–विनय कुमार विनायक
ऐ गोरी! मुहम्मद गोरी!
ग्यारह सौ बेरानबे ईस्वी में
‘तराईन में ‘गुल’ ‘खिला’ ‘तु’ ‘से’ ‘लो’
दिल्ली में सल्तनत स्थापित कर ली
(गुलाम-खिल्जी-तुगलक-सैयद-लोदी)
ऐ गोरी ! मुहम्मद गोरी!
पर तुम्हें कहां था कोई प्यारा
माता-पिता, सुत-सुता और
बहन-भ्राता कहां किसी से नाता
सिवा एक कुत्बुद्दीन ऐबक
तुर्की नस्ल का गुलाम तुम्हें प्रिय था
वही तुम्हारा अधिकारी !
दिल्ली पति पृथ्वी राज चौहान को धूल चटाकर
कुत्बुद्दीन को दिल्ली की गद्दी पर बिठाकर
तुमने सिद्ध किया था खुद को
एक विजयी नर नहीं अपितु नारी
ऐ गोरी! गुल-गुलाम की गोरी!
तेरा गुलाम कुत्बुद्दीन ऐबक
तेरे तन-मन-धन का सेवक
शीघ्र बना मालिक भारत का
ध्वस्त किया ढेरों मंदिर
और बनाया मस्जिद एक
दिल्ली में “कुब्बत-उल-इस्लाम”
अजमेर में बने “अढ़ाई दिन का झोंपड़ा’ में
तेरा गुलाम कुतुब करता था विश्राम !
तेरा कुत्बुद्दीन अति न्यारा था
वह अन्य गुलाम तुर्कों का सहारा था
भारत अब शरणगाह बना
इस्लाम को पनाह मिला
वह दानी तुर्क इस्लामी शक्श
कहलाने लगा ‘लाख बक्श’
कुत्बुद्दीन ने ख्वाब देखा था
एक कुतुबमीनार बनाने का
जिसकी नींव डाली भी उसने
किन्तु समय आ चुका था उसका
तुमसे मिलने जाने का
सन् बारह सौ दस में
तेरा ‘मलिक वली अहद’
घोड़ा पर चढ़कर जब खेल रहा था पोलो
कि वह गिरा गद से !
और उसने कहा बस,
छोड़ गया हक गद्दी से!
—विनय कुमार विनायक