पर्यावरण

आ मौत मुझे मार

जीहाँ कुछ ऐसा ही हो रहा है. जापान के परमाणु हादसे में हज़ारों लोग मर चुके हैं और लाखों के सर पर मौत का ख़तरा मंडरा रहा है. ११ मार्च के भूकंप व सुनामी के बाद फुकुशिमा के परमाणु रिएक्टरों में हुए विध्वंस से शुरू हुए विनाश पर काबू पाने में असफल होने के बाद अब जापान सरकार ने इन रिएक्टरों को सदा के लिए दफन करने का फैसला कर लिया है. मौत के इन दानवों को स्थापित करने के बाद अब इन्हें बंद करना कोई आसान काम नहीं. फुकुशिमा प्लांट को चलाने वाली कंपनी ‘ टोकियो इलेक्ट्रोनिक पावर’ के अनुसार इन्हें बंद करने ( Decommissioning ) पर लगभग १२ अरब डालर का खर्चा होगा और ३० साल लगेंगे . इन प्लांट्स को लगाने वाली कंपनी ‘हिताची जनरल इलेक्ट्रिकल’ ही इन्हें बंद करने का काम करेंगी. इस कार्य में ‘एक्सेलान’ और ‘बेकटेल’ भी काम करेंगी. इन परमाणु रिएक्टरों को ३० साल की मेहनत और १२ अरब डालर खर्च कर के बंद कर देने के बाद भी मुसीबत ख़त्म नहीं होगी, सैकड़ों नहीं हज़ारो, लाखों साल तक विकीर्ण का ख़तरा बना रहेगा.
पच्चीस वर्ष पूर्व सन १९८६ में युक्रेन के चेर्नोबिल परमाणु संयत्र में दुर्घटना हुई थी. ५५०० लोगों के मरने के बाद कितने विकीर्ण का शिकार बन कर मौत से भी बुरी यातना भोगते रहे, इसके आंकड़े उपलब्ध नहीं. कुल ६५००० से १०५,००० लोगों के मरने का अनुमान लगाया गया है. तब लेबल-७ आपात स्थिति घोषित की गयी थी. इसके बाद से पश्चिमी देशों ने परमाणु संयंत्र लगाने से तौबा कर ली है. तब से अमेरिका के लाखों करोड़ के पामाणु संयंत्र बेकार पड़े हैं. आर्थिक मंदी से मर रहे अमेरिका और उसके साथी देशों ने भारत की ( विदेशी हितों के लिए सदा काम करने वाली )  सरकार को काबू करके लाखों करोड़ रुपये का जंक भारत के माथे मढ़ने का प्रबंध कर लिया है. जिस दिन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने जनमत के विरोध की हवा निकालने के लिए ये कहा की ‘भारतीय परमाणू संस्थान’ को अधिक जवाबदेह बनाया जाएगा, उसके अगले दिन ही भारत के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक डा. बलराम ( भारतीय विज्ञानं संस्थान, बेंगलूर के निदेशक ) ने नुक्लियर कार्यक्रमों पर रोक लगाने की मांग की जिसका समर्थन देश के ६० वैज्ञानिकों और प्रमुख बुद्धिजीवियों ने किया.
इन परिस्थितियों की पूरी तरह अनदेखी करते हुए भारत सरकार परमाणु संयंत्रों को देश में लगाने के लिए जी-जान से लगी हुई है. भारत सरकार बार-बार कह रही है की यह तकनीक पूरी सुरक्षित है. तो क्या हमारे पास जापान और अमेरिका से अधिक अनुभव और कुशलता है जो हमें विकीर्ण के खतरों का सामना नहीं करना पडेगा ? नज़र आ रहा है कि सरकार सच नहीं बोल रही, देश के नहीं किसी और के हित में बात और काम कर रही है.  पामाणु ऊर्जा हेतु खरीद की जा रही सामग्री के बारे में प्राथमिक जानकारी से समझा जा सकता है कि यह कितना खतरनाक साबित होने वाला है और अव्यवहारिक भी है.
