे विश्व पर पड़ता है। गत वर्ष पेशावर में 132 स्कूली बच्चों और 9 शिक्षकों के जघन्य नरसंहार के बाद पेरिस में ‘चार्ली हेब्दो’ पत्रिका के 12 पत्रकारों की हत्या की विश्व को हिला देने वाली घटना हुई थी। 2002 में मॉस्को के एक थिएटर पर चेचन विद्रोहियों ने एक लाइव शो के दौरान हमला किया था। हमले से निपटने की रूस की कार्रवाई के बाद 130 बंधकों और 40 हमलावरों की मौत हो गई थी। ग्यारह सितम्बर 2001 को अमेरिका में हुई ट्विन टावर की आतंकी घटना रही हो, तेरह दिसंबर 2001 को भारत की संसद पर हमला हो, 12 अक्टूबर 2002, में बाली (इंडोनेशिया) में बम विस्फोट, 16 मई 2003 में मोरक्को में, 27 फरवरी 2004 में फिलीपिंस में, 11 मार्च 2004 को मैड्रिड में बम विस्फोट, 26 नवम्बर 2008 को ताज होटल मुंबई में हमला, 13 जुलाई 2011 को मुंबई में पुनः आतंकी विस्फोट, और 7 सितम्बर 2011 को दिल्ली में भीषण विस्फोट हो, ये सब उदाहरण इस बात का संकेत देते हैं कि आतंकवाद की पहुँच कभी भी, कहीं भी, कैसे भी हो सकती है। खासकर 11 सितम्बर 2001 की घटना ने विकसित देशों के इस भ्रम को तोड़ दिया है कि वे आतंकवाद से सुरक्षित हैं। यह संपूर्ण विश्व के लिए एक चुनौती है। जिहादियों ने हिंसा का एक मुकम्मल खाका तैयार कर लिया है जो कि नफरत, जुल्म व सितम पर आधारित है और जिस में यह क्षमता है कि वह बड़ी संख्या में सीधे-साधे मुसलमानों को अपनी तरफ आकर्षित कर ले और रहम और मेहरबानी जैसी इंसानी खूबियों को उन के अंदर खत्म कर दे। जब भी किसी जमात को किसी आत्मघाती हमलावर की जरुरत पड़ती है तो मुस्लिम समाज में अत्यंत क्रूर और आत्मघाती हमलावरों की एक फौज उन्हें मिल जाती है। जाहिर है कि यह इस्लाम पसंद दुर्विचार की वह शक्ति है जो इस्लाम की उन शिक्षाओं और असूल से पूरी तरह अलग है जो सदियों से मुसलमान अपनाते चले आ रहे हैं। सूफी शिक्षा और शांतिपूर्ण मुसलमानों को हमेशा इस बात पर गर्व रहा है कि वह एक वैश्विक और सहिष्णु धर्म के अनुयायी हैं जो पिछले सभी धर्मों को अधिक मानवीय एवं विकसित करने के लिए आया है। मुसलमानों का हमेशा यह ईमान रहा है कि उनका दीन तमाम इंसानियात के लिए एक उपहार है। इसलिए, जब पिछले सदी के पहले सऊदी वहाबी सरकार के गठन के साथ इस्लाम की एक अलगाववादी, असहिष्णु व्यख्या शुरु हुई तो मुसलमानों ने उसे रद्द कर दिया। लेकिन तेल की बेहिसाब दौलत और शीत युध्द की वजह से इस दुर्विचार को फैलने में मदद मिली। असल में धार्मिक शिक्षाओं की व्याख्या, तत्कालीन सामाजिक संदर्भो में की जानी चाहिए। हर धर्म, शांति व सद्भाव को महत्व देता है परंतु साथ ही हर धर्म में हिंसा को औचित्यपूर्ण ठहराने वाले तत्व भी हैं। बहुत कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है कि किसी धार्मिक सिद्धांत की व्याख्या कौन व किस उद्देश्य से कर रहा है। एक ही उद्धरण की कई व्याख्याएं की जा सकती हैं। इब्राहीम को अपना पूर्वज मानने वाले धर्मों में हिंसा की यत्र-तत्र चर्चा मात्र से ये धर्म, हिंसा व आतंक के प्रणेता नहीं बन जाते। हिंसा और आतंक की जन्मदाता, सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ होती हैं, धार्मिक सिद्धांत नहीं। भारतीय उपमहाद्वीप में आतंक शब्द का जब भी जिक्र होता है स्वाभाविक रूप से ध्यान पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अलकायदा और तालिबान द्वारा फैलाये जा रहे आतंकवाद पर जाता है। आज विश्व के सभी देश आतंकवाद को समाप्त करने के लिए प्रयासरत हैं और इसके लिए एक दूसरे को सहयोग भी कर रहे हैं लेकिन इस सहयोग का उपयोग कितने सही तरीके से हो रहा है यह देखना आवश्यक है। अफगानिस्तान और ईराक में भीषण नरसंहार थमने का नाम नहीं ले रहा है। इसके लिए कौन जिम्मेवार है ? अफ्रीका के कई देशों में आतंक का घना साया बना हुआ है। बोकोहरम नामक आतंकी संगठन नरसंहार में लगा हुआ है। भारत में उत्तर पूर्व में बोडो उग्रवादी सीधे साधे आदिवासियों की हत्याएं कर रहे हैं। नक्सली हिंसा हो रही है।