सांस्कृतिक राष्ट्रवाद : भारत के भविष्य का आधार

indian_cultural_nationalismभारतीयता का अर्थ है भारत की समग्र परम्परा, भारत-वर्ष का सामाजिक, सांस्कृतिक इतिहास, भारत-वर्ष की पुरातन, अधुनातन पृष्ठभूमि, भारत-वर्ष की संवेदना, भारत वर्ष की कला, भारत-वर्ष का साहित्य। इन सबमें एक ही भाव है जो भारत-वर्ष के प्राचीन दर्शन व भारत के अध्‍यात्म को जीवन से जोड़ता है। मेरी दृष्टि में भारतीयता पूरे इतिहास का निचोड़ है, हमारे दर्शन का निचोड़ है, हमारे जीवन के आदर्शों का प्रतीक है। भारतीयता एक ऐसी चीज है जिसे पहचाना तो जा सकता है, महसूस भी किया जा सकता है किन्तु उसे शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता।

मैंने अपनी पुस्तक ‘भारत और हमारा समय’ में लिखा है कि भारतवर्ष एक सनातन चिंतन, सनातन विचार, सनातन दृष्टि, सनातन आचार और सनातन यात्रा-पथ भी है। मैं मानता हूं कि भारत मात्र एक भूखंड ही नहीं, केवल भौगोलिक इकाई ही नहीं, केवल एक राजनीतिक सत्ता ही नहीं बल्कि मनुष्य की मनुष्यता का अभिषेक है। भारतीयता का अर्थ है पुरातन से अद्यतन का समतामूलक अनुभव किन्तु वर्तमान परिदृश्य में लगता है कि भारतीयता की यह परिकल्पना धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। इसकी अनुभूति मुझे तब और भी गहरी हुई, जब मैं सात वर्ष तक ब्रिटेन का उच्चायुक्त रहने के बाद भारत लौटा। जब लौटा तो मैंने एक बार परिहास में कहा था कि ‘बाहर तो मैंने अप्रवासी भारतीय (नॉन रेजिडेन्ट इंडियन्स) कई देखे हैं, उनसे मिलन हुआ है और उसकी भारतीयता से मैं बहुत गहरे तक प्रभावित भी हुआ हूं, किन्तु यहां आकर एक बड़ी दु:खद और दयनीय त्रासदी मुझे दिखाई देती है कि भारत वर्ष में ही कई प्रवासी अभारतीय हैं। सच बात यह है कि आजादी से पहले भी इतनी विकृतियां नहीं थीं जितनी कि आज हैं। हमारी भाषा का, हमारे साहित्य का, हमारी राष्ट्रीयता का जो आत्म सम्मान था, जो प्रतीति थी, जो अस्मिता की अनुभूति थी उसे हम भूलते चले जा रहे हैं। यह एक बड़ी कष्टमय स्थिति है। आने वाली पीढ़ी किस सांस्कृतिक पौष्टिक आहार पर बन रही है? समझ नहीं आता। उसका सांस्कृतिक पौष्टिक बहुत कम भारतीय है। इसका कारण हमारी नीति में कमियां हैं। हमने अपनी शिक्षा नीति में बहुत सारी बातें जोड़ी हैं। हमने बच्चों पर काफी बोझा भी बढ़ा दिया है किन्तु उन सबमें भारतीयता की कमी है। संस्कृत भाषा को ही लें, मेरी संस्कृत में बहुत निष्ठा है और मान्यता है कि संस्कृत भाषा के बिना भारत की सम्पूर्ण अनुभूति जरा मुश्किल से होती है।

आज से लगभग डेढ़ दशक पहले जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, तब उन्होंने अपनी भाषा नीति प्रकाशित की तो मुझे बहुत कष्ट हुआ था कि इस नीति के चलते तो यहां से संस्कृत लुप्त हो जाएगी क्योंकि उस नीति में संस्कृत वैकल्पिक विषय भी नहीं रखा गया, जिसमें कि अंक दिए जा सकें। जब अंक नहीं दिये जाएंगे तो कोई व्यक्ति इसे पढ़ेगा भी नहीं और विषय के रूप में लेगा भी नहीं। तब मैंने राजीव गांधी से कहा था कि यह नीति देश के लिए सबसे बड़ी दुर्घटना है। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया और कहा था कि आपकी बात मेरी समझ में आती है किन्तु अब मैं क्या कर सकता हूं। तब मैंने उनसे कहा था कि अगर आप कुछ नहीं कर सकते तो मैं अदालत में जाऊंगा। मैं इस मामले को सर्वोच्च न्यायालय में ले गया क्योंकि उस समय संस्कृत के कई अध्‍यापकों को बर्खास्त किया जा रहा था। सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगनादेश भी दिया था और अब हमारे पक्ष में निर्णय भी हो गया है किन्तु यह प्रकरण मेरे जीवन की बहुत कष्टपूर्ण घटना रही हैं।

