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जनलेवा बनता मिड-डे मील

-अरविंद जयतिलक-
mid day

यह विडंबना है कि जिस मिड डे मिल योजना का लक्ष्य स्कूली बच्चों को उचित पोषण देकर उनमें शिक्षा के प्रति आकर्षण पैदा करना है, वह अब उनकी सेहत और जिंदगी पर भारी पड़ रहा है। शायद ही कोई सप्ताह गुजरता हो जब मिड डे मील में कीड़े मिलने की खबर अखबारों की सुर्खियां न बनती हों। लेकिन आश्चर्य है कि इसके बावजूद भी मिड डे मिल की स्वच्छता और गुणवत्ता को लेकर सतर्कता नहीं बरती जा रही है। एक बार फिर बिहार में सीवान जिले के महाराजगंज अनुमंडल के हसपुरवा पंचायत स्थित विद्यालय में मिड डे मील खाने से 25 बच्चों के बीमार पड़ने की खबर आयी है। बताया जा रहा है कि भोजन में छिपकली मरी हुई थी। चंद रोज पहले भी बिहार राज्य के ही सीतामढ़ी जिले के एक सरकारी स्कूल में मिड डे मील खाने से 54 बच्चे बीमार पड़े। जिस बर्तन में भोजन बना उसमें अन्न के साथ सांप भी पक गया था और बच्चे खा लिए। शुकर है कि बच्चों को समय से अस्पताल पहुंचा दिया गया और उनकी जान बच गयी। पिछले दिनों ही जालंधर के कई स्कूलों में मिड डे मिल की जांच हुई और उसमें कीड़े पाए गए। पिछले माह ही राजस्थान राज्य के कंचनपुर क्षेत्र के पंजीपुरा आंगनबाड़ी केंद्र में दूशित मिड डे मील खाने से 23 बच्चे मौत के मुंह में जाने से बचे।

चंद दिवस पहले पहले राजधानी दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में भी दोपहर के भोजन में कीड़े पाए गए जिसे खाकर 20 बच्चे बीमार पड़ गए। समझा जा सकता है कि जब देश की राजधानी दिल्ली में मिड डे मील की स्वच्छता और गुणवत्ता का ध्यान नहीं रखा जा रहा है तो फिर देश के सुदूर स्कूलों में मिड डे मील का क्या हाल होगा। याद होगा जुलाई, 2013 में बिहार राज्य के ही सारण जिले में एक सरकारी विद्यालय में कीटनाशक पदार्थों से युक्त मिड डे मील खाने से 23 बच्चों की मौत हो गयी। तब खूब बवाल मचा और सभी राज्य सरकारों ने मिड डे मील की गुणवत्ता को लेकर ढे़र सारे दिशा निर्देश जारी किए। लेकिन स्थिति में कोई बदलाव नहीं है। कुछ घटनाओं पर गौर करें तो 22 जनवरी 2011 को महाराष्ट्र राज्य के नासिक स्थित नगर निगम के एक स्कूल में जहरीला भोजन खाने से 61 बच्चे बीमार पड़ गए। 25 नवंबर 2009 को दिल्ली में त्रिलोकपुरी स्थित एक विद्यालय में जहरीला खाना खाने से 10 दर्जन छात्राओं की हालत बिगड़ गयी। 24 अगस्त 2009 को मध्य प्रदेश राज्य के सिवनी में एक सरकारी स्कूल में मध्याह्न भोजन करने से आधा दर्जन छात्र मौत के मुंह में जाते-जाते बचे। यहां भोजन में मरी हुई छिपकली पायी गयी। 12 सितंबर 2008 को झारखण्ड राज्य के एक स्कूल में जहरीला भोजन से 5 दर्जन छात्र बीमार पड़ गए। लेकिन अचरज है कि इन घटनाओं के बावजूद भी किसी तरह का सबक नहीं लिया जा रहा है और न ही भोजन में प्रयुक्त खाद्य सामग्रियों की समुचित जांच-परख हो रही है। जबकि होना यह चाहिए कि खाना बनाने और उसे छात्रों को परोसने से पहले उसका समुचित परीक्षण हो। लेकिन चूंकि मध्याह्न भोजन योजना भ्रष्टाचार का शिकार बन चुकी है, ऐसे में भला किसको फुर्सत है जो बच्चों के स्वास्थ्य और उनके जीवन की चिंता करे। यह तथ्य है कि एक अरसे से मिड डे मील की खराब गुणवत्ता और मानक के हिसाब से भोजन नहीं दिए जाने का सवाल उठ रहा है। लेकिन इस ओर न तो शासन-प्रशासन का ध्यान है और न ही स्कूल प्रबंधन ही चिंतित हैं।