क्या यह महज एक संप्रदाय विशेष का आतंकवाद है ? ये घटनाऐं यह इंगित करती है कि कारण कुछ और हैं। जिन पर पूरे विश्व को विचार करना होगा। इस समस्या पर एक पूर्वाग्रह मुक्त दृष्टि से सोचना आवश्यक है। विश्व में कुछ इस्लामिक आतंकवादी संगठनों की सक्रियता के कारण आज आतंकवाद को इस्लामी संप्रदाय से जोड़कर देखा जाने लगा है। इसके कुछ ऐतिहासिक, आर्थिक और राजनीतिक कारण हैं जिन पर ध्यान देना आवश्यक है। कह सकते हैं कि आतंकवादियों की कोई जाति धर्म या संप्रदाय नहीं होता। उनका तो बस एक ही धर्म होता है- आतंक फैलाना। इस दृष्टि से किसी भी धर्म या संप्रदाय को आतंकवाद से जोड़ना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से उस धर्म या संप्रदाय द्वारा आतंकवाद को और बढ़ावा दिया जाने लगता है। लेकिन यह भी एक सत्य है कि आतंकवाद का प्रस्फुटन पश्चिम एशिया और अफ्रीका के मुस्लिम बहुल देशों में ही अधिक दिखाई देता है। और यही क्षेत्र तेल का भी उत्पादन क्षेत्र है। इन दोनों बातों का परस्पर बहुत नजदीकी संबंध है। इस बात का पूरा लाभ पश्चिम के बड़े व्यापारी देश उठा रहे हैं। इस बात पर भी ध्यान देना आवश्यक है। आश्चर्य इस बात का है कि 9/11 की घटना के बाद भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने इसके अमल में कतई कोई बाधा नहीं डाली बल्कि इसने आतंकवाद को बढाने के लिए नए रास्ते खोल दिए। अफगानिस्तान और फिलिस्तीन इस बात के दो अलग अलग उदहारण हैं। अफगानिस्तान में सोवियत संघ को नीचा दिखने के लिए अमेरिका तालिबान की मदद करता है। ओसामा को आतंकवादी होने की ट्रेनिंग देता है। वहीँ फिलिस्तीन के खिलाफ इसराइल को लगातार सहयोग करना स्वतः एक आतंक पैदा करने वाला कदम है। ईराक को मिटाकर वहां आतंवादियों को कदम रखने का मौका अमेरिका ने ही मुहैय्या कराया है। आज बगदाद पर आतंकवादी संगठन ‘आइसिस’ काबिज हो गया है। पहले ईराक और ईरान में भीषण युद्ध चला और फिर एक लंबे अरसे से शिया और सुन्नी समुदायों के बीच झगड़ा चलता रहा। आज इराक में शिया सरकार है। सुन्नी, ईराक के चरमपंथी बन गए हैं। सद्दाम हुसैन सुन्नी थे। अमेरिका ने सद्दाम को खत्म कर दिया। अब सद्दाम के समर्थक भी चरमपंथी आईएस के साथ जुड़ गए हैं। शिया समुदाय के लोग उनके निशाने पर है। लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं है। जाहिर है आज इस्लाम से आतंकवाद को अलग करना अत्यंत आवश्यक है। तभी आतंकवाद का सफाया करने में इस्लाम का सहयोग मिल सकेगा। लेकिन अमेरिका जैसे राष्ट्र दोहरी नीतियां अपनाने के कायल हैं। तेल की राजनीति, हथियारों को युद्ध में प्रदर्शित कर उन्हें बेचने का अमानवीय कारोबार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अकूत धन कमाने का लालच आतंकवाद को जन्म देता है। इराक में सर्वाधिक गुणवत्ता वाले तेल के कुएं हैं। आज अधिसंख्य तेल के कुओं पर अमेरिकी कंपनियों का प्रत्यक्ष या परोक्ष कब्ज़ा है। अमेरिकी कंपनियां आईएस के कब्जे वाले सीरियाई तेल के कुओं से बिचौलियों के मार्फ़त सस्ती दरों पर तेल आयात कर रही हैं। