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सेकुलरिज्म का श्रेय हिंदुओं को: विभूति नारायण राय

2013-10-06 21.30.34[4]“हिंदुस्तान का बँटवारा मुस्लिम कौम के लिए एक अलग मुल्क की मांग के कारण हुआ। मुसलमानों ने अपने लिए पाकिस्तान चुन लिया। उस समय यह बहुत संभव था कि हिंदू भारतवर्ष में हिंदूराष्ट्र की स्थापना करने की मांग करते और जिस प्रकार पाकिस्तान से हिंदुओं को भगा दिया गया उसी प्रकार यहाँ से मुसलमानों को बाहर कर देते। लेकिन ऐसा हुआ नहीं; क्योंकि हिंदू जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा भारत को धर्म पर आधारित राष्ट्र नहीं बनाना चाहता था। हमने एक धर्मनिरपेक्ष संविधान बनाया और आज देश में सेक्युलर शक्तियाँ इतनी मजबूत हो चुकी हैं कि अब दक्षिणपंथी पार्टियाँ चाहें तो भी भारत एक हिंदूराष्ट्र नहीं बन सकता। यह देश ज्यों ही हिंदूराष्ट्र बनेगा, टूट जाएगा। भारत जो एक बना हुआ है तो इसका कारण यह सेक्युलरिज्म ही है; और इस सेक्युलरिज़्म के लिए हिंदुओं को श्रेय देना पड़ेगा।”

लखनऊ के जयशंकर प्रसाद सभागार (राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह) में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने जब यह बात कही तो दर्शक दीर्घा में तालियाँ बजाने वालों की संख्या बहुत ज्यादा नहीं थी। इसका कारण भी स्पष्ट था। दरअसल यह मौका था हफ़ीज नोमानी के जेल-संस्मरण पर आधारित पुस्तक “रूदाद-ए-क़फ़स” के हिंदी संस्करण के लोकार्पण का और आमंत्रित अतिथियों में हफ़ीज साहब के पारिवारिक सदस्यों, व्यावसायिक मित्रों, पुराने सहपाठियों, मीडिया से जुड़े मित्रों, उर्दू के विद्वानों, और शेरो-शायरी की दुनिया के जानकार मुस्लिम बिरादरी के लोगों की बहुतायत थी। मंच पर हफ़ीज नोमानी साहब के सम्मान में जो लोग बैठाये गये थे उनमें श्री राय के अलावा लखनऊ विश्वविद्यालय के डॉ.रमेश दीक्षित, पूर्व कुलपति और “साझी दुनिया” की सचिव प्रो.रूपरेखा वर्मा, पूर्व मंत्री अम्मार रिज़वी, जस्टिस हैदर अब्बास रज़ा, नाट्यकर्मी एम.के.रैना, पत्रकार साहिब रुदौलवी और कम्यूनिस्ट पार्टी के अतुल कुमार “अन्जान” भी शामिल थे। दर्शक दीर्घा में मशहूर शायर मुनव्वर राना भी थोड़ी देर के लिए दिखे लेकिन वे कहीं पीछे चले गये।

Hafeez Nomani-Rudad-e-Kafas[9]पुस्तक की प्रस्तावना में बताया गया है कि- “रूदाद-ए-कफ़स एक ऐसी शख्सियत का इकबालिया बयान है जिसने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से “मुस्लिम” लफ्ज़ हटाने और उसकी अकलियती स्वरूप को खत्म करने की नीयत से मरक़जी हुकूमत द्वारा 20 मई 1965 को जारी किये गये अध्यादेश की पुरज़ोर मुखालिफत करने के लिए अपने साप्ताहिक अख़बार “निदाये मिल्लत” का मुस्लिम यूनिवर्सिटी नंबर निकालकर और हुकूमत की खुफिया एजेन्सियों की दबिश के बावजूद उसे देश के कोनो-कोनों तक पहुँचाकर भारतीय राज्य के अक़लियत विरोधी चेहरे को बेनकाब करने और तत्कालीन मरकज़ी हुकूमत को खुलेआम चुनौती तेने का जोख़िम उठाया था और अपने उस दुस्साहसी कदम के लिए भरपूर कीमत भी अदा की थी, पूरे नौ महीने जेल की सलाखों के भीतर गु्ज़ारकर।”

इस कार्यक्रम के मंच संचालक डॉ.मुसुदुल हसन उस्मानी थे जो प्रत्येक वक्ता के पहले और बाद में खाँटी उर्दू में अच्छी-खासी तक़रीर करते हुए कार्यक्रम को काफी लंबा खींच ले गये थे और उतनी देर माइक पर रहे जितना सभी दूसरे बोलने वालों को जोड़कर भी पूरा न होता। अंत में जब अध्यक्षता कर रहे कुलपति जी की बारी आयी तबतक सभी श्रोता प्रायः ऊब चुके थे। उनके पूर्व के वक्ताओं ने बहुत विस्तार से उन परिस्थितियों का वर्णन किया था जिसमें श्री नोमानी जेल गये थे और जेल के भीतर उन्हें जो कुछ देखना पड़ा। बहुत सी दूसरी रोचक बातें भी सुनने को मिलीं।

2013-10-06 19.55.44अतुल कुमार “अंजान” ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लगातार संघर्ष करने के लिए हफ़ीज़ नोमानी की सराहना की। प्रो.रूपरेखा वर्मा ने पुस्तक में व्यक्त किये गये इस मत का समर्थन किया कि आज भी राज्य सरकार की मशीनरी में हिंदू सांप्रदायिकता का रंग चढ़ा हुआ है जो मुस्लिमों के प्रति भेदभाव का व्यवहार करती है। डॉ रमेश दीक्षित ने तो इस पुस्तक की प्रस्तावना में लिखी अपनी यह सरासर ग़लत बात भी मंच से दुहरा दी कि 20 मई 1965 में केंद्र सरकार ने जो अध्यादेश लाया था उसका असल उद्देश्य अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से “मुस्लिम” शब्द हटाने का था और बी.एच.यू. का नाम तो केवल बहाने के लिए जोड़ा गया था।

एक तुझको देखने के लिए बज़्म में मुझे।

औरों की सिम्त मसलहतन देखना पड़ा॥ 

उन्होंने कहा – “हकीकत यह है कि मुस्लिम समुदाय का अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के साथ जितना गहरा जज़्बाती और अपनेपन का रिश्ता रहा है उतना गहरा रिश्ता हिंदू लफ़्ज जुड़ा रहने के बावजूद बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के साथ बहुसंख्यक हिंदू समाज का कभी नहीं रहा।” दीक्षित जी यह भी बता गये कि उस यूनिवर्सिटी का नाम अंग्रेजी में तो बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी है लेकिन उसका हिंदी नाम काशी विश्वविद्यालय है काशी हिंदू विश्वविद्यालय नहीं। उनकी इस जबरिया दलील को विभूति जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में खारिज कर दिया।

सेक्यूलरिज़्म के सवाल पर जो खरी बात कुलपति जी ने कही उसका कारण यह था कि हफ़ीज़ मोमानी की जिस किताब का लोकार्पण उन्होंने अभी-अभी किया था उसमें लिखी कुछ बातें उनके गले नहीं उतर रही थीं। समय की कमी के बावजूद उन्होंने एक उद्धरण पृष्ठ-19 से सुनाया- “लेकिन यह भी सच है मुल्क की तकसीम होने और पाकिस्तान बनने के बाद आम तौर पर हिंदू लीडरों और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का व्यवहार मुसलमानों के प्रति नफ़रत और दूसरे दर्ज़े के शहरी जैसा होता जा रहा था। वास्तविकता यह है कि 90 प्रतिशत हिंदू लीडरों और कार्यकर्ताओं को यह बात सहन नहीं होती थी कि पाकिस्तान बनने के बाद भी चार करोड़ मुसलमानों की मौजूदगी अपनी आंखों से वे यहाँ देख रहे थे।…”

विभूति नारायण राय ने इस धारणा पर चोट करते हुए उपस्थित लोगों में हलचल मचा दी। कानाफूसी होने लगी जब उन्होंने जोर देकर कहा कि हिंदुस्तान में यदि सेक्युलरिज्म मजबूत हुआ है तो वह इन 90 प्रतिशत हिंदुओं की वजह से ही हुआ है। उन्होंने जोड़ा कि इस जमाने में सबके के लिए सेक्यूलरिज ही एक मात्र रास्ता है- न सिर्फ़ भारत के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए। यह पाकिस्तान में भी उतना ही जरूरी है और सऊदी अरब में भी। यह नहीं चलेगा कि आप हिंदुस्तान में तो सेक्यूलरिज़्म की मांग करें और जहाँ बहुसंख्यक हैं वहाँ निज़ाम-ए-मुस्तफा की बात करें।

मेरे बगल में बैठे एक नौजवान मौलवी के चेहरे पर असंतोष की लकीरें गहराती जा रही थीं। अंत में उसने अपने बगलगीर से फुसफुसाकर पूछा- इन्हें सदारत के लिए किसने बुलाया था?

पुस्तक : रूदाद-ए-क़फ़स (नौ महीने कारागार में)

लेखक : हफ़ीज़ नोमानी

प्रकाशक : दोस्त पब्लिकेशन, भोपाल हाउस, लालबाग-लखनऊ

संपर्क : 9415111300

 

(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की रपट)