राजेन्द्र चड्ढा
भारत में हिन्दू और अन्य मतावलंबियों की जनसंख्या में तेजी से बढ़ रहे असंतुलन ने सीमावर्ती और मध्य भारत में तीव्रता से सर उठा रही सामरिक, गंभीरता को रेखांकित किया है। 1951 से प्रत्येक 10 वर्षों पर होने वाली हर जनगणना हिन्दू और अन्य मतावलंबियों में बढ़ते जनसांख्यिकीय अंतर, जो हिन्दुओं की जनसंख्या घटने और अहिन्दुओं की जनसंख्या बढ़ने के रूप में सामने आ रहा है, की ओर ध्यान दिलाती रही है। अहिन्दू मतावलंबियों में मुख्य रूप से मुसलमानों और ईसाइयों की बढ़ती जनसंख्या इस खतरनाक जनसांख्यकीय असंतुलन का प्रमुख कारण है। मुसलमानों की जनसंख्या देश के असम, पश्चिम बंगाल जैसे पूर्वोत्तर राज्यों में तो बढ़ ही रही है, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, झारखण्ड, दिल्ली, महाराष्ट्र, गोवा, गुजरात, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में भी बढ़ रही है। जम्मू-कश्मीर में घाटी तो पहले से ही मुस्लिम बहुल है, जहां 8 जिलों में लगभग शत-प्रतिशत मुसलमान हैं, बाकी जिलों में भी उनका बाहुल्य है।
उधर पूर्वोत्तर भारत में मतांतरण अभियान के बल पर ईसाई सामाजिक व राजनीतिक वर्चस्व पहले ही कायम कर चुके हैं और देश के झारखण्ड और छत्तीसगढ़ जैसे वनवासी बहुल प्रांतों से लेकर पंजाब तक में मतान्तरण अभियान के बल पर अपना दबदबा बढ़ा रहे हैं।
गैरहिन्दू मतावलंबियों की बढ़ती जनसंख्या के पीछे के मन्तव्य को श्री गुरुजी ने भी स्पष्ट किया था- ‘वास्तव में संपूर्ण देश में जहां भी एक मस्जिद या मुसलमानी मोहल्ला है, मुसलमान समझते हैं कि वह उनका अपना स्वतंत्र प्रेदश है। यदि वहां हिन्दुओं का कोई जुलूस गाते-बजाते जाता है, तो वे यह कहते हैं कि इससे उनकी मजहबी भावना को ठेस लगती है।’ (श्री गुरुजी समग्ररू खण्ड 11, पृष्ठ, 195)
ठोस संकेतः 1991 की जनगणना-1991 की जनगणना में पता लगा कि 1981-1991 के बीच हिन्दुओं की जनसंख्या वृद्धि दर 22.8 प्रतिशत रही, वहीं मुसलमानों की जनसंख्या में 32.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई जो किसी भी दशक के दौरान दर्ज वृद्धि दर में सबसे अधिक थी। 1991 में कुल जनसंख्या में हिन्दुओं का प्रतिशत 84.9 से घटकर 82.0 प्रतिशत रह गया और मुसलमानों का 9.9 प्रतिशत से बढ़कर 12.1 प्रतिशत हो गया।
प्रत्यक्ष प्रमाणः 2001 की जनगणना-
पंथाधारित जनगणना, 2001 के आंकड़ों के अनुसार देश की कुल जनसंख्या में 80.5 प्रतिशत हिन्दू, 13.4 प्रतिशत मुसलमान, 2.3 प्रतिशत ईसाई हैं जबकि पिछली जनगणना में हिन्दू 82 प्रतिशत, मुसलमान 12.1 प्रतिशत और ईसाई 2.3 प्रतिशत थे। राष्ट्रीय स्तर पर आंकड़ों को देखने पर पहली नजर में तो कोई बड़ा उलटफेर नहीं दिखाई देता है पर अगर हम देश में विभिन्न मतावलंबियों की दशकीय जनसंख्या वृद्धि दर, प्रजनन दर जैसे विशुद्ध अकादमिक पहलुओं सहित मतांतरण और घुसपैठ के संदर्भ में इन आंकड़ों पर नजर डालें तो पूरी सूरत ही बदल जाती है। इन आंकड़ों को पहली बार सार्वजनिक किए जाने के बाद, मुसलमानों की अभूतपूर्व वृद्धि दर (36 प्रतिशत) को लेकर देश भर में राजनीतिक पारे के बढ़ने के बाद महापंजीयक एवं जनगणना कार्यालय ने आनन-फानन में दूसरी बार (जाहिर है इस बार दबाव में) जम्मू-कश्मीर तथा असम को निकालकर पंथ पर आधारित जनगणना के आंकड़ों को जारी किया। इससे, केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व और वामपंथ समर्थित संप्रग सरकार का पंथनिरपेक्षता के नाम पर ओढ़ा मुस्लिम तुष्टीकरण का चेहरा उजागर हो गया।