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमत जब 55 डॉलर प्रति बैरल है तो ये कंपनियां इसे 35 डॉलर प्रति बैरल के हिसाब से खरीद रही हैं। सीरिया में भी तेल के अकूत भंडार हैं। इसीलिए अमेरिका सहित अनेक देशों की उसमें गहरी रूचि है। रूस भी सीरिया से तेल आयात करता है। अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को अरबों डॉलर की सहायता राशि आतंकवाद से लड़ने के लिए दी जाती रही है किन्तु पाकिस्तान ने हमेशा इसका उपयोग आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए किया है। यह बात पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल अशफाक कयानी ने भी स्वीकार की है कि अमेरिका द्वारा पकिस्तान को दी जा रही सहायता राशि का उपयोग पाकिस्तान भारत के विरुद्ध कार्य कर रहे आतंकी संगठनों की सहायता में खर्च करता रहा है। आश्चर्य की बात यह है कि अमेरिका इससे परिचित है लेकिन वह पाकिस्तान को ऐसा करने से नहीं रोकता। एक रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तान को अलकायदा के खिलाफ अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाने के लिए अमेरिका की तरफ से 5 अरब अमेरिकी डॉलर दिए गए थे मगर इस धन राशि का उपयोग उसने भारत के विरुद्ध हथियार खरीदने में किया। लेकिन अमेरिका को कोई गिला नहीं। यूँ भी अमेरिका बिना जांचे परखे पाकिस्तान को अरबों डॉलर की सहायता राशि देता आया है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2001 से 2011 तक अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को लगभग 17 अरब अमेरिकी डॉलर की राशि सहायतार्थ दी जा चुकी है। मगर एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन की मौजूदगी को देखने के बाद पाकिस्तान को 80 करोड़ डॉलर की सहायता स्थगित कर दी गयी थी। दोनों देश इस सम्बन्ध में एक दूसरे का सहयोग करने का आश्वासन देते हैं, मगर हकीकत में वे कुछ नहीं करते। यह बेहद चिंताजनक बात है। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह कहना एकदम सही है कि संयुक्त राष्ट्र पहले आतंकवाद की परिभाषा स्पष्ट करे। बल्कि अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य पश्चिमी देश भी आतंकवाद की उनकी परिभाषा स्पष्ट करें। इस तरह आतंकवाद का सफाया संभव नहीं है। ब्रिक्स और जी 20 सम्मलेन में इस तरह की चिंताएं उठी हैं। आतंकवाद से निपटने के लिए विश्व स्तर पर कुछ कदम उठाना फायदेमंद हो सकता है जैसे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में आतंकवाद की रोकथाम के लिए सकारात्मक निर्णय लिए जाएँ तथा आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले देशों का अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से पूर्णतः बहिष्कार किया जाये। उनके अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वित्तीय सहायता भी पूर्णतः बंद कर दी जानी चाहिए। दूसरा सकारात्मक कदम यह भी हो सकता है कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रत्येक राष्ट्र यह स्वीकार करे कि वह आतंकवाद से लड़ने के लिए प्रतिबद्ध है तथा अपने निजी स्वार्थ की पूर्ति के लिए न तो आतंकवाद को बढ़ावा देगा और न ही अपने देश को आतंकवाद का आश्रय स्थल बनने देगा। अगर कोई देश जानबूझकर ऐसा करता है तो उसके खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय मोर्चाबंदी की जानी चाहिए। यहाँ यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि मात्र ओसामा बिन लादेन, तालिबान, मुंबई हमले के आरोपी अजमल आमिर कसाब या कुछ आतंकवादी संगठनों का सफाया ‘आतंकवाद का सफाया’ नहीं है। अतः इस समस्या के समाधान का प्रयास भी वैश्विक स्तर पर किया जाना आवश्यक है। यह संपूर्ण विश्व में अलग अलग हिस्सों में अलग अलग रूप में सक्रिय है। इसके सफाए के लिए विश्व के विभिन्न हिस्सों में मौजूद आतंकवाद के विविध स्वरूपों को पहचानना आवश्यक है

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