कोयल की तेरी बोली

—विनय कुमार विनायक
आज देखा ठूंठ पर बैठा
वृद्ध कोयल को बेतहाशा रोते
अपने बच्चों की नादानी पर
बच्चे जो कौवे के कोटर में पलकर बड़े होते
जो होश संभालते ही घर छोड़ देते!
कोयल जिसे घर नहीं होता
जो हर शाख, जर्रा-जर्रा को घर समझता!
जाने कैसे कोयल के बच्चे
लड़ पड़े घर के लिए!
समझाया भी था उसने
‘कोयल की संतानों/ खुद को पहचानो’
कुछ खामोश रहे/कुछ ने
कांव-कांव कर इंकार जताया!
पंचम सुर आलाप का पैतृक अधिकार
क्या भूल गया कोयल?
कौवा का सहवासी
क्या हो गया कोयल कौवा?
अब पिता खामोश भ्राताओं ने कहा
‘पिता को पहचानो’/‘कांव-कांव मेरा पिता’
‘पालक नहीं जन्मदाता’
‘कौन कहता? सबूत क्या पितृत्व का?
मैं पंचम सूर नहीं जानता
एक सिवा कांव-कांव का
दूजा कुछ नहीं मानता!’
‘कांव-कांव संसर्ग दोष, मानसिक गुलामी
जन्म से तुम कोयल हो!
पिता के अक्स में अक्स डालकर
मन ही मन पहचानो
क्या तुम कौआ हो?’
‘झांकना तोबा-तोबा,
कांव-कांव की संस्कृति में
सिर्फ कांव-कांव और सभी तोबा-तोबा!
घोंसला मेरा मैं कांव-कांव’
पितृव्य का सबूत दो अन्यथा कांव-कांव
भागो यहां नहीं तुम्हारा ठांव!’
कांव-कांव,कुहू-कुहू/कौन-कौन,कहो-कहो
तू-तू/मैं-मैं में गिर गया घोंसला!
अब क्या फैसला?
वृद्ध कोयल ने अफसोस किया
फिर संतोष किया/ समझा मामला टला
किंतु कौवा बिरादरी ने राजनीति किया
कोयल को कोयल कहां होने दिया!

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