गौरतलब है कि मिड-डे मील योजना के तहत प्राथमिक स्तर के बच्चों को 450 कैलोरी और 12 ग्राम प्रोटीन का मध्याह्न भोजन दिए जाने का प्रावधान है। इसी तरह प्राथमिक स्तर से उपर के बच्चों के लिए 700 कैलोरी और 20 ग्राम प्रोटीन का पोषाहार सुनिश्चित किया गया है। इस योजना के अंतर्गत लौह, फोलिक एसिड और विटामिन-ए जैसे सूक्ष्म-पोषक तत्वों की पर्याप्त मात्रा की भी सिफारिश की गयी है। पोषाहार मानदंडों को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार प्रति प्राथमिक विद्यालय बालक/विद्यालय दिवस 100 ग्राम की दर से और प्रति प्राथमिक विद्यालय से उपर के बालक/विद्यालय दिवस 150 ग्राम की दर से खाद्यान्न मुहैया कराती है। योजना के तहत प्रत्येक छात्र को चावल और रोटी के अलावा 50 ग्राम सब्जी, 20 ग्राम दाल दिया जाना चाहिए। लेकिन योजना में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण बच्चों को मानक के हिसाब से भोजन नहीं मिल रहा है। वजह साफ है। मध्याह्न भोजन उपलब्ध कराने वाली संस्थाएं, प्रशासन और स्कूल प्रबंधन सभी की मिलीभगत है और सभी पैसों की बंदरबांट कर रहे हैं। इस योजना के तहत सप्ताह के हर दिन भोजन के अलग-अलग मेन्यू निर्धारित हैं। मध्याह्न भोजन योजना की मंशा छात्रों को पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराना है। लेकिन उसका पालन नहीं हो रहा है। बच्चों को कम पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराए जा रहे हैं। तमाम शहरों में मध्यान्ह भोजन की जिम्मेदारी ऐसी-ऐसी स्वयंसेवी संस्थाओं को सौंपा गया है, जो इस कार्य में दक्ष नहीं हैं। लेकिन चूंकि उनकी पहुंच शासन-प्रशासन में हैं लिहाजा उन्हें काम मिल गया है। ऐसे में घपले-घोटाले के बावजूद भी उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है, यह समझना कठिन नहीं है। बता दें कि विगत पांच वर्षों में इस योजना पर तकरीबन 40 हजार करोड़ रुपया खर्च हो चुका है। लेकिन उसका सार्थक परिणाम देखने को नहीं मिल रहा है। जबकि मिड डे मिल योजना को लागू करते समय उम्मीद की गयी थी कि जिन बच्चों की पहुंच विद्यालय तक नहीं है, उन्हें शिक्षा से लैस किया जाएगा और वे भूखे भी नहीं रहेंगे। लेकिन भ्रष्टाचार ने योजना की मंशा का पलीता लगा दिया है।

गौरतलब है कि विद्यालयों में मध्याह्न भोजन कार्यक्रम 15 अगस्त 1995 को प्रारंभ किया गया। इसके अंतर्गत कक्षा एक से पांच तक प्रदेश के सरकारी, परिषदीय और राज्य सरकार द्वारा सहायता प्राप्त प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने वाले सभी बच्चों को 80 फीसदी उपस्थिति पर प्रतिमाह तीन किलोग्राम गेहूं अथवा चावल दिए जाने की व्यवस्था सुनिष्चित की गयी। किंतु योजना के अंतर्गत छात्रों को दिए जाने वाले खाद्यान्न का पूर्ण लाभ विद्यार्थी को न प्राप्त होकर उसके परिवार में बंट जाता था। बाद में उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर 1 सितंबर 2004 से पका-पकाया भोजन प्राथमिक विद्यालयों में उपलब्ध कराने की योजना शुरू की गयी। अक्टूबर 2007 से इसे शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े ब्लॉकों में स्थित उच्च प्राथमिक विद्यालयों तथा अप्रैल 2008 से देश के सभी ब्लॉकों और नगर क्षेत्र में स्थित उच्च प्राथमिक विद्यालयों तक लागू कर दिया गया। आज की तारीख में यह योजना देश के तकरीबन 13.36 लाख स्कूलों के 12 करोड़ ऐसे बच्चों को कवर कर रहा है जो सरकारी स्थानीय निकायों सहित, सहायता प्राप्त विद्यालयों और शिक्षा गारंटी योजना एवं नवीन शिक्षा स्कीमों के अंतरगत चलाए जा रहे केंद्रों में शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। मध्याह्न भोजन योजना से 24 लाख रसोइयों को रोजगार मिला है और मिड डे मील बनाने के लिए 5 लाख 77 हजार किचन बनाए गए हैं। निश्चित रूप से यह योजना एक हद तक बच्चों की भूख मिटाने और उन्हें पढ़ाई के प्रति आकर्षित करने में कारगर सिद्ध हुई है। यह भी सही है कि इस योजना से सरकारी और सहायता प्राप्त विद्यालयों से छात्रों का पलायन रुका है और छात्रों की संख्या में वृद्धि हुई है। लेकिन सच्चाई यह भी है कि यह योजना भ्रष्टाचार का अड्डा में तब्दील होती जा रही है और उसका खामियाजा छात्रों को भुगतना पड़ रहा है। मिड डे मील उनकी सेहत और जिंदगी पर भारी पड़ रहा है। उचित होगा कि केंद्र व राज्य सरकारें मध्यांह भोजन योजना की निगरानी के लिए कारगर तंत्र की स्थापना करें और सुनिष्चत करें कि तय मानकों के हिसाब से बच्चों को गुणवत्तापरक भोजन प्राप्त हो। स्कूल प्रबंधन और भोजन उपलब्ध कराने वाली संस्थाओं को भी समझना होगा कि बच्चे राश्ट्र की पूंजी हैं और उनकी जिंदगी से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता।