बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन की करारी शिकस्त और महा गठबंधन की जीत और कांग्रेस की वापसी से बहुत ज्यादा खुश होने की बात नहीं है लेकिन इन चुनाव परिणामों से एक ही संकेत मिलता है की देश सबसे बड़ा है,गाय या दूसरे मुद्दे बाद में है.देश का मतलब सर्व धर्म समभाव,धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता होता है और इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती.243 सदस्यों की विधानसभा में एनडीए गठबंधन को 59 ,महागठबंधन को 178 तथा अन्य को 6 सीटें मिली हैं.
दिल्ली विधानसभा के चुनाव के बाद बिहार विधानसभा चुनावों पर पूरे देश की नजर थी.इन चुनावों को लेकर प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने बहुत तैयारी से मोर्चा सम्हाला था .बिहार को जीत कर बीजेपी ये साबित करना चाहती थी की दुनिया में प्रधानमंत्री जी ने भारत का जो डंका बजाया था उसका लाभ बीजेपी को मिलेगा ,लेकिन ऐसा हो नहीं सका.एक तरफ भ्र्ष्टाचार,जंगलराज और जातिवाद के लिए बदनाम लालू प्रसाद यादव और नीतीशकुमार तथा बुरी तरह से ख़ारिज की जा चुकी कांग्रेस का गठबंधन था और दूसरी तरफ केंद्र की सत्ता में बैठी बीजेपी के नेतृत्व वाला ऐसा गठबंधन था जिसके पास बिहार के जयचंद और दलबदलुओं के साथ है केंद्रीय खजाने से निकले आकर्षक पैकेज थे बावजूद इसके बीजेपी बिहार नहीं जीत सकी,उलटे पहले से कमजोर हो गयी.
पिछले कुछ महीनों से देश में असहिष्णुता को लेकर जो वातावरण बना था उसकी अनदेखी कर बीजेपी लगातार आगे बढ़ रही थी और बीजेपी के एकमेव स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी तथा अमितशाह ताल ठोंक कर कह रहे थे की वे विकास के नाम पर चुनाव लड़ रहे हैं और असहिष्णुता के बनावटी मुद्दों से नहीं डरते .बीजेपी ने असहिष्णुता के विरोध में देश के सम्माननीय लेखकों,कलाकारों,इतिहासकारों के अभियान को कागजी बगावत बताते हुए उसका मखौल उड़ाया था सो अलग.इन सभी कारकों को बिहार के चुनाव नतीजों से अब बाबस्ता किया रहा है.
इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती की बिहार की राजनीति को समझना आसान नहीं है.बिहार में राजनीति की चाहे जैसी बुनावट हो किन्तु उसमें राष्ट्रीय चेतना का स्वर सबसे ज्यादा मुखर है.बिहार ने महात्मा गांधी के आंदोलनों को जगह और पहचान दी और आजादी के बाद जब देश पर आपातकाल लादा गया तो सम्पूर्णक्रांति का बिगुल भी बिहार से ही फूँका गया.हिंदुत्व को उग्र बनाने के लिए निकले गए भाजपा के अश्वमेध के घोड़े को भी बिहार ने ही रोका और सहिष्णुता तथा असहिष्णुता के बीच विवाद के बीच स्पष्ट सन्देश भी बिहार से ही आया है.
तय बात है की बीजेपी बिहार विधानसभा चुनावों को अपने देश साल के शासन के खलाफ जनमत संग्रह नहीं मानेगी,लेकिन हकीकत में ये जनमत संग्रह ही है. इन चुनाव नतीजों से बीजेपी की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की सेहत पर कोई फौरी असर पड़ने वाला नहीं है किन्तु ये नतीजे बीजेपी सरकार को ये सोचने के लिए विवश जरूरकरेंगे की पार्टी जिस रास्ते पर देश को ले जाने का प्रयास कर रही है,वो रास्ता सही है या नहीं?बीजेपी की सरकार अकेले नहीं चल रही है,उसे आरएसएस भी चला रहा है. जिन मुद्दों पर विवाद होता है उन पर बीजेपी से ज्यादा आरएसएस बोलता है और जहां आरएसएस को चुप किया जाता है उन पर बीजेपी बोलती है .जनता की समझ में ये साफ़-साफ़ आ गया है.
