शख्सियत समाज

भारत में दाभोलकर जैसे लोगों का मारा जाना कोई अचम्भा नहीं है‏

narendraशैलेन्द्र चौहान 

महाराष्ट्र के अग्रणी अंधविश्वास विरोधी कार्यकर्ता नरेंद्र दाभोलकर की २० अगस्त की सुबह गोली मारकर हत्या कर दी गई। 69 वर्षीय दाभोलकर सुबह टहलने निकले थे, तभी मोटरसाइकिल सवार दो अज्ञात हमलावरों ने उनके करीब आकर दो गोलियां सिर में मारीं। यह घटना पुणे के ओंकारेश्वर मंदिर के पास स्थित पुल पर हुई। यह घटना हमारे समाज और लोकतंत्र के नाम पर बड़ा कलंक है. डॉक्टर नरेंद्र दाभोलकर पर धर्म विरोधी होने के आरोप लगते रहे हैं. दो दशक पहले सन १९८९ में उन्होंने समविचारी मित्रों के साथ मिलकर महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति बनाई थी. यह संगठन अंधविश्वास को खत्म करने के लिए काम करता है. इसका मकसद भारत के लोगों के मन को बदलना है, जहां एक बड़े तबके में अंधविश्वास गहरी जड़ें जमा कर बैठा है. दाभोलकर को प्रगतिशील और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के अभियान के लिए समाज में जाना जाता है. दाभोलकर “साधना” नाम की एक पत्रिका के संपादक भी थे जो प्रगतिशील सोच को बढ़ावा देने के लिए है. वह कई वर्षों से महाराष्ट्र सरकार पर अंधविश्वास और काले जादू पर रोक लगाने वाले कानून के लिए दबाव बना रहे थे. इस बिल को पास कराने को लेकर दाभोलकर के इस अभियान का अतिवादी हिंदू संगठन विरोध कर रहे थे. इसके बावजूद वे इस विधेयक को पास कराने को लेकर अड़े हुए थे.

दाभोलकर का मानना था कि यह कानून धर्म के खिलाफ नहीं जैसा कि अंधविश्वासियों द्वारा प्रचारित किया जाता है बल्कि समाज में फैली बुराइयों के खिलाफ है. उनका कहना था, “पूरे बिल में भगवान या धर्म के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा गया है. भारत का संविधान उपासना की पूरी आजादी देता है और इसे कोई नहीं छीन सकता. लेकिन कानून सिर्फ धोखाधड़ी और शोषण करने वाली परंपराओं के खिलाफ है.” पाखंड, अंधश्रद्धा और अवैज्ञानिकता से मुक्ति इसके मूल में है. वे अपनी टीम के साथ अंधविश्वासों को वैज्ञानिक तरीके से उजागर करते थे. वे यह सिद्ध करते थे ये कोई दैवी चमत्कार न होकर मात्र एक भ्रम, हाथ की सफाई और मन्त्र मुग्ध करने वाले टोटके भर हैं जो आम आदमी को मूर्ख बनाकर उनके शोषण औजारों के रूप में इस्तेमाल किये जाते हैं.

गत वर्षों में दाभोलकर ने कई “कथित धर्मगुरुओं” को भी चुनौती दी थी. इन में से कई ऐसे हैं जिनके भक्तों की तादाद काफी बड़ी है और जो “चमत्कार” के दावे कर भोले भाले लोगों को बेवकूफ बनाते रहते हैं. दाभोलकर ने कुछ धार्मिक मौकों पर पशुओँ की बलि देने को भी चुनौती दी.

अंध विश्वास को बढ़ावा देने में मीडिया की भूमिका भी निंदनीय है. समाचारपत्र धर्म और आध्यात्म के नाम पर अन्धविश्वास, कुरीतियों और पाखंड को बढ़ावा देते हैं वहीँ भारत के कई प्रमुख टीवी चैनल और समाचार चैनलों पर बाबाओं का दरबार लगा रहता है. बड़ी संख्या में भक्तों के बीच चमत्कारी शक्तियों का दावा करने वाले शख्स सिंहासन पर विराजमान होता है.

लोग प्रश्न पूछते हैं और बाबा सामान्य परेशानी वाले सवालों के असामान्य जवाब देते हैं. एक छात्रा पूछती है, बाबा मैं आर्ट्स लूँ, कॉमर्स लूँ या फिर साइंस. बाबा कहते हैं- पहले ये बताओ आखिरी बार रोटी कब बनाई है, रोज एक रोटी बनाना शुरू कर दो.

