मनोज ज्वाला

चोरों ने कभी न कभी किसी कोतवाल को जरूर डांटा होगा, तभी यह कहावत चल पड़ी- ‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे।’ आज देश की राजनीति में यही कहावत चरितार्थ हो रही है। कांग्रेस के नेतृत्व में धूर्त्त राजनीतिबाजों व बुद्धिजीवियों का ऐसा गिरोह सक्रिय है जो मजहब के प्रति सापेक्ष है तथा मजहबियों की तरफदारी करते हुए
दंगा-फसाद को उकसाकर इसका दोष भाजपा व हिन्दूवादी संगठनों पर जबरिया मढ़ देता है। इस गिरोह ने एक मिथक स्थापित कर दिया है कि देश में दंगा चाहे जहां कहीं हो, उसका स्थायी व एकमात्र ‘कर्ता’ हिन्दुत्ववादी संगठन ही हो सकता है, जो पहले संघ था, बाद में जनसंघ हुआ और अब भाजपा है।इस ‘उलटबांसी’ के एक नहीं दर्जनों उदाहरण हैं। देश-विभाजन कांग्रेस ने कराया और कांग्रेस की मुस्लिम-तुष्टिकरणवादी नीतियों के कारण विभाजन के साथ दुनिया का सबसे बड़ा रक्तपात हुआ। इसके बाद सन् 1969 में
कांग्रेसी शासन के दौरान गुजरात में हुआ भीषण दंगा, स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा सरकारी दंगा था; किन्तु उसके बावत कांग्रेस की जिम्मेदारी को लेकर कभी सवाल नहीं उठे। जबकि 2002 के गोधरा-गुजरात’ को लेकर उक्त कांग्रेसी गिरोह ने केवल ‘वाक-प्रहार’ से भाजपा को दागदार बनाया। वह भी तब जबकि इन आरोपों को लेकर नरेंद्र मोदी न्यायालय से निर्दोष साबित हो चुके हैं। इतिहास में झांकें तो गुजरात में 2002 से पूर्व कांग्रेसी शासनकाल के दौरान पांच बड़े-बड़े दंगे क्रमशः 1969, 1985, 1987, 1990 और 1992 में हो चुके हैं। सरकारी आकड़ों के अनुसार 1969 के दंगे में कुल 3832 लोगों की मौत हुई। कांग्रेस की राज्य सरकार के दौरान हुए उस दंगे में मुसलमानों के भीषण कत्लेआम का खास कारण था। दरअसल, एक साल पहले गुजरात के मुख्यमंत्री बलवंत राय मेहता के विमान को कच्छ सीमा पर पाकिस्तान की सेना द्वारा गलती से उड़ा दिए जाने पर हुई उनकी मृत्यु का बदला लेने के लिए दंगे के दौरान कांग्रेस-कार्यालय से 5000 कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को ‘कर्फ्यु पास’ निर्गत किये गए थे। जाने-माने मुस्लिम विद्वान असगर अली इंजीनियर द्वारा सम्पादित पुस्तक-‘कम्युनल राइट्स इन पोस्ट इण्डिपेण्डेन्स इंडिया’ में संकलित जेएनयू के वामपंथी प्रोफेसर घनश्याम शाह के लेख में कांग्रेस प्रायोजित उस दंगे की मीमांसा विस्तार से की गई है।इतना ही नहीं, महात्मा गाँधी के सहयोगी रहे सीमांत गाँधी के नाम से मशहूर खान अब्दुल गफ्फार खान जो उन्हीं दिनों पोरबंदर आये हुए थे और पूरे दस दिनों तक वहीं उस दंगे में फंसे रहने के बाद पाकिस्तान वापस जाने से पहले दिल्ली के राजघाट पर गए थे, उन्होंने महात्मा गांधी की समाधि के समक्ष रखी ‘अतिथि-पुस्तिका’ में जो लिखा, उसे आज भी देखा जा सकता है और उससे कांग्रेस के चरित्र की पहचान की जा सकती है। सीमांत गांधी ने लिखा- “मैंने कांग्रेस सरकार के द्वारा गुजरात में कराए गए कत्लेआम को अपनी आँखों से देखा है। मेरे विचार से अब कांग्रेस को महात्मा गाँधी का नाम इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।” बाद में इंदिरा सरकार ने गुजरात के उस कत्लेआम की जाँच के लिए जो कमेटी बनाई थी उसने भी उस कत्लेआम के लिए गुजरात के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री हितेंद्र भाई को दोषी माना और उनपर कड़ी कार्रवाई की सिफारिश की लेकिन इंदिरा गाँधी ने उसे मानने से ही इनकार कर दिया। इंदिरा गांधी की हत्या के उपरांत हुए कांग्रेस-प्रायोजित दंगे से तो पूरी दुनिया वाकिफ ही है। ऐसे चरित्र के बावजूद कांग्रेस एवं उसके सहयोगियों का गिरोह अत्यंत निर्लज्जतापूर्वक भाजपा और हिन्दू-संगठनों पर साम्प्रदायिक दंगा-हिंसा व घृणा फैलाने की बेशर्मी करता रहता है।देखा जाए तो कांग्रेस से ज्यादा साम्प्रदायिक इस देश में दूसरा कोई दल नहीं है। इनके नेतागण धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सम्प्रदाय-विशेष की अनुचित-अवांछित तरफदारी करते रहे हैं। पिछले दिनों दिल्ली में जो कुछ हुआ वह कांग्रेस व आम आदमी पार्टी के नेताओं द्वारा किये जाते रहे साम्प्रदायिक विषवमन का ही परिणाम है। नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध उकसाने-भड़काने वाले खतरनाक बयानों की बौछार करते रहने वाले इस गिरोह ने जानबूझ कर कपिल मिश्र के मामूली से बयान को सुनियोजित तरीके से तूल देकर पहले से तैयार दंगाइयों को खूनी खेल शुरू कर देने की चतुराई की। इससे जहर उगलने वाले पठानों-इमामों को मौका मिल गया। उधर गुलेल बांधकर तैयार बैठे दंगाइयों का दल दिल्ली पर टूट पड़ा। दंगे के बाद अब दंगा कराने वाले गिरोह के बयान बहादुर उल्टे ‘कोतवाल’ को ही डांट लगा रहे हैं। ऐसे में भाजपा-नेतृत्व को चाहिए कि वह इस उलटबांसी को उलट कर उन चेहरों को बेनकाब करे ताकि दंगा-फसाद से अपनी सियासत चमकाते रहने वाले गिरोह के धूर्त्त मदारियों का असली चेहरा पूरा देश देख सके।