पितृसत्ता से भागते तुलसीदास के आलोचक

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

हिन्दी की अधिकांश आलोचना मर्दवादी है।इसमें पितृसत्ता के प्रति आलोचनात्मक विवेक का अभाव है।आधुनिक आलोचना में धर्मनिरपेक्ष आलोचना का परिप्रेक्ष्य पितृसत्ता से टकराए, उसकी मीमांसा किए बगैर संभव नहीं है। मसलन्, अभी तक तुलसी पर समीक्षा ने लोकवादी जनप्रिय नजरिए से विचार किया है और पितृसत्ता को स्पर्श तक नहीं किया है।

आधुनिक काल या पहले के किसी भी काल की आलोचना, संस्कृति, इतिहास आदि का कोई भी विमर्श पितृसत्ता की उपेक्षा करके विकसित नहीं हुआ है। पितृसत्ता सभी विचारधाराओं की धुरी है। समाज में किस विचारधारा का वर्चस्व होगा यह इस बात से तय होता रहा है कि आखिरकार पितृसत्ता के साथ किस तरह का संबंध है।

प्राचीनकाल से लेकर आधुनिककाल तक का समूचा विमर्श पितृसत्ता के साथ अपना रवैया तय करके ही विकास कर पाया है। मजेदार बात यह है कि हिन्दी में पितृसत्ता वर्चस्व बनाए हुए है, हमने कभी इसके बारे में बहस तक नहीं की, आलोचना नहीं लिखी, गोया ! हमारे समाज में पितृसत्ता का अस्तित्व ही न हो! सवाल किया जाना चाहिए क्या पितृसत्ता को चुनौती दिए बिना धर्मनिरपेक्ष समाज और आलोचना का विकास संभव है, क्या पितृसत्ता की आलोचना से रहित आलोचना को धर्मनिरपेक्ष आलोचना कहा जा सकता है? जी नहीं, धर्मनिरपेक्ष आलोचना का पितृसत्तात्मक विचारधारा की आलोचना के बिना विकास ही संभव नहीं है।

धर्मनिरपेक्ष आलोचना के विकास के लिए पितृसत्तात्मक विचारधारा के परिप्रेक्ष्य में ”रामचरित मानस” पर विचार किया जाना चाहिए। तुलसीदास की इस ऐतिहासिक लोक रचना में पितृसत्ता के अन्तर्विरोधों का बारीकी से मूल्यांकन किया गया है। वे सामंती पितृसत्ता की बजाय व्यापारिक पूंजीवाद युगीन पितृसत्ता की परिकल्पना पेश करते हैं। यह सच है कि तुलसीदास पितृसत्ता से अपने को मुक्त नहीं कर पाते, किंतु पितृसत्ता के जिस रूप को वे अपने पात्रों के इर्द-गिर्द निर्मित करते हैं, वह व्यापारिक पूंजीवादी पितृसत्ता है, यही आधुनिक पितृसत्ता का आधार है, यही वजह है कि आधुनिक पितृसत्ता के अनेक लक्षणों से इसका सहज साम्य नजर आता है।

मसलन् विवाह संस्था के प्रति व्यक्त नजरिए को गौर से देखें तो पाएंगे कि तुलसीदास ने विवाह संस्था में बहु-पत्नीप्रथा और एक-पत्नीप्रथा के बीच के अंतर्विरोधों को केन्द्र में रखा है, बहुपत्नी प्रथा के प्रतीक हैं राजा दशरथ और एक पत्नी प्रथा के प्रतीक हैं राजा राम और उनके भाई, रावण एवं उसके परिवार है। तुलसी ने बार-बार इस अन्तर्विरोध की परतें खोलते हुए एक पत्नी प्रथा को तुलनात्मक रूप में ज्यादा बेहतर माना है,सामंती समाज व्यवस्था में एक पत्नी प्रथा का एजेण्डा पहलीबार केन्द्र में लाने का श्रेय तुलसी को है जिसे कालांतर में रैनेसां में प्रमुख सामाजिक सुधार का एजेण्डा बनाया गया।

भक्ति-आंदोलन में रामभक्ति और कृष्णभक्ति की दो धाराओं में विचारधारात्मक भिन्नाता का सबसे प्रमुख आधार यदि पितृसत्ता को बनाया जाए तो ज्यादा सटीक विमर्श तैयार किया जा सकता है। कृष्णकाव्य धारा वस्तुत: पुराने किस्म के पितृसत्ताबोध को व्यक्त करती है जिसमें कृष्ण की एकाधिक रानियां हैं,तकरीबन वैसे ही जैसे दशरथ की हैं।

इसी तरह सामंती समाज में शादी पहले होती थी और प्रेम बाद में।किंतु तुलसीदास ने राम और सीता में प्रेम पहले कराया और शादी बाद में। उन दोनों का विवाह प्रेम की परिणति है। तुलसीदास न्याय-अन्याय के सवाल पर तटस्थ रूख नहीं अपनाते, राजा-प्रजा के बीच के संघर्ष में प्रजा के साथ हैं। न्याय के साथ हैं। तुलसी को सामंती व्यवस्था ने अपार कष्ट दिए थे यही वजह है कि उनकी रचनाओं में रह-रहकर सामंती व्यवस्था के प्रति घृणा व्यक्त हुई है। सामंती समाज की सबसे बड़ी कमजोरी है निष्क्रियता। तुलसी का साहित्य निष्क्रियता का साहित्य नहीं है।

पितृसत्ता के नजरिए से देखें तो तुलसी पुराने किस्म की पितृसत्ता की बजाय नए किस्म की पितृसत्ता का एजेण्डा बनाते हैं, इसमें एक पत्नी प्रथा पर जोर है। स्त्रियों की अभिव्यक्ति पर जोर है, उल्लेखनीय है कि स्वयं तुलसीदास की पत्नी भी बड़ी लेखिका थी, कवियित्री थी।

जबकि निर्गुणपंथी कबीर का नजरिया पुराने किस्म की पितृसत्तात्मकता को व्यक्त करता है, इसमें स्त्रियों के प्रति किसी भी किस्म के दायित्वबोध का चित्रण नहीं मिलता। सृजन के क्षेत्र में पितृसत्ता के पुराने रुपों को चुनौती स्त्रियों के कार्य-व्यापार और अभिव्यक्ति के रूपों के चित्रण से मिलती है।

रामचरित मानस में स्त्री-पात्र जितना अपने को व्यक्त करते हैं,अपने अधिकार, आत्म-सम्मान और भावनाओं को लेकर जितना सजग हैं, उतना अन्यत्र नहीं दिखते। यह अचानक नहीं है कि रामभक्ति और रामकथा आज भी औरतों को अपील करती है। दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि तुलसीदास ने स्त्री को सामाजिक निर्मिति के रुप में चित्रित किया है, वे स्त्री को बायोलॉजिकल रूप में पेश नहीं करते। स्त्री की लिंगीय अस्मिता की बजाय सामाजिक अस्मिता को महत्वपूर्ण मानते हैं।

पुराने किस्म का पितृसत्तात्मक नजरिया स्त्री के कामुकभाव पर मुग्ध था,संस्कृत -साहित्य की परंपरा में श्रृंगार-रस का वर्चस्व था, यहां तक कि श्रृंगार-रस के गहरे प्रभाव में भक्ति आंदोलन के कवि भी थे। स्त्री के श्रृंगार-रस में चित्रित रूप से भिन्न स्त्री का रूपायन तुलसी के मानस की सबसे बड़ी उपलब्धि है।

तुलसी के यहां स्त्री सामाजिक पहचान के साथ दाखिल होती है ,न कि श्रृंगारी पहचान के साथ।पितृसत्ता की विचारधारा वैराग्य और वासना इन दो के ऊपर ज्यादा जोर देती है,भक्ति के निर्गुण संतों में वैराग्य भाव कूट-कूटकर भरा पड़ा है,इसका प्रच्छन्न और प्रत्यक्ष रूप में हिन्दी की आलोचना में खूब महिमामंडन हुआ है।

पितृसत्ता के नए पैराडाइम में तुलसीदास ”रामचरित मानस” के जरिए वैराग्य और वासना इन दो तत्वों को किसी भी रूप में महिमामंडित नहीं करते। पहलीबार वे दशरथ से राम का विछोह कराकर एकल परिवार और उसकी चुनौतियों को चित्रित करते हैं। पुराने किस्म की पितृसत्ता में स्त्री के प्रति न्याय और समानता का दृष्टिकोण नहीं है। व्यापारिक पूंजीवाद के दौर में यह दृष्टिकोण अपनी अंतिम सांसें ले रहा था।

तुलसीदास न्याय की नजर में समानता के पक्षधर और विरोधियों का चित्रण करते समय हाशिए अथवा अधिकारहीनों के हित में न्यायभावना का चित्रण करते हुए जिस तरह धोबी की गुहार पर सीता के बारे में राम से न्याय कराते हैं ,उसे प्रतीकात्मक रूप में विखंडित करके पढ़ा जाना चाहिए।

इसी तरह रावण चाहता तो सीता के साथ जबर्दस्ती कर सकता था,शादी भी कर सकता था, किंतु राम से लेकर रावण तक सबका स्त्रियों के प्रति एक ही भाव है कि अंतत: स्त्री की इच्छा का सम्मान करो।

स्त्री की इच्छा को प्रमुख एजेण्डा तुलसीदास ने बनाया,जबकि निर्गुणपंथियों के यहां स्त्री की इच्छा का कोई मूल्य ही नहीं है। इसी तरह राजा दशरथ का कैकेयी की इच्छा का सम्मान करना और उसे वर प्रदान करना वस्तुत: स्त्री इच्छा को तरजीह देने की कोशिश है।

पुराने किस्म की पितृसत्ता को तब ज्यादा वैचारिक परेशानी होती है जब स्त्री की इच्छा व्यक्त होने लगे। स्त्री को भोग की वस्तु,अधिकारहीन अवस्था से मुक्ति दिलाने का यह मौन क्रांतिकारी प्रयास है। स्त्री की इच्छाओं को केन्द्र में लाकर,स्त्री की पीड़ा को केन्द्र में लाकर बड़ा कार्य किया है। कमजोरी यह है कि युद्ध में मच रही तबाही और उसके कारण स्त्री जाति को किस तरह की मानसिक,सामाजिक यातनाओं से गुजरना पड़ता है,स्त्रियां युध्द से किस तरह पीड़ित हैं और युद्धोत्तर दौर में उनकी क्या अवस्था होती है, इसके व्यापक ब्यौरे और विवरण तुलसीदास के रामचरित मानस में एकसिरे से गायब हैं, इन पर लेखक चुप है, वह चुप क्यों है? यह पहलू एकदम नए किस्म के विमर्श को जन्म दे सकता है, स्त्रियां युद्ध में किस पीड़ा से गुजरती हैं, हमारे लेखक और आलोचना की उस पर नजर ही नहीं पड़ी।

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  1. ”सामंती समाज व्यवस्था में एक पत्नी प्रथा का एजेण्डा पहलीबार केन्द्र में लाने का श्रेय तुलसी को है”…………बहुत सही विवेचन किया गया है. अधजल गगरी छलकत जाय जैसे तुलसी के किसी एक पंक्ति को पढ़ निष्कर्ष निकालने वाले लोगों को यह अद्भुत आलेख पढ़ना चाहिए. वास्तव में इसमें तुलसी का सम्यक मूल्यांकन किया गया है. हां एक बात ज़रूर है. भले ही तुलसी ने राम -सीता का प्रेम पहले और विवाह बाद में कराया हो. लेकिन वह प्रेम बहुत से एकत्रित श्रेष्ठ जनों में से एक ‘सर्वश्रेष्ठ’ का चयन था. आज की तरह अपने जीवन, मर्यादा, सामाजिक रीति-नीति, मूल-गोत्र-जाति आदि सबको उपेक्षित करते हुए भीड़ में से किसी एक को उठा लेने वाला आत्मघाती प्रेम नहीं था वह. उसके अलावे एक सन्दर्भ पर गौर करेंगे सर….भले ही मानस में जैसा कि आपने लिखा कि ”स्त्रियां युद्ध में किस पीड़ा से गुजरती हैं, हमारे लेखक और आलोचना की उस पर नजर ही नहीं पड़ी।” लेकिन रावण-मंदोदरी संवाद में तो काफी चर्चा की गयी है जिसमे युद्ध के वि-भीषणता का चर्चा कर मंदोदरी बार-बार अपने पति से इससे विरत होने का आग्रह करती है? धन्यवाद .

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