भारतीयता जिसके नाम पर वोट मांगे जाएं, जिसके नाम पर राज्य करे, जिसके नाम पर बड़ी-बड़ी बातें कही जाएं, वह अगर हमारे पूरे कार्य व्यवहार में कहीं न हो, उस लक्ष्य को हम भूल जाएं तो फिर क्या होगा? सच पूछें तो हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर रहे हैं, जिसे भारतीयता का पता ही नहीं है आर इसके लिए वह पीढ़ी दोषी नहीं है, दोषी हम हैं, क्योंकि हम उन्हें ऐसे ही संस्कार, ऐसी ही शिक्षा दे रहे हैं, जो नकल को प्रधाानता देती है। हम आधुनिकता के नाम पर दूसरे देशों और उनकी सभ्यता की नकल करने लगे हैं और अपनी जड़ों से, अपनी जमीन से, अपनी संस्कृति से अलग होने लगे हैं, जो समाज, जो देश अपनी जड़ों, अपनी जमीन और संस्कृति से अलग हो जाएगा, वह धीरे-धीरे क्षरित होने लगेगा। यही भय मेरे मन मस्तिष्क पर आतंक बनकर छाया रहता है। मुझे लगता है कि यह स्थिति लेने के लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं। इस तरह हम अपने आप को दुनिया का द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना रहे हैं। पहले तो यह अंग्रेजों की गुलामी के कारण हुआ किन्तु आज यह गुलामी हम अपने आप पर थोप रहे हैं। इस कारण हम भ्रमित हो गए हैं। हम भारतीयता को हिन्दुत्व को सम्प्रदायों में बांटकर धर्मनिरपेक्षता की बात करने लगे हैं। मेरे विचार में साम्प्रदायिकता बहुत अच्छी चीज है और बहुत बुरी चीज भी है। हमारे यहां सम्प्रदाय का अर्थ यह है कि अलग-अलग प्रकार हैं, अलग-अलग पंथ है, जिनको भारत स्वीकार करता है। अलग-अलग पंथों को स्वीकार करना या न करना ठीक है किन्तु राज्य किसी भी पंथ का नहीं है। इसी संदर्भ में यह कहना होगा कि हमने पंथनिरपेक्ष कहने की बजाय ‘धर्मनिरपेक्ष’ कहना शुरू कर दिया है और जो राज्य, जो समाज, धर्म से निरपेक्ष हो जाता है उसका तो कोई भविष्य ही नहीं है। धर्म का अर्थ है कर्तव्य, धर्म का अर्थ है सौहार्द्र। अब यदि हम अपने कर्तव्य से निरपेक्ष हो गए तो समाज का क्या होगा।

यदि किसी एक शब्द को देश निकाला दिया जाए तो मैं इस ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को देश निकाला देना चाहूंगा। मुझे तो इस शब्द के लिए लड़ना पड़ा है। मैंने श्रीमती गांधी से कहा भी था कि संविधान में धर्मनिरपेक्ष का अनुवाद ‘सेकुलर’ किया गया है, जो स्वीकार करने योग्य नहीं है। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया। अब हमारे संविधान का जो अधिकृत अनुवाद है उसमें ‘सेकुलर’ के लिए पंथनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग किया गया है।

हिन्दू होना सम्प्रदायवादी होना कतई नहीं है। मुसलमान होना संप्रदायवादी होना नहीं है। किसी भी मत-पंथ का होना संप्रदायवादी होना नहीं है किन्तु अगर हम उसमें कट्टर होकर अन्यों के प्रति विद्वेषी हो जाएं तो वह गलत है। भारत वर्ष की सभ्यता कट्टरपन नहीं सिखाती। हिन्दू धर्म की परम्परा का आधार सहिष्णुता है। कट्टर होना सम्प्रदायवाद हो सकता है किन्तु अगर हम अपनी अस्मिता को मानते हैं और अलग-अलग उन पंथों को जानते हैं, जो हमारे देश को बनाते है तो वह इन्द्रधनुषी छटा है। हमारा देश एक इन्द्रधनुष है, उस इन्द्रधनुष की संभावना इसीलिए हुई कि भारत वर्ष में सदैव सहिष्णुता का साम्राज्य रहा। भौगोलिक अखंडता हमारा नागरिक कर्तव्य है और वह हमारी संस्कृति और राजनीति से अलग नहीं है किन्तु उससे भी कहीं परे, उससे भी कहीं अधिक एक अपेक्षित है राष्ट्रीयता से ओतप्रोत एक दृष्टि! राष्ट्रीयता से ओतप्रोत दृष्टि का अर्थ है भारत के लाखों-करोड़ों लोगों में अंतर्निहित, अंतर्भूत सम्बंध, उनके प्रति प्रतिबद्वता, उनके प्रति सेवा की भावना-सम्पर्क, सहयोग और संस्कार ये चारों हमारी संस्कृति के मूल मंत्र हैं। इस मूल मंत्र को मानते हुए अगर हम राष्ट्रीय जीवन का निर्माण करें और राष्ट्र के प्रति भक्ति, राष्ट्र के प्रति निष्ठा, श्रद्वा को लेकर चलें, तो हमारे राष्ट्रीय जीवन में एक नया अध्‍याय निश्चित रूप से शुरू हो सकता है। मुझे आशा है कि यह होगा। लेकिन यह तभी होगा जब हम इसके लिये प्रयत्न करें।