पिछले दशक (1991) के पंथ पर आधारित के नवीन आंकड़ों का 2001 की जनगणना के नवीन आंकड़ों से तुलनात्मक अध्ययन करने पर पता चलता है कि जहां 1991 में जम्मू-कश्मीर में मुसलमान कुल जनसंख्या का 64.19 प्रतिशत थे वहीं सन् 2001 में उनका प्रतिशत बढ़कर 67 हो गया। इसी तरह दिल्ली में मुसलमानों की आबादी 9.44 प्रतिशत से बढ़कर 11.7 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश 17.33 प्रतिशत से बढ़कर 18.5 प्रतिशत, बिहार में 14.81 प्रतिशत से बढ़कर 16.5 प्रतिशत, असम में 28.43 प्रतिशत से बढ़कर 30.9 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल 23.61 प्रतिशत से बढ़कर 25.2 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 9.66 प्रतिशत से बढ़कर 10.6 प्रतिशत और गोवा में 5.25 प्रतिशत से बढ़कर 6.8 प्रतिशत हो गई। उल्लेखनीय यह भी है कि इस दशक (1991-2001) में मुसलमानों की दशकीय जनसंख्या वृद्धि दर सबसे ज्यादा दर्ज की गई है। सन् 1991 में मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर 34.5 प्रतिशत (पहली बार में जारी आंकड़ों के अनुसार) थी जो कि 2001 में बढ़कर 36 प्रतिशत हो गई। जबकि इसके उलट हिन्दुओं की वृद्धि दर 1991 के 25.1 प्रतिशत की तुलना में 2001 में घटकर 20.3 प्रतशित रह गई। जबकि दूसरी बार जारी आंकड़ों में, सन् 2001 के लिए मुसलमानों की वृद्धि दर 29.3 प्रतिशत और सन् 1991 में 32.9 दर्शायी गई।
इसी तरह, 1991 में हिन्दुओं की वृद्धि दर 22.8 प्रतिशत और 2001 में 20 प्रतिशत बताई गई। जहां पहले जारी किए गए आंकड़ों में मुसलमानों की वृद्धि दर हिन्दुओं से 15.7 प्रतिशत अधिक है वहीं दूसरी बार में भी मुसलमानों की वृद्धि दर हिन्दुओं के मुकाबले 9.3 प्रतिशत अधिक है। राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों से संबंधित आंकड़ों का गहन अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि देश के दूसरे मतालंबियों की तुलना में उनमें प्रजनन की दर अधिक है। 0-6 वर्ष की आयु वाले बच्चों (जो कि प्रजनन का संकेतक माना जाता है) के वर्ग पर नजर डालें तो पता चलेगा कि यहां भी मुसलमानों का प्रतिशत 18.7 है, जो कि हिन्दुओं के 15.6 प्रतिशत से कहीं अधिक है।
इस अस्वाभाविक वृद्धि का ही परिणाम है कि जम्मू-कश्मीर के अलावा बाकी देश के 20 जिलों में मुस्लिम मतावलंबियों की वृद्धि दर 50 प्रतिशत से अधिक हो गई है जबकि 1991 की जनगणना में ऐसे जिले 18 ही थे। मुस्लिम मतावलंबियों की 30 से 40 प्रतिशत वृद्धि दर वाले जिले भी 20 हैं जबकि उनकी 20 से 30 प्रतिशत वृद्धि दर देश के 34 जिलों में दर्ज की गई है।
