श्रेय और प्रेय का मार्ग

  • -अशोक प्रवृद्ध”-

पृथ्वी के उत्तर और दक्षिण में दो ध्रुव उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव हैं । दोनों ध्रुवों को ही पृथ्वी की धुरी कहा जाता हैं और दोनों में ही असाधारण शक्ति केन्द्रीभूत मानी जाती हैं । इसी भान्ति चेतन तत्त्व के भी दो ध्रुव हैं जिन्हें माया और ब्रह्म कहा जाता है । जीव इन्हीं दोनों के मध्य कभी इधर कभी उधर कभी उधर खिंचता रहता हैं। ये दोनों दिशाएँ एक दूसरे के प्रतिकूल पड़ती हैं । इसलिए परस्पर विरोध दिखाई पड़ता है । खुदा और शैतान एक दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी चित्रित किये गये हैं। देवता और असुर भी एक दूसरे से टकराते हैं। देवासुर की कथाओं पुराणों के पन्नेपन्ने पर भरी पड़ी हैं। इसी प्रकार एक दूसरे के विपरीत मानी जाने वाली संसार में दो ध्रुव अर्थात मार्ग (राहें ) हैं एक श्रेय का मार्ग , दूसरा प्रेय का मार्ग एक परमात्मा (खुदा) का मार्ग है और दूसरा सांसारिकता (दुनियादारी) का मार्ग । परमात्मा (खुदा) की राह फीकी , मगर बहुत ही अच्छे नतीजे (अंत) वाली है । दुनिया की राह निहायत दिलचस्प और सुख देने वाली है । परन्तु इसका परिणाम (नतीजा) अच्छा नहीं होता ।

मायावी असुरता का पक्ष प्रेयमार्ग कहलाता हैं । इस पर चलने वाले मनुष्य का दृष्टिकोण यह होता हैं कि जिसके मन और इन्द्रियों को जो कुछ भी प्रिय लगे उसे ही अपनाये, भले ही उसका परिणाम पीछे कितना ही अहितकर क्यों न होता हो । आज अधिकांश व्यक्ति इसी मार्ग पर चलते दिखाई पड़ते हैं । इन्द्रियों को जो प्रिय हैं उसी को असीम मात्रा में पाने और भोगने के लिए हर व्यक्ति उतावला हो रहा हैं । जीभ की खुजली अर्थात स्वाद भान्ति – भान्ति के स्वादिष्ट पदार्थ खाने से मिटती हैं तो हमारा प्रयत्न यही रहता हैं कि एक से एक बढ़िया , एकसेएक चटपटे , मीठे खट्टे , स्वादिष्ट पकवान, मिष्ठान, चाट पकौड़ी खाने को मिलें । फिर जब यह पदार्थ सामने आते हैं तो हमें यह होश नहीं रहता कि हम क्या खा रहे हैं और कितना खा रहे हैं ? पेट के लिए इनकी कुछ उपयोगिता या आवश्यकता भी है कि नहीं ? चटोरा मनुष्य केवल स्वाद देखता है और वैद्य , चिकित्सक और हकीम दुकान के शब्दों में जीभ से अपनी कब्र खोदता हैं । यह सर्वविदित है कि अधिकांश रोग पेट की खराबी से होते हैं । यदि पेट ठीक रहे तो शरीर में निरोगता सुरक्षित रहेगी, पर यह देखा जाता है कि लोगों की जीभ काबू में नहीं होती । गरीब अमीर सभी अपने भोजन को मिर्च मसाले और गुड़ शक्कर के आधार पर स्वादिष्ट बना लेते हैं और फिर उसे पेट की आवश्यकता से अधिक मात्रा में खा उदरस्थ कर जाते हैं। परिमाण स्पष्ट हैं , पाचन क्रिया खराब होती है , अशुद्ध रक्त बनने लगता है और मद अथवा तीव्र रोगों का अंगार शरीर में जमता है । अन्ततः मौत बुढ़ापे के दिन तेजी से निकट आ जाते हैं। प्रेय मार्ग का यही परिणाम है । इन्द्रियों को जो चीज प्रिय लगती है मन उसके पीछे तेजी से उतावली से बेतहाशा भागता हैं , आगा पीछा सूझना नहीं क्षणिक प्रसन्नता के लिए स्थायी स्वार्थों की भयंकर क्षति कर बैठता हैं ।