देश में असहिष्णुता के मुद्दे से पहले दाल और प्याज के मुद्दे थे,ये मुद्दे पुराने पड़े तो छोटा राजन हिन्दू शेर के रूप में मुद्दा बनते-बनते रह गया .संसद से बाहर जनता की जेब काटने के नए कदम भी मुद्दे हैं लेकिन ये रेखांकित ही नहीं हो पा रहे थे .अब सभी मुद्दों पर नए सिरे से बात होगी.अब केवल घरेलू मुद्दे ही नहीं विदेशनीति जैसे मुद्दे भी विमर्श के लिए सामने आएंगे. कालाधन,भूमि सुधर विधेयक और ऐसे ही तमाम विषय रेखांकित करने में बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे काफी मदद करेंगे. बिहार से पहले जब बीजेपी दिल्ली विधानसभा में हारी थी तब बीजेपी की और से अनेक बहाने बनाये गए थे,लेकिन बिहार में बीजेपी की हार के बाद किसी के पास कोई बहाना नहीं है,इसलिए सभी बीजेपी नेताओं को सर झुका कर बिहार के जनादेश को स्वीकार करना पड़ रहा है. अब केंद्र ने यदि बिहार के लिए चुनावों के समय घोषित अरबों करोड़ रूपये का विशेष पैकेज देने में आनाकानी की तो केंद्र को लेने के देने पड़ जायेंगे .
बिहार में पराजय के पीछे प्रधानमंत्री जी और बीजेपी अध्यक्ष का निजी व्यवहार भी कोई कारक हो सकता है इसकी समीक्षा करने की जरूरत नहीं है,इसमें कोई दो राय नहीं है की प्रधानमंत्री जी ने पिछले दिनों में जिस तरह देश के कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों की समाधियों को अछूत समझने की गलती की है उसे इस देश के जनमानस ने स्वीकार नहीं किया है.इस देश इतना असहिष्णु भी नहीं है की दिवंगत आत्माओं से भी बैर भंजाये.यहां उदारता ही राजनीति,समाज और देश का प्रमुख जीवन मूल्य रही है. नए जीवन मूल्य और नया इतिहास लिखने का दुःसाहस कभी-कभी मंहगा भी पड़ता है ये भी शायद बिहार विधानसभा चुनाव परिणामों का निहित सन्देश है..मुमकिन है की ये आकलन सही न हो,लेकिन इसे खारिज करने के लिए भी कुछ तर्कों की जरूरत होगी.समय सबके साथ न्याय करेगा,इस विश्वास के साथ बिहार और देश को आगे बढ़ना होगा.जिस अहमन्यता कीवजह से मोदी जी को ये दिन देखना पड़े उससे बचना महागठबंधन के लिए भी जरूरी है.कांग्रेस के लिए भी ये चुनाव एक अवसर देते हैं की यदि कांग्रेस का नेतृत्व समझदारी और गंभीरता से काम ले तो उसे उसका खोया हुआ स्थान आज नहीं तो कल,कल नहीं तो परसों वापस मिल सकता है.हाँ गाय किसी के काम की चीज नहीं है.उसका इस्तेमाल किसी को अपने निहित स्वार्थ के लिए नहीं करना चाहिए.
राकेश अचल
आश्चर्य !इतने वेवाक विवेचन पर कोई टिप्पणी अब तक नहीं आई.मुझे तो लग रहा है कि बहुत दिनों बाद किसी ने इतना स्वच्छ दर्पण एन.डी.ए और उनके स्टार प्रचारकों को दिखाया है.
लेखक के विचार से मैं बहुत हद तक सहमत हूँ. बात सही है — देश पहले बाद में सब कुछ. जब तक भारत को सर्वप्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य कहा जाता रहेगा, तब तक हिंदुत्व का एजेंडा गलत ही करार दिया जाएगा. यदि बाजपा देस को हिंदू राष्ट्त्र करार देती है तो बात अलग है लेकिन इसके लिए ,संविधान में सुधार की आवश्यकता होगी.
अयंगर.