लोकतंत्र शर्मिंदा है तानाशाही ज़िंदा है

1
224

गिरीश पंकज

दिल्ली में बाबा रामदेव और उनके समर्थकों के साथ जो कुछ भी हुआ, उसे दुहराने की ज़रुरत नहीं. पूरी दुनिया ने भारतीय लोकतंत्र का तानाशाही चेहरा देख लिया है. सबके सामने कांग्रेस का वह चेहरा आखिर सामने आ ही गया, जो अब तक छिपा हुआ था. लोकतंत्र की आड़ में जिस तरीके की शासन-व्यवस्था चल रही है, उसे देख कर अगर लोगों को अंगरेजों का बर्बर दौर याद आ रहा है, तो यह अतिरंजना नहीं है. शांतिपूर्वक तरीके से चल रहे विरोध-प्रदर्शन को डंडों के बल पर दमित करना किस लोकतंत्र की आचार-संहिता में लिखा है? गाँधी, राममनोहर लोहिया और जेपी जैसे विचारक अगर आज जीवित होते, तो लोकतान्त्रिक भारत के इस नए क्रूर चेहरे को देख कर फूट-फूट कर रोते. यहाँ विरोध में उठी आवाज़ों का गला घोंटा जा रहा है. सत्ता में सच सुनने का माद्दा नहीं बचा है.

तानाशाही का दौर होता तो दमन उनकी फितरत का हिस्सा मान लिया जाता लेकिन अब तो मुल्क आज़ाद है, फिर ऐसी क्या दिक्कत थी कि रामदेव बाबा को जान बचाने के लिये सलवार-कुरता पहनना पड़ गया? उनके समर्थको को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया? लोग जान बचा कर भागने पर मजबूर हो गए? यह दृश्य लोकतांत्रिक देश का है, यह देख कर हैरत होती है.वैसे तो इस तरह के दृश्य पूरे देश में देखे जा सकते है. केंद्र ही नहीं, राज्य सरकारें भी विरोधों का दामन करने के लिये तानाशाही रवैया अपना रही है. किसी भी प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में इए मंज़र चिंता से भर देते है कि आखिर हम किस तरह का समाज बनाना चाहते हैं? फिर अगर दिल्ली ही दमन का पाठ पढ़ाएगी तो राज्यों के हौसले तो बढ़ेंगे ही. रामदेव के दमन के साथ ही दिल्ली का छिपा हुआ चेहरा पूरी दुनिया के सामने उजागर हो गयाहै. और दावे के साथ कहा जा सकता है कि इस घटना से कांग्रेस की छवि धूमिल हुई है. साफ़ हो गया है कि रामदेव के आन्दोलन को तार-तार करने के लिये पूरी कांग्रेस लगी हुई थी. वह कांग्रेस जो कभी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिये लड़ने का स्वांग करने में आगे रहा करती थी. मगर आजादी के बाद कांग्रेस का नया चेहरा विकसित हुआ और वह अनेक मौकों पर भयानक तानाशाह के रूपमें में सामने आता रहा है. चाहे वह आपातकाल का दौर रहा हो, चाहे बाबा रामदेव का दमन. प्रवृत्ति वही है.

सबसे बड़ी चिंता इस बात को लेकर है कि अगर यही दौर रहा, यही मानसिकता बरकरार रही तो हमारे लोकतान्त्रिक चेहरे का क्या होगा? भ्रष्टाचार या विदेश में जमा कालेधन के मामले में विपक्ष की भूमिका दमदार नहीं है. अब तीसरी सामाजिक प्रतिरोध की शक्ति के रूप में अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे गैर राजनीतिक चेहरे उभर रहे है. इनके साथ देश की जनता चल रही है. एक दिशामिल रही है कि देश मुर्दा नहीं, ज़िंदा है. केवल राजनीतिज्ञों या कुछ दलों के भरोसे ही देश को नहीं छोड़ा जा सकता. जनता का जगाना भी ज़रूरी है. अब जनता जाग रही है. भ्रष्टाचार के मुद्दे पर वह एक है. ऐसे समय में देश की जनता का दमन करना क्या दर्शाता है कि केंद्र भी भ्रष्टतंत्र के साथ है? अगर ऐसा नहीं है तो सरकारों का दायित्व है कि वे भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़े हर शांतिपूर्ण अभियान को धैर्य के साथ बर्दाश्त करे. क्योंकि देश में लोक्तन्त्र कायम है. लाठी, गोली के सहारे अगर लोक प्रतिरोधों का दमन किया जायगा तो यह माना जाएगा कि देश में लोकतंत्र इन दिनों स्थगित है. मेरी अपनी पंक्तिया है- ”लोकतंत्र शर्मिन्दा है, राजा अब तक ज़िंदा है.” राजा नहीं रहे मगर तानाशाही तो ज़िंदा है ही . लोकशाही की खाल पहन कर हमारी सरकारे तानाशाही का घिनौना खेल कर रही है. यह दुखद है, निंदनीय है. शर्मनाक है. केंद्र सरकार को अपनी गलती मान लेनी चाहिए कि कुछ गलत लोंगों के इशारे पर देश की जनता के दमन का पाप किया गयाहै. अगर सरकार ने अपनी गलती नहीं स्वीकारी तो उसी भविष्य में इसका खामियाज़ा भुगतना ही पडेगा. वैसी भी केंद्र सरकार हर मोर्चे पर विफल हो रही है. और अब सुधरने की बजाय हिंसा करके जनता कि आवाज़ को बंद भी करना चाहती है? यह सब पकिस्तान या किसी तानाशाही मुल्क में नहीं, भारत में हो रहा है, यह देख कर हैरानी हो रही है, इसका मतलब तो यही हुआ कि जब बुरे दिन आने लगते है, ईश्वर भी मति हर लेता है.लगता है, कि इस सरकार के ”जाने” की बेला आ गई है. हर मोर्चे पर तो सरकार विफल हो रही है. मंहगाई डायन तो पहले ही खाए जा रही है. मंत्री भ्रष्ट है. विदेश में जमा कालेधन को वापस लाने में सरकार गंभीर नज़र नहीं आती. जो लोग सरकार की नीयत पर शक करते है, उनको सरकार अपना मित्र नहीं शत्रु समझती है. एक चुनी हुई सरकार जिस तरह का आचरण कर रही है, उसे देख कर यही लग रहा है, कि या तो उसे भ्रम हो गया है कि वह हमेशा-हमेशा के लिये कुरसी पर काबिज़ रहेगी या, फिर वह यह मान कर भी चल रही है कि जनता भुलक्कड़ है. अगले चुनाव तक वह अपने ज़ख्मों को भूल जायेगी और मुसकराते हुए कहेगी कि आइये, दिल्ली की गद्दी दुबारा संभालिये.

1 COMMENT

  1. ”लोकतंत्र शर्मिन्दा है, राजा अब तक ज़िंदा है.” राजा नहीं रहे मगर तानाशाही तो ज़िंदा है ही ” बिलकुल सही कहा है श्री पंकज जी ने.

Leave a Reply to sunil patel Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here