 भारत के जैतापुर में जो ई.पी.आर. ( यूरोपीय प्रेशराज़ड रिएक्टर्ज ) तकनीक आयात की जा रही है, उसकी सुरक्षा के बारे में अनेक गंभीर आशंकाएं है. इस तकनीक के रिएक्टर अभीतक संसार में कहीं भी पूरी तरह न तो कहीं बने हैं और न ही चले हैं. दुनिया में अभीतक ई.पी.आर. निर्माण और प्रयोग कि अवस्था से गुजर रहा है. इस तकनीक को बेचने वाली कंपनी ‘अरेवा’ भारी वित्तीय संकट से जूझ रही है.  इसने २००९ में फ़्रांस सरकार से ४ अरब डालर का बेलआउट पॅकेज  मांगा था.  अपनी आर्थिक दुर्दशा के सुधर के लिए उसे अपना जंक और खतरनाक तकनीक बेचनी है. अरेवा ने अपना पहला ई.पी.आर फिनलैंड  को  बेचा था जो आजतक नहीं लग पाया है. मुकदमेबाज़ी  शुरू हो चुकी है और सयंत्र लगाने कि लागत ९०% तक बढ़ चुकी है.
दूसरा ई.पी.आर. फ्रास ने स्वयं अपने देश में लगाने का फैसला किया. २००७ में इसका निर्माण शुरू हुआ था जो आज तक पूरा नहीं हुआ और न आगे होने की आशा है. फ्रांस की ‘न्यूक्लियर सेफ्टी एजेंसी’ ने इस तकनीक के रिएक्टर में कई गंभीर कमियाँ पायी हैं. इस संयंत्र के विरोध में फ्रांस के अनेक नगरों में ज़बरदस्त विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए है. अब जापान की त्रासदी के बाद तो विरोध और भी तेज़ होना स्वाभाविक है. फ्रांस सरकार भी कोई भारत की सरकार तो है नहीं जो अपने देश की हितों को बेच कर विदेशियों के हित में काम करे.
 आर्थिक बदहाली से जूझती अपने देश की कंपनियों के लिए बाज़ार तलाश करने का दबाव उस पर भी अमेरिका से कम तो है नहीं. अतः एक भारत ही है जहां वे अपने लाखों करोड़ के बेकार होरहे खतरनाक जंक को बेच सकता है. वही सब अब भारत में चल रहा है जिसके चलते सरकार परमाणु सौदे के लिए भरपूर समर्थन व सहयोग दे रही है. विरोधी दल भी जो चुप बैठे हैं तो समझ लें कि उनकी मिट्ठी भी ठीक से गर्म हो चुकी होगी. वरना वे खुलकर इस मुद्दे पर सरकार को घेरते. पर ऐसा कुछ न होना सारी कहानी कह रहा है. जनता इसे न देखे, समझें तो और बात है. 
चीन ने भी दो ई.पी.आर खरीदने का ठेका दिया था जो जापान की दुर्घटना के बाद खटाई में पड़ना सुनिश्चित है.संयुक्त अरब अमीरात ने ई.पी.आर के हो रहे सौदे को अचानक ठुकरा दिया और दक्षिणी कोरिया को गैर ई.पी.आर प्लांट लगाने का ठेका दे दिया है. संसार की अनेक परमाणु सुरक्षा एजेंसियों ने इस तकनीक में अनेकों सुरक्षा और गुणवत्ता की कमियाँ बतलाई है. ई.पी.आर में इंधन अधिक जलता है और इसीलिये विकीर्ण भी अधिक होता है. सामान्य रिएक्टरों की तुलना में इसमें ७ गुणा अधिक  रादियोधर्मी आयोडीन-१२९ निकलता है जो कि बड़ी खतरनाक स्थिति है. यह दुनिया का सबसे बड़ा परमाणु रिएक्टर है .
चिंता की एक बात यह भी है कि भारत के परमाणु बिजलीघरों के रख-रखाव का इतिहास काफी खराब रहा है. परमाणु ऊर्जा विभाग की कार्यप्रणाली और क्षमता काफी निचले दर्जे की आंकी गई  है. दुर्घटनाएं होती ही रहती हैं. करेला और नीम चढ़े वाली बात यह है कि इसके पास ई.पी.आर को चलाने का अनुभव है ही नहीं. अभीतक जिन रिएक्टरों को ये चला रहे हैं उनमें से अधिकाँश ई.पी.आर के मुकाबले लगभग ८ गुना कम क्षमता के हैं.
नाभिकीय ऊर्जा बनाते समय अनेक स्तरों पर रेडियोधर्मी कचरा निकलता है. युरेनियम की खुदाई से परिष्करण, संवर्धन, निर्माण, परिवहन व दहन तक हर समय  रेडियोधर्मी विकीर्ण निकलता रहता है. एक औसत संयंत्र से एक वर्ष में २० से ३० टन विकीर्ण युक्त अपशिष्ट निकला है. इसकी आयु हज़ारों वर्ष से लेकर करोड़ों वर्ष तक है. प्लूटोनियम-२३६ नामक परमाणु इंधन की आधी आयु २४००० वर्ष है. एक और इंधन युरेनियम-२३५ की अर्ध आयु ७१ करोड़ वर्ष है. इसके अतिरिक्त इन परमाणु अपशिष्टों में युरेनियम-२३४, प्लूटोनियम-२३८, अमेरिसियम-२४१, स्टांन्शियम-९०, सीजियम-१३७, नेप्टुनियम-237  अदि होते हैं.
चेर्नोबिल के बाद जापान की भयावह दुर्घटना ने संसार के सभी परमाणु ऊर्जा संयंत्र चलाने वाले देशों की नीद हराम कर दी है. जापान की इस त्रासदी को हिरोशिमा व नागासाकी के विनाश के बराबर माना जा रहा है. जापान ने स्तर-७ की विकीर्ण खतरे की घोषणा कर दी है. आसपास के देश बाद में होने वाले विकीर्ण के खतरों से थर्राए हुए है. चल रहे परमाणु संयंत्रों को बंद कर देने पर सभी देश विचार करने पर बाध्य हो गए हैं. पर एक भारत है जो सभी खतरों की अनदेखी कर के विदेशी व्यापारियों के हित में देश के हितों को दाव पर लगा रहा है और परमाणु रिएक्टरों को स्थापित करने में लगा हुआ है. इसका विरोध न हो इसके लिए जनता को विदेशी शक्तियों द्वारा संचालित मीडिया की सहायता से मूर्ख बनाया जा रहा है, नहीं समझे ?
ज़रायाद करिए कि जब जापान इस शताब्दी की भयावह विपदा को भुगत रहा था तो हम भारतीय क्या कर रहे थे ? क्रिकेट में पाकिस्तान पर भारत की जीत की प्रबल इच्छा के साथ, बड़े उत्तेजित होकर टी.वी. से चिपके बैठे थे. उसके बाद जीत की खुशियों में सारे संसार को भुला बैठे थे, मानों पकिस्तान को समाप्त कर के लौटे हों.  कौन जाने कि जापान की त्रासदी से हम भारतीयों का ध्यान हटाने के लिए क्रिकेट को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया हो. अपने अरबों रुपये के परमाणु जंक की बिक्री में कोई रुकावट पैदा न हो , इसके लिए कुछ करोड़ खर्च करके मैच फिक्स किया हो, भारत पाक की टाई को सुनिश्चित किया हो. बहुत बार हुआ है भारत पाक का क्रिकेट मैच पर इस बार की दीवानगी कुछ अलग, कुछ अधिक नहीं थी ? कहीं मीडिया ने हम सबकी भावनाओं को  भडकाकर , हमें बहकाकर कोई खेल तो नहीं खेला ? कहीं हमारी संवेदनाये, हमारी सोच, हमारी बुद्धी अब मीडिया की गुलाम तो नहीं बन चुकी  ? क्या वही हमारी समझ और जीवन को अपनी पसंद और ज़रूरत के अनुसार संचालित करता है ? वरना कोई कारण नहीं था कि जब जापान के लोग भयावह त्रासदी काशिकार बन कर बेमौत मर रहे थे तो हम संवेदनशील भारतीय क्रिकेट के पागलपन, दीवानगी में उन्हें भूल जाते ?
मीडिया के चलाये नहीं हमें अपने विवेक से चलना , देखना और समझना होगा जिसे कि हम भूलते जा रहे हैं. तभी बच पायेंगे इन अंतर्राष्ट्रीय लुटेरों के उस जाल से जो कि हर स्तर पर फैलाया जा रहा है. परमाणु समझौता भी उसी जाल का एक हिस्सा है. इसे स्वीकार करना ”आ मौत मुझे मार” कहने जैसा है.