प्रेय का मार्ग सबके लिए खुला है । इस दुनिया में आकर तो दुनियादारी छोड़ी नहीं जा सकती । इसलिए इस पर चलते हुए भी श्रेय के मार्ग पर चला जा सकता है । प्रेय के मार्ग में जो कुछ आये , उसे स्वीकार करते हुए उसमें लिप्त न हो जाना चाहिए । यथा (मसलन) बिजली के पंखें हैं , कूलर हैं , गद्देदार पलंग हैं , मखमली कालीन हैं और दूसरे सुख सुविधा अर्थात ऐशोइशरत के सामान हैं। इनका भोग करते हुए खुद इनका भुक्त नहीं बन जाना चाहिए । यह नहीं कि इन वस्तुओं (चीजों) का गुलाम बन जाना चाहिए । अपने अन्दर सदैव अर्थात हमेशा ऐसी कबिलियात बनाये रखना चाहिए कि इनको छोड़ते समय इनके जाने का दुःख न हो । ये वस्तुएं जिंदगी का मकसद न बन जाएँ ।

जीवन का दूसरा ध्रुव अर्थात है श्रेय मार्ग । श्रेय मार्ग में हमें आज की अपेक्षा कल को महत्व देना और भविष्य के सुख के लिए आज वर्तमान में संयम को अपनाना पड़ता है । कृषक वर्ग अर्थात किसान फसलोपज प्राप्ति हेतु अपने घर में रखा हुआ अन्न खेत में बिखेर बो देता है । यही बीज आगे चल कर कई गुना होकर किसान को प्राप्त तो होता हैं परन्तु आज तो घर में रखी हुई बोरी खाली हो गई । विद्यार्थी दिन रात पढ़ता हैं ठीक प्रकार से पूरी नींद सो भी नहीं पाता , खेलने और मस्ती करने की उम्र में मौज छोड़कर किताब के नीरस पन्नों में सिर खपाता रहता है । घर से शिक्षण शुल्क अर्थात फीस लेकर जाता है । किताबकापियों में पैसे खर्च होते हैं , अध्यापकों की फटकार सुननी पड़ती हैं । इतना सब झंझट उठाने वाला विद्यार्थी जानता है कि अंततः इसका परिणाम अच्छा , सुखकर ही होगा । जब शिक्षा पूर्ण करके अपनी बढ़ी हुई योग्यता का समुचित लाभ उठाऊंगा तब आज की परेशानी की पूरी तरह भर पाई हो जाएगी । श्रेय मार्ग ऐसा ही हैं इसमें वर्तमान को कष्टमय बनाकर कल के लिए स्वर्णिम भविष्य की आशा के अंकुर उगाने पड़ते हैं । वैज्ञानिक अन्वेषणकर्ता सम्पूर्ण जिंदगी प्रकृति के किन्हीं सूक्ष्म रहस्यों का पता लगाने के लिए एकाग्र भाव से एकान्त शोध कार्य में लगाते हैं तब जाकर कई प्रकार का आविष्कार होता हैं तो उसका लाभ सारे संसार को मिलता है । नेता, लोकसेवक बलिदान , त्यागी, तपस्वी अपने आपको विश्व मानव के हित में होम कर देते हैं तब उस त्याग का लाभ सारे जगत को मिलता हैं । बीज अपनी हस्ती को गलाकर विशाल वृक्ष के रूप में परिणत होता है । नींव में पड़े हुए पत्थरों की छाती पर विशाल भवनों का निर्माण हुआ है । माता अपने रक्त और माँस का दान कर गर्भ में बालक का शरीर बनाती है और उसे अपनी छाती का रस दूध पिलाकर पालतीपोसती हैं तब कहीं पुत्रवती कहलाने का श्रेय उसे प्राप्त है । यही श्रेय मार्ग है ।

जिन्दगी का उद्देश्य (मकसद) श्रेय मार्ग है , जो सांसारिकता (दुनियादारी) से दूसरा है । दुनियादारी पर चलता हुआ उसमे लीन होकर श्रेय मार्ग को भूल न जाने में ही इस जिन्दगी की कामयाबी है ।

और वह राह है जिन्दगी को यज्ञ रूप बना देने की । यग्य के अर्थ हैं लोक कल्याण का कार्य अर्थात यज्ञमय कार्य । अर्थात खल्के खुदा को सुख और आराम पहुंचाना । यानी लोक कल्याण । धन दौलत को अपने निर्वाह के लिए अप्ने पर प्रयोग कर बाकी सब दूसरों के सुख और आराम के लिए व्यय (खर्च) कर देना यज्ञमय जीवन कहलाता है । रूपया ,मकान , वस्त्र , सामान शारीरिक (जिस्मानी) और मानसिक (दिमागी) ताकत सब अपनी सम्पति (जायदाद) हैं । इसका अपने सुख और आराम के लिए इस्तेमाल कर बकाया (शेष) दूसरों के सुख और आराम के लिए इस्तेमाल करना श्रेय का मार्ग है । अपनी आवश्यकता (जरूरियात) इतनी बनानी चाहिए अर्थात् इतनी अल्प कर देनी चाहिए कि जितनी से हम दूसरों के लिए अधिकाधिक अर्थात ज्यादा से ज्यादा निकाल सकें ।

मनुष्य अपनी कर्मों अर्थात अमालों का स्वयं मालिक है। वह राह जानता हुआ भी उस पथ पर चल नहीं सकता । कभी चलना नहीं चाहता । यह अपनी अपनी स्वभाव (तबीयत) और हिम्मत पर निर्भर करता अर्थात दारोमदार रखता है। जैसे एक व्यक्ति के पास पांच सौ रूपये हैं ।वह अपने दिन भर का खर्च पचास रूपये में चला सकता है और पांच सौ रूपये में भी उसका खर्चा पूरा नहीं हो सकता है । वह कितना दूसरों के लिए बचाता है यह उसकी काबिलियत और हिम्मत पर है ।

इसका कारण यह है कि मनुष्य शरीर में दस इन्द्रियाँ हैं । इन इन्द्रियों के द्वारा हम इस संसार का भोग करते हैं । इनके अतिरिक्त एक मन है । मन इन इन्द्रियों का संचालन करता है । मन के अतिरिक्त एक आत्मा है । वह इस शरीर का स्वामी है ।

इसे एक रथ की भांति समझा जा सकता है । रथ शरीर है। उसमें घोड़े इन्द्रियाँ हैं और मन सारथी है ।आत्मा पूर्ण रथ और सारथी का स्वामी है ।

आत्मा इस रथ में बैठा हुआ एक मार्ग पर जा रहा है । यह रथ उस मार्ग पर चलता जाये ,जिस पर उसे जाना है , इसके लिए यह आवश्यक है की घोड़े सारथी के वश में रहें और सारथी मालिक के काबू में रहे ।

मालिक को श्रेय मार्ग पर चलना है । इन्द्रियाँ अगर वश में न रहेंगी तो प्रेय मार्ग पर चल पड़ेंगी ।इसलिए घोड़े चलते हुए भी सारथि और मन की आज्ञा के अधीन ही चलें ।

इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि घोड़े अपनी मनमानी उतनी ही कर सकें , जितने से उनका जीवन और स्वास्थ्य चलता रहे । इन्द्रियों को अपने विषयों का उतना ही भोग करने दो , जितने में इन्द्रियां अर्थात शरीर का स्वस्थ जीवन रह सके।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress