राजनीति

झूठ पर झूठ गढ़ रहे हैं चतुर्वेदीजी

अवाम बनाम वामपंथ की पत्रकारिता

– पंकज झा

एक सामान्य से सवाल पर गौर कीजिये. रावण से लेकर ओसामा बिन लादेन तक के व्यक्तित्व में क्या फर्क है? सभी काफी संपन्न, अति ज्ञानी, अपने विचारों के प्रति निष्ठावान, समर्पित. किसी के भी इन गुणों पर आप शायद ही कोई सवाल उठा सकें. लेकिन आखिर क्या कारण है इन तमाम गुणों के होते भी सभ्य समाज में उन सबको हिकारत की नज़र से, समाज पर एक बोझ की तरह ही देखा जाता है. क्या कारण है कि मानव समाज इन तमाम चरित्रों के मौत तक का उत्सव मनाते हैं? मेरी समझ से उसका सामान्य कारण यह है कि ज्ञान होते हुए भी उसके अहंकार से ग्रस्त होना, तमाम विपरीत विचारों के प्रति अव्वल दर्जे का असहिष्णु होना और मानव मात्र को अपने आगे कीड़े-मकोडों से बेहतर नहीं समझना. यही सब ऐसे अमानवीय अवगुण हैं जिसने इन्हें सर्वगुण संपन्न होते हुए भी दुर्गति तक पहुंचाया.

बात अगर पत्रकारिता या बौद्धिकता का करें तो यहां भी आपको ऐसे समूह मिलेंगे जिनकी विद्वता, निष्ठा या समर्पण किसी में भी उन्हें आप उन्नीस नहीं पायेंगे. लेकिन अफ़सोस यही कि उनकी सारी प्रतिभा और ताकत का उपयोग महज़ इतना है कि आखिर किस तरह देश-दुनिया को रहने के लिए एक बदतर जगह बना दिया जाय.

भारत के सन्दर्भ में भी आप यहां के बौद्धिक वर्ग को दो श्रेणी में वर्गीकृत कर सकते हैं. एक वो जिनके लिए ‘अवाम’ सब कुछ है और दुसरे वो जो ‘वाम’ की रक्षा के निमित्त अपनी भारत मां तक को सूली पर चढ़ा सकते हैं. तो वामपंथी कोई भी काम करें, ध्येय महज़ इतना होगा कि अवाम को कमज़ोर किया जाय. और यह कोई संयोग नहीं है. यह उनकी वैचारिक मजबूरी है. इसलिए कि उनकी विचारधारा कभी ‘राष्ट्र’ नाम के किसी इकाई के अस्तित्व में भरोसा नहीं करते. न किसी तरह के लोकतंत्र में और न ही संसदीय प्रणाली में. अगर वक्त की नजाकत देख कर कुछ वामपंथी समूहों ने इस प्रणाली को मजबूरन स्वीकार भी किया है तो महज़ इसलिए कि उनके पास दूसरा कोई चारा नहीं था.

ओसामावादी और साम्यवादी दोनों में यह समानता है कि वह मूर्खों के बनाए अपने ऐसे स्वर्ग में रहना चाहते हैं जहां विविधता के लिए कोई जगह नहीं है. एक ने दुनिया को दारुल इस्लाम और दारुल हरब में बांट रखा है तो दुसरे के लिए मानव की बस दो पहचान एक बुर्जुआ और दूसरा सर्वहारा. जिस तरह इस्लाम के नाम पर गंदगी फैलाने वालों के लिये दुनिया को दारुल इस्लाम बनाने, सारे काफिरों यानी गैर मुसलामानों को मोमीन बनाने हेतु क्रूरतम हिंसा समेत हर हथकंडे जायज हैं, उसी तरह ‘वाम’ के लिए हर कथित पूजीवादी समूहों का सफाया कर दुनिया को गरीबों की बस्ती बनाने का युटोपिया. और अपने इस दिवा स्वप्न को पूरा करने में सबसे बड़ा उपकरण दोनों के लिए हिंसा और केवल हिंसा. दोनों के लिए किसी भी तरह के विमर्श की केवल तभी तक अर्थ है जब तक वे कमज़ोर हों. ताकतवर होते ही बस दोनों का एक मात्र नारा ‘मानो या मरो.’

ऊपरी तौर पर अलग-अलग दिखने वाले ये दोनों समूह (जिनमें से एक लिए ‘मज़हब’ जान से भी बढ़ कर तो दूसरे के लिए धर्म अफीम होने के बावजूद) अपने इन्ही समानता के कारण आपको गाहे-ब-गाहे गलबहिया करते नज़र आयेंगे. अगर भरोसा नहीं हो तो गिलानी और अरुंधती दोनों को एक मंच पर भौकते देख लीजिए.

दोनों के एकीकरण का कारण यह कि उन दोनों के घोषित-अघोषित लक्ष्यों में जो सबसे बड़ा रुकावट है वह है ‘’राष्ट्र.’’ वह राष्ट्र जिसे हम भारत के नाम से जानते हैं. वह राष्ट्र जिसने कश्मीर से कन्याकुमारी तक को एक सूत्र में बाँध कर रखा है. वह राष्ट्र जिसके एकीकरण के निमित्त कभी सुदूर दक्षिण के केरल के ‘कालडी’ गांव से चलकर कोई तेजस्वी युवक देश के दूसरे छोड़ मिथिला तक की यात्रा कर उत्तर-दक्षिण-पुरब-पश्चिम में चार पीठों का निर्माण कर इस सांस्कृतिक इकाई को एक सूत्र में पिरोया. उस राष्ट्र को जिसके अग्रदूत भगवान राम ने सुदूर उत्तर मिथिला से अपनी यात्रा शुरू कर दक्षिण में लंका तक को एक भावनात्मक स्वरूप दिया. वह राष्ट्र जिसे श्री कृष्ण ने पूर्व में मथुरा से शुरू हो पश्चिम में द्वारिका तक जा कर ‘भारत’ के सारथी बनने में अपना योगदान दिया. और वह राष्ट्र जिसे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने भावनात्मकता पर आधारित एक भौतिक इकाई’’ कहा है.

तो रंग-रूप, रीति-रिवाज़, भेष-भूषा-भाषा, भोजन-भजन, आदि विभिन्न विविधताओं को एक सूत्र में पिरोने वाले सूत्र इस देश की धर्म-संस्कृति ही है. इसे नुकसान पहुचा कर ही वे दोनों समूह अपने-अपने मंसूबे में सफल हो सकते हैं. जब कोई व्यक्ति या विचार इस एकीकरण को मज़बूत करने का प्रयास करता है तो ऐसे विचारों के वाहक लोगों को अपनी दूकान बंद होती नज़र आती है.

ऐसे ही एक विद्वान सज्जन हैं जगदीश्वर चतुर्वेदी जी. उनकी विद्वता, अपने विचारों के प्रति निष्ठा आदि वैसी ही है जैसा ऊपर चरित्रों में वर्णित किया गया है. ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम’ में भरोसा करने वाले अपने जैसे लोग कई बार उनको पढ़ कर सोचने लगते हैं कि काश हम भी लक्ष्मण बन उनके पास जा कर अंतिम सांस गिनते रावण रूपी वामपंथ की कुछ अच्छी बातें सीख पाते. या कुमारिल भट्ट की तरह भले ही बाद में धान की भुसियों में खुद को जला लेना पड़े लेकिन हिंदू विरोधी तत्वों से लड़ने के लिए पहले उन्ही के पास जा कर शिक्षा ले पाते. भले अर्जुन नहीं लकिन एकलव्य ही बन अंगूठे की कीमत पर भी कौरव समूह द्रोण से भी धनुर्विद्या सीख पाते. लेकिन अफसोस यह कि इतने गुणों के बावजूद भी चतुर्वेदी जी अवाम के विरुद्ध अपनी सारी प्रतिभा झोंक देने वाले वामपंथियों से रत्ती भर भी अलग नहीं हो सके. रावण की तरह ही एक पंडित कुल में जन्म लेने के बाद भी उन्हें हर उस चीज़ से ऐतराज़ है जो देश को, हिंदुत्व को, यहां की संस्कृति को मज़बूत करता हो. ऐसे हर व्यक्ति, विचार या फैसला इनके लिए अमान्य जो भारत को ‘भारत’ बनाता हो. अपने इतने गुणों के बावजूद भी जैसा कि टिप्पणीकारों ने उनके लेखों पर लिखा है बहुधा कुतर्क और बकवास पर भी वे उतर आते हैं. कुतर्कों का सहारा इसलिए कि आखिर जब आप पूरी तरह दुर्भावना पर ही उतर आयेंगे तो लाख विद्वता के बावजूद इतने सही तर्क कहाँ से लायेंगे? तो बस अपने हिन्दी प्राध्यापक होने का फायदा उठाकर, अपनी कल्पनाशीलता को उपयोग कर झूठ पर झूठ गढ़े जाइये.

अभी हाल तक देश का साम्प्रदायिक सद्भाव कायम रखने वाला अयोध्या का फैसला इनके दुःख का कारण था तो अब इनका निशाना हैं बाबा रामदेव. कारण बस वही कि देश में ऐसा कोई न पैदा हो जो राष्ट्रवाद को मज़बूत करता हो. एकबारगी इन्हें बाबा रामदेव में अवगुण ही अवगुण दिखने लगे. बड़ी मुश्किल से मिहनत कर इन्होंने ‘रहस्योद्घाटन’ किया कि बाबा की कमाई चार सौ करोड तक पहुंच चुकी है. लेकिन वे जान-बूझकर इन तथ्यों को नज़रंदाज़ कर गए कि वह पैसा जबरन किसी को शीतल पेय पिला कर प्राप्त नहीं किया गया है. बल्कि उन कंपनियों द्वारा पिलाये गए ज़हर को रोक कर देश का स्वास्थ्य और बहुमूल्य विदेशी मुद्रा को बाहर जाने से रोक कर प्राप्त किया गया है. हज़ारों करोड की दवा कंपनियों के विरुद्ध अभियान चला कर प्राप्त किया गया है.

आज बाबा रामदेव ने बीजेपी जैसी पार्टी को मजबूर कर दिया कि वह अपने लोक लुभावन मुद्दों को छोड़ स्वीस बैंक में रखे गए देश की गाढ़ी लाखों करोड की कमाई को वापस लाने को मुद्दा बनाए. ख़बरों के अनुसार सरकार को इसमें आंशिक सफलता भी मिली है. सैद्धांतिक तौर पर स्विस सरकार ने पैसा वापस भेजने हेतु सहमति व्यक्त की है. आज उसी बाबा के कारण देश एक बार फ़िर अपनी संस्कृति की तरफ लौटने लगा है. भारत की सांस्कृतिक विरासत का पताका दुनिया में फ़िर लहरा रहा है. आस्था आदि चैनल पर देश के लाखों लोग मुफ्त में सुबह-सुबह उठ कर स्वास्थ्य और आध्यात्मिक खुराक विभिन्न ज्वलंत मुदों के साथ प्राप्त करते हैं.

आप सोचिये कि अगर चतुर्वेदी जी वास्तव में देश की आर्थिक स्थिति के प्रति चिंतित होते तो वृंदा करात जिस तरह रामदेव जी के पीछे पड़ मुंह की खाई थी उससे सबक लेकर अन्य मुद्दे पर अपना ध्यान आकृष्ट करते. ऐसे लोगों की नीयत आपको देखना हो तो सोचें….चार सौ करोड़ के लिए आंसू बहाने वाले पंडित जी को आपने कभी एक लाख करोड़ के कोमनवेल्थ के ‘खेल’ पर कभी सवाल उठाते देखा है? तकनीक का जम कर इस्तेमाल करने वाले इस विद्वान को आपने कभी साठ हज़ार करोड से अधिक के स्पेक्ट्रम घोटाले पर बात करते हुए कभी सुना? महंगाई बढ़ा कर किये जाने वाले अब तक के सबसे बड़े घोटाले के विरुद्ध, जमाखोरों बिचौलियों के विरुद्ध, हज़ारों किसानों के आत्महत्या के विरुद्ध कभी आवाज़ उठाते देखा? इसलिए आपने नहीं इन्हें इन मुद्दों पर नहीं पढ़ा क्योंकि इन सब चीज़ों से अंततः इन लोगों का मकसद ही पूरा होता है. इन चीज़ों से देश कमज़ोर होता है. और यही इन समूहों का ध्येय है.

आ. जगदीश्वर जी, जिस तरह लंका की लड़ाई रोकने के निमित्त शांति दूत बन भगवान राम गए थे. मात्र पांच गांव मांगने भगवान कृष्ण खुद कौरवों के पास गए थे. आपके गुणानुवाद के साथ यह लेख भी उसी तरह आपका आह्वान करता है कि आप भी देश के विरुद्ध लड़ाई को छोड़ अपना कुछ आर्थिक नुकसान भी उठाकर अपनी प्रतिभा का राष्ट्र कार्य हितार्थ उपयोग कीजिये. आप दुनिया को ही अपनी मां माने इसमें किसको आपत्ति होगा. हमलोग भी विश्व को अपना परिवार ही मानते हैं. लेकिन इसके लिए ये थोड़े ज़रूरी है कि अपने मां को गाली दी जाय? जो खुद की मां के प्रति श्रद्धा रखेगा वही भारत मां की बात करने का भी अधिकारी होगा. और जो भारत मां के प्रति उपेक्षा का भाव रखेगा वह दुनिया की बात करने का क्या ख़ाक अधिकारी होगा. आपने चाणक्य का सूत्र ज़रूर पढ़ा होगा ‘त्यजदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत.’

अगर आप हमें समानता की बात सिखाना चाहते हैं तो हम तो उसी इशावास्योपनिषद की संतानें हैं जो कहता है कि ‘इशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच्य जगतां जगत’ यानी इश्वर इस जगत के कण-कण में विद्यमान हैं. अब इससे बड़ा साम्यवाद और क्या हो सकता है? हम और आप उस कणाद की संतान है जिसने कण-कण को एक दूसरे से सम्बंधित बताया जिस पर आइन्स्टाइन ने बाद में सापेक्षता का सिद्धांत दिया. तो क्या हमें इस सामान्य बात को सीखने के लिए भी ‘थ्येनआनमन’ में जाकर खून बहाना होगा? चीन के मानवाधिकारवादी की तरह प्रतारित होकर ही हम समानता का पाठ पढ़ सकते हैं? क्या आपकी समानता का सिद्धांत कभी दलाई लामा जैसे संत और उनके नेतृत्व में लाखों शांतिप्रिय तिब्बतियों का दर्द भी महसूस नहीं कर पाता?

हालांकि संभव भले ही नहीं हो लेकिन निवेदन यही है कि इस देश की पुनीत माटी ने, ब्रज की आवोहवा ने आपको जिस लायक बनाया है उसका क़र्ज़ उतारने, थोडा अपने स्वार्थ से पड़े जाकर खुद को राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल होकर अपना जन्म कृतार्थ करें. अन्यथा यह नश्वर शरीर तो एक दिन खत्म ही होना है. रावण जैसे लोगों का भी अवसान यही तो सन्देश देता है कि ‘चोला माटी के राम एकर का भरोसा….सादर.’