एक और हताश और परेशान व्यक्ति पूछता है, बाबा नौकरी कब मिलेगी. बाबा कहते हैं क्या कभी साँप मारा है या मारते हुए देखा है. ये है निर्मल बाबा का दरबार. बाबा की झोली लगातार भर रही है. बाबा के नाम प्रॉपर्टी भरमार है. होटल हैं, फ्लैट्स हैं, बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ हैं. कई अखबार दावा करते हैं कि जनवरी से बाबा के बैंक खाते में हर दिन एक करोड़ रुपए आ रहे हैं.

ये है 21वीं सदी का भारत. आधुनिक भारत. अग्नि-5 वाला भारत. कौन कहता है भारत में पैसे की कमी है. गरीब से गरीब और धनी से धनी बाबाओँ के लिए अपनी संपत्ति कुर्बान कर देना चाहता है. धर्म के नाम पर पाखण्ड का व्यापार निर्बाध चलता रहता है.

बाबाओं को लेकर भारतीय जनता का प्रेम नया नहीं है. कभी किसी बाबा की धूम रहती है तो कभी किसी बाबा की. कभी आसाराम बापू और मोरारी बापू टीवी चैनलों की शान हुआ करते थे, तो बाद को निर्मल बाबा का समय आया.

ये बाबा भी बड़ी सोच-समझकर ऐसे लोगों को अपना लक्ष्य बनाते हैं, जो असुरक्षित हैं. आस्था और अंधविश्वास के बीच बहुत छोटी लकीर होती है, जिसे मिटाकर ऐसे बाबा अपना काम निकालते हैं.

लेकिन नौकरी के लिए तरसता व्यक्ति या फिर बेटी की शादी न कर पाने में असमर्थ कोई गरीब इन बाबाओं का टारगेट नहीं. इनका टारगेट हैं मध्यमवर्ग, जो बड़े-बड़े स्टार्स और व्यापारिक घराने के लोगों की ऐसी श्रद्धा देखकर इन बाबाओं की शरण में आ जाता है.जनता मस्त है और बाबा भी. लाखों की तादाद में लोग कुम्भ स्नान करने पहुंचते हैं और बाबाओं के चंगुल में फँस जाते हैं. इतनी अधिक संख्या में लोगों के एक जगह एकत्रित होने के कारण वहां दुर्घटनाएं होती हैं.हाल ही में उत्तराखंड में   वालों की संख्या लाखों में थी वे प्राकृतिक प्रकोप के शिकार हुए  अपनी जान दे दी.इसी तरह वैष्णों देवी और अमरनाथ यात्रा पर बहुत बड़ी संख्या में लोग जाते हैं जिससे वहां सामाजिक और पर्यावरणीय असन्तुलन पैदा होता है. दुर्घटनाएं तो आम बात है.

बच्चन हों या अंबानी, राजनेता हों या नौकरशाह- इन बड़े लोगों ने जाने-अनजाने में इस अंधविश्वास को बल दिया है.

ऐश्वर्या राय की शादी के समय अमिताभ बच्चन का ग्रह-नक्षत्रों को खुश करने के लिए मंदिरों का दौरा, अंबानी बंधुओं में दरार पाटने के लिए मोरारी बापू को मिली अहमियत. चुनाव जीतने के लिए बाबाओं के चक्कर लगाते नेता यह सब क्या दर्शाता है.

दरअसल समृद्धि अंधविश्वास भी लेकर आती है. अपना रुतबा, अपनी दौलत कायम रखने का लालच इसकी एक मात्र वजह होती है. जो जितना समृद्ध, वो उतना ही अंधविश्वासी. और फिर समृद्धि के पीछे भागता मध्यमवर्ग, इस मामले में क्यों पीछे रहेगा.

इसलिए इन बाबाओं के पौ-बारह हैं. फिर क्यों न बाबा डायबिटीज से पीड़ित व्यक्ति को खीर खाने की सलाह देंगे. आखिर हमारी मानसिकता ही तो ऐसे तथाकथित चमत्कारियों को समृद्ध बना रही हैं. सत्ता में विराजे लोग और प्रशासन भी इनके प्रभाव में आ जाते हैं। वे अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं करते. राजनेता तो वोट बटोरने के लिए इनके आगे-पीछे घूमते हैं और इनको पूरा संरक्षण देते हैं. ऐसी स्थति में दाभोलकर जैसे लोगों का मारा जाना कोई अचम्भा नहीं है पर यह बेहद शर्मनाक है.