लोकतंत्र हमारी सांस्कृतिक विरासत

indian20parliament20-201मैं दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनाव का उत्सव को देख रहा हूं। इसी महिने नई सरकार का गठन भी हो जायेगा। किसकी सरकार बनेगी? कौन राजा बनेगा? यह भविष्य के गर्भ में है। जो भी पार्टी-गठबंधन सत्ता में आयेंगे वे सभी कभी न कभी चाहे अल्पकाल के लिए हो या दीर्घ काल के लिए सत्ता में रहे हैं। देश का मतदाता सबको अजमा चुका है। चुनाव के बाद किसी बड़े बदलाव की, चाहे वह सरकारी तंत्र के रवैयों की हो, बढ़ते बाजारवाद के रोकने में हो, अपसंस्कृति के बढ़ने से हो, भ्रष्टाचार को कम करने में हो या राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में हो, की उम्मीद करना बेमानी होगा और उसका कारण मतदाता नहीं वरन भ्रष्ट तंत्र एवं दिशाहीन राजनीतिज्ञ है। हां यह अवश्य हो सकता है कि कोई नया लोकलुभावना कार्यक्रम झुनझुने की तरह थमा दिया जावे ताकि मूल समस्या से जनता का ध्यान हटाया जा सके।

वह हिन्दुस्तान का लोकतंत्र है जहां ‘तंत्र’ बहुत शक्तिशाली है एवं ‘लोक’ निरीह है। फिर भी आश्चर्य की बात है लोकतंत्र जिंदा है, भ्रष्ट, स्वार्थी, बिगड़ैल एवं शक्तिशाली ‘तंत्र’ के दबाव के बाद भी गरीबी-अमीरी, मेट्रोवासी, अगले-पिछड़े, की विभिन्नता, अलग-अलग भौगोलिक परिवेश, अलग-अलग भाषा बाजावाद आदि के बावजूद इस निरीह लोक जिसमें अधिकांश निरक्षर है, ने लोकतंत्र को जिंदा रखा है।

बैंकों के राष्ट्रीयकरण एंव प्रिवियर्स के मुद्दे पर इंदिरा जी की अनपेक्षित बड़ी विजय, आपातकाल के समय उसी इंदिरा जी को एक सुर में नकारना, बोफोर्स के मुद्दे पर भ्रष्टाचार के विरूध्द मोहर लगाना, राममंदिर के मामले में भाजपा को बडा जनादेश देना निरीह ‘लोक’ के परिपक्व मतदाता होने का सबूत है। भ्रष्ट तंत्र, गिरगिटी राजनेता, मीडिया कुछ भी कहे जब-जब निर्णायक मत देने का अवसर आया ‘लोक’ ने राष्ट्रहित एवं लोकहित में निर्णय देकर स्वयं को तथाकथित बुद्धिजीवी एवं राजनैतिक पंडितों से अधिक समझदार सिद्ध किया।

अटल जी के शासनकाल में जितना कुछ हुआ उसके आधार पर शाइनिंग इंडिया का नारा बहुत-गलत नहीं था यहां तक कि मीडिया भी इस नारे के चकाचौंध से प्रभावित था। परन्तु जो शाइनिंग आम जनता तक नहीं जा सकी उसका लोकहित में कोई अर्थ नहीं है यह जनता के निर्णय ने बता दिया। आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक, भाषाई, जातपात के भिन्नताओं एवं विरोधाभासों के बावजूद लोकतंत्र की यह साझी कहां से आई? एक बाद नहीं बार-बार हमने इस साझी समझ के करिश्मे चुनावों में देखे हैं। राष्ट्रहित एवं लोकहित में साझी समझ का दबाव, न बाहुबल का भय, न प्रभावशाली मीडिया रोक पाया। राजा एवं राज्य, राष्ट्रहित एवं लोकहित की इस गहरी समझ का राज कहीं छुपा है तो हमारी सांस्कृतिक विरासत में छुपा है। यह सच है कि सैकड़ों वर्षों से भारत विदेशी आक्रमणकारियों का गुलाम रहा इस लम्बे संघर्ष एवं गुलामी ने हमारी बुनियादी ढांचे को, बुनियादी विचारों को नेस्तनाबूद करने की कोई कसर नहीं छोड़ी। परन्तु कृष्ण की नीति, राम का आदर्श, चन्द्रगुप्त, विक्रमादित्य की प्रषासनिक कुशलता, हरीशचंद का त्याग, महावीरबुद्ध की अहिंसा करूणा एवं दया ने जो हमारे शास्त्रों, साहित्य, गीतों ष्लोकों, कथा एवं कहानी के माध्यम से, राजा एवं राज्य की एक आदर्ष छवि हमारे जनमानस में बनाई है, यह छवि हमारे शाश्वत संस्कारों के माध्यम से जनमानस में गहरे तक उपस्थित है।

इसी सांस्कृतिक विरासत को शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरूगोविन्द सिंह, तुलसी, नानक एवं कबीर ने आगे बढ़ाया। विवेकानन्द, गांधी, तिलक, भगतसिंह, बिसमिल्ला अशफाक उल्ला इसी विरासत की कड़ी है।

हमारे देश में पूर्व में सामंती राज्य व्यवस्था अवश्य थी। परन्तु स्थानीय स्तर पर पंचायत का प्रभावी नियंत्रण था। इसलिए लोकतंत्र का मूल आधार पंच परमेश्वर भी हमें विरासत में मिला, राम राज, सुशासन, नीति, त्याग एवं बलिदान की यह विरासत एवं पंचपरमेश्वर का मूल स्वर भारतीय जनमानस को निरक्षरता गरीबी एवं अन्याय विरोधाभासों के बावजूद भी राजा एवं राज्य की सहीं समझ एवं इसके लिए निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करता है, यह हमारी सांस्कृतिक चेतना का ‘इनबिल्ट’ हिस्सा है।

आज बाजारवाद अपसंस्कृति फैला रहा है वह चिंता का विषय है। जिन सांस्कृतिक मूल्यों को विदेशी आक्रांता नष्ट नहीं कर पाये, उन्हें आजाद भारत में नष्ट करने का जो प्रयास हो रहा है वह हमारे लोकतंत्र के लिए भी उतना ही बड़ा खतरा है, जितना संस्कृति के लिए। आज आवश्यकता है उन शक्तियों को मजबूत करने की जो सांस्कृतिक मूल्यों को बचाने के लिए सक्षम है। यदि संस्कृति बचेगी तो लोकतंत्र बचेगा।

-भास्कर राव
(लेखक आरएसएस के प्रांत प्रचार प्रमुख है)

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