आज कई तरह के खतरे हमारे ऊपर मंडरा रहे हैं। ये खतरे बौध्दिक भी हैं और सांस्कृतिक भी। सांस्कृतिक खतरा कोई भौगोलिक खतरे से कम नहीं होता। भाषा का लुप्त हो जाना कोई कम खतरा नहीं है। अपने पंथों अथवा संप्रदायों की जानकारी न होना भी एक खतरा है। अपनी मान्यताओं के लिये निष्ठा न होना और भी बड़ा खतरा है। ये सब खतरे भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। जिस देश को नष्ट करना हो, उसकी संस्कृति नष्ट कर दीजिये, उसकी भाषा नष्ट कर दीजिये, अपने आप वह समाज और जाति नष्ट हो जायेगी। हममें इतनी सामर्थ्य तो है कि हम इन खतरों का सामना कर सकें किन्तु इसके लिये इच्छाशक्ति होनी चाहिए, संकल्प होना चाहिए। स्वामी विवेकानन्द ने भी यही कहा था कि हमारे यहां सामर्थ्य की कमी नहीं है। संभावनाओं की हमारे यहां कमी नहीं है। कमी है संकल्प की, कमी है समर्पण की। ये सब भावनाएं जगाने के लिये हमें अभियान चलाना होगा। इसके लिये लोगों को तैयार करना होगा। हममें से बहुत सारे लोग ऐसे हैं, जो इस बात को जानते हैं और तरीके से इसे आगे बढ़ा भी रहे हैं। एक-एक दीप से हजारों-लाखों दीप जल जाते हैं और ऐसे दीप जलेंगे इसे कोई रोक नहीं सकता।

भारतवर्ष का भविष्य अभी बनना है और वह भविष्य सांस्कृतिक दृष्टि पर आधारित होगा, भारतीयता पर आधारित होगा। वह सच्चे अर्थों में भारत होगा। संस्कृत में भारत का अर्थ है वह जो ”प्रवाह” में रत है-प्रवाह के प्रति प्रतिबद्व है, वही भारत है। तो उस दृष्टि से भी हमको भारतवर्ष में अध्‍यात्म और विज्ञान को एक-दूसरे के साथ बांधना होगा, उसे समन्वित करना होगा। हम विज्ञान से अलग नहीं रह सकते। जीवन में जो शक्तियां हैं, उन्हें संकलित करना बहुत आवश्यक है किन्तु संभव नहीं हो रहा है। ऐसा नहीं है कि हममें प्रतिभा नहीं हैं अथवा सामर्थ्य नहीं है। व्यक्तिगत रूप से भारत वर्ष के लोग बहुत प्रतिभाशाली हैं और बहुत कुछ हासिल करते हैं किन्तु संयुक्त रूप से समुदाय और समूह की दृष्टि से अभी तक भारत के प्रति भक्ति और निष्ठा की भावना न होने के कारण हम कुछ हासिल नहीं कर पा रहे हैं, वहां नहीं पहुंच पा रहे हैं जहां पहुंचना चाहिए। इन्हें पाने के लिये हमें भारत को पाने का लक्ष्य अपने सामने रखना होगा। इस लक्ष्य को पाने के लिये रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं चाहे वामपंथ हो अथवा दक्षिणपंथ, चाहे मध्‍यपंथ हो, इन सबको अपना केन्द्र भारत ही बनाना होगा। मेरे विचार से तो सबसे पहले इनका भारतीयकरण होना जरूरी है। उनका भारतीयकरण न होने के कारण हमारी अस्मिताएं क्षीण हो रही हैं, हमारा संकल्प क्षीण हो रहा है, हमारी शक्तियां क्षीण हो रही हैं, हमारा आत्मविश्वास कम होता जा रहा है और जहां आत्मविश्वास खत्म हो जाता है, वहां भविष्य पर भी प्रश्नचिह्न लग जाता है। पंथ चाहे कोई भी हो, उनमें मतभेद हो सकते हैं, किन्तु राष्ट्र की दृष्टि से कहीं मतभेद नहीं होना चाहिए।

लेखक- डा. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी

(लेखक प्रसिद्ध चिंतक एवं प्रख्यात संविधानविद् थे)

3 COMMENTS

  1. े saanskritik rashtravad ki dhrishti me bharat ki prasangikta vishv ke patal per aaj spasht dikhai de rahi hai . jaroorat is bat ki hai ki ham ise sahi disha de.
    prastut lekh is sandarbh me ek nai disha ki or sanket kar raha hai

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