सन् 2001 की जनगणना से यह मिथक भी टूटा है कि मात्र सीमावर्ती जिलों में ही, और वह भी मुख्यतरू अवैध घुसपैठ के कारण, मुस्लिम आबादी में बढ़ोत्तरी हो रही है। 2001 की जनगणना बताती है कि मध्य भारत में भी मुस्लिमों की जनसंख्या हिन्दुओं की अपेक्षा तीव्र गति से बढ़ रही है। इसके परिणामस्वरूप मध्य भारत के कई जिलों में मुस्लिम आबादी के चैंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। जैस, हिन्दुओं के प्रमुख धर्म क्षेत्र हरिद्वार में 33 प्रतिशत मुस्लिम आबादी हो गई है। उत्तर प्रदेश की कुल जनसंख्या में मुस्लिमों का प्रतिशत 18.49 हो गया है और प्रदेश में 21 जिले ऐसे हैं जिनमें मुसलमानों की जनसंख्या 20 से 40 प्रतिशत तक है। उत्तर प्रदेश में 15 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या वाले जिलों की संख्या 14 है। मुजफ्फरनगर, बिजनौर, मुरादाबाद, रामपुर, ज्योतिबा फुले नगर, मेरठ, बागपत, गाजियाबाद, बुलंदशहर, अलीगढ़, बदायूं, बरेली, पीलीभीत, खीरी, सीतापुर, लखनऊ, बाराबंकी, बहराइच, श्राबस्ती, बलरामपुर, संत कबीर नगर मऊ, सहारनपुर और सिद्धार्थनगर ऐसे जिले हैं जहां हिन्दू और मुस्लिम आबादी का जनसांख्यिकीय संतुलन तेजी से बिगड़ रहा है।
इसी तरह दूसरे प्रमुख हिन्दीभाषी राज्य बिहार में भी मुसलमानों की जनसंख्या में अस्वाभाविक वृद्धि दर्ज की गई है। सन् 2000 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार बिहार के आठ जिले-बेतिया, शिवहर, सीतामढ़ी, किशनगंज, पूर्णिया, कटिहार, सहरसा और दरभंगा ऐसे हैं जहां कुल जनसंख्या में मुसलमानों का प्रतिशत 30 से अधिक हो गया है। ध्यान रखने की बात यह है कि इसमें से कुछ जिले सीमावर्ती हैं जबकि 3 जिलों में मुसलमानों की आबादी 30 प्रतिशत के करीब पहुंच चुकी है।
उच्च मुस्लिम प्रभाव वाली पट्टीरू- अगर जनसंख्या के इन आंकड़ों को ध्यान से देखा जाए तो यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम तक पूर्वी सीमावर्ती पट्टी में मुसलमानों की जनसंख्या किस तीव्र गति से बढ़ी है। यह सीमावर्ती पट्टी पूर्वी उत्तर प्रदेश के बहराइच से शुरू होकर गोंडा, बस्ती, गोरखपुर और देवरिया जिलों से होती हुई बिहार के चम्पारण, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, सहरसा, पूर्णिया और संथाल-परगना जिलों, पश्चिम बंगाल के पश्चिमी दिनाजपुर, मालदा, बीरभूमि और मुर्शिदाबाद जिलों तथा असम के ग्वालपाड़ा, कामरूप, दर्रांग और नौगांव जिलों तक जाती है। देश के विभाजन के बाद इस पट्टी की कुल जनसंख्या में मुसलमानों का हिस्सा 7-8 प्रतिशत तक बढ़ा है और 1991 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या में उनका प्रतिशत 28 है। ऊपर गिनाए गए जिले 1971 की जनगणना के अविभाजित जिले हैं और बाद में इनका एकाधिक बार विभाजन हुआ है। इस तरह नए बने अपेक्षाकृत छोटे सीमावर्ती जिलों में मुस्लिम अनुपात और भी अधिक है।
इस पूर्वी-उत्तरी सीमावर्ती पट्टी के अलावा तीन और ऐसे क्षेत्र हैं जहां मुस्लिमों का अनुपात असामान्य रूप से अधिक है और तेजी से बढ़ रहा है। ऐसा ही एक क्षेत्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, हरिद्वार, मेरठ, बिजनौर, मुरादाबाद, रामपुर और बरेली जिलों को मिलाकर बनता है। इस क्षेत्र में 1991 की जनगणना के अनुसार मुसलमानों का अनुपात 36 प्रतिशत से अधिक है और 1951 से 1991 के चार दशकों के आंकड़े बताते हैं कि हिन्दू मतावलंबियों के औसत अनुपात में 4 प्रतिशत की कमी आई है।
सन् 1998 में असम के तत्कालीन राज्यपाल और अब जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) एस.के. सिन्हा ने असम में व्यापक स्तर पर हो रही बंगलादेशी घुसपैठ पर तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर.नारायणन को 42 पृष्ठ लम्बी एक विस्तृत रपट, जिससे उस समय खासी सनसनी पैदा हुई थी, भेजी थी। ले.जन. सिन्हा ने अपनी इस बहुचर्चित रपट में असम के निचले हिस्से में स्थित घुबरी और ग्वालपाड़ा जैसे जिलों में अवैध बंगलादेशियों के जनसांख्यिकीय आक्रमण के कारण भविष्य में इन जिलों के बंगलादेश में विलय करने की मांग उठने की आशंका प्रकट की थी।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूरदृष्टा सरसंघचालक पूज्य श्री गुरुजी ने बहुत पहले ही इस मानसिकता को उजागर किया था- ष्हमारे देश के सामरिक महत्व के भागों में अपनी जनसंख्या वृद्धि करना उनके आक्रमण का दूसरा मोर्चा है। कश्मीर के पश्चात् उनका दूसरा लक्ष्य असम है। योजनाबद्ध रीति से असम, त्रिपुरा और शेष बंगाल में बहुत दिनों से उनकी संख्या की बाढ़ आ रही है।’ (श्री गुरुजी समग्ररू खण्ड 11, पृष्ठ 190)
अंग्रेजी दैनिक ष्स्टेट्समैनष् के कोलकाता संस्करण में ष्कंट्री कजिन्सष् शीर्षक (18-19 अगस्त, 1999) वाले संपादकीय में इस बात का खुलासा किया गया है कि किस तरह वाममोर्चे ने कांग्रेस की सहायता से वोट बैंक बढ़ाने के लिए बंगलादेशियों की अवैध घुसपैठ को बढ़ावा दिया। इस वजह से राज्य में आईएसआई और कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों के पैर मजबूत हुए हैं और अब कैसे ये संगठन आतंकवादियों और विध्वंसकारियों को बढ़ावा दे रहे हैं।
लगभग 2 करोड़ बंगलादेशी मुसलमान अवैध रूप से भारत में घुसपैठ कर चुके हैं। इस अवैध घुसपैठ का ही नतीजा है कि असम के 23 में से 10 जिले मुस्लिमबहुल बन चुके हैं। पश्चिम बंगाल के सभी 9 सीमान्त जिलों में से दो-तीन को छोड़कर सभी जिले मुस्लिमबहुल हो चुके हैं। पश्चिम बंगाल की 56 विधानसभा सीटों पर मुसलमान निर्णायक स्थित में हैं। जनगणना, 2001 के अनुसार, पश्चिम बंगाल में मुसलमान कुल आबादी का 25.20 पर प्रतिशत हो गए हैं जबकि सन् 1951 में उनका प्रतिशत 19.46 था। सन् 1991-2001 में यहां मुसलमानों की वृद्धि दर 25.98 थी जबकि हिन्दुओं की मात्र 14.22। बंगलादेशी मुसलमानों की अवैध घुसपैठ के जरिए भारत के एक और विभाजन की मंशा पूरी तरह से जिहाद की इस्लामी अवधारणा के अनुरूप है, जो हिंसा और आक्रमण की बजाय जनसंख्या वृद्धि के माध्यम से अधिक सफल रहा है।
हालात इस कदर बिगड़ चुके हैं कि राष्ट्रपति डा.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने फरवरी, 2003 में संसद के बजट सत्र के दौरान अपने अविभाषण में बंगलादेश से होने वाली अवैध घुसपैठ की समस्या गंभीर होने और इससे कई राज्यों के प्रभावित होने की बात कही है। तत्कालीन उप प्रधानमंत्री और केन्द्रीय गृहमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी ने फरवरी, 2003 में भारत में करीब 2 करोड़ बंगलादेशी घुसपैठिए, जिसमें से आधे पश्चिम बंगाल में बसे हुए हैं, के होने की बात स्वीकार की थी।
नागालैण्ड, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में भी कुछ हजार बंगलादेशी मौजूद हैं। इस क्षेत्र में बंगलादेशियों की उपस्थिति से न केवल जनसांख्यिकीय संतुलन बिगड़ा है अपितु इसके राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दुष्परिणाम सामने आए हैं। इन राज्यों के अलावा देश की राजधानी दिल्ली भी मुस्लिम घुसपैठियों से अछूती नहीं है, जहां वे आतंरिक सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा बन चुके हैं।
इस समस्या की गंभीरता का खुलासा इस बात से भी होता है कि सितम्बर, 2004 के तीसरे सप्ताह में दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार को तीन सप्ताह के भीतर एक सर्वेक्षण करके राजधानी में अवैध रूप से रह रहे बंगलादेशियों की वास्तविक संख्या के बारे में सूचित करने का आदेश दिया। दिल्ली पुलिस के अनुमान के अनुसार, वर्तमान में राजधानी के यमुनापार इलाकों में हो रहे अपराधों के पीछे साठ फीसदी बंगलादेशियों का हाथ है। देश के पूर्वोत्तर सीमा के पार से हो रहे इस जनसंख्याकीय आक्रमण ने न केवल सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक सद्भाव को खतरे में डाल दिया है बल्कि इसके देश की सुरक्षा पर भी अत्यंत गंभीर परिणाम होंगे।
सन् 1900 में असम के पूर्वी बंगाल (जो कि बाद में पूर्वी पाकिस्तान बना) से धान उगाने वाले किसानों के रूप में आव्रजकों के प्रवाह ने असम की कुल जनसंख्या के स्वरूप को इस हद तक प्रभावित किया कि अगली जनसंख्या रपट में इस बात को रेखांकित किया गया। हालात यह है कि सन् 1901 में जहां प्रदेश में हिन्दुओं की जनसंख्या 84.55 प्रतिशत थी वह 1991 में घटकर 68.25 प्रतिशत हो गई है। इस दौरान बंगलादेश से होने वाली घुसपैठ के कारण मुसलमानों की जनसंख्या 15.03 प्रतिशत से बढ़कर 28.55 प्रतिशत हो गई है। याद रखना चाहिए कि इस घुसपैठ के कारण ही क्षेत्र और जनसंख्या के हिसाब से असम का सबसे बड़ा जिला सिलहट मुस्लिमबहुल बना और पूर्वी पाकिस्तान का हिस्सा बना। ऐसे में असम में 1951-71 के बीच मुसलमानों की जनसंख्या में 219 प्रतिशत की वृद्धि बहुत चिंताजनक संकेत है। ताजा जनगणना (2001) के अनुसार, असम में मुसलमान कुल आबादी का 30.09 प्रतिशत हो गए हैं जबकि सन् 1951 में उनका प्रतिशत 24.68 था।
इसी तरह पश्चिम बंगाल के सीमांत क्षेत्रों में मदरसों की संख्या में तीन सौ प्रतिशत की दर से बढ़ोत्तरी हुई है। सीमा सुरक्षा बल के अनुसार, अधिकतर नए मदरसों को कराची स्थित एक ट्रस्ट ने पैसा दिया है, जिसने विदेशी सहायता नियामक कानून के अनुरूप कानूनी प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया है। 1981-91 के दशक में पश्चिम बंगाल के छह जिलों-कूच बिहार, जलपाईगुड़ी, दार्जिलिंग, मिदनापुर, बांकुरा और चैबीस परगना में मुसलमानों की वृद्धि दर हिन्दुओं से दोगुना दर्ज की गई। सन् 2003 में गठित केन्द्रीय मंत्रियों के एक समूह ने अध्ययन में पाया गया था कि देश के बारह सीमांत प्रदेशों के 11,453 मदरसे चल रहे थे। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई.एस.आई. के हवाला के जरिए इन मदरसों को अवैध धन मुहैया कराने के कई मामले प्रकाश में आने की बात भी थी।
राजस्थान में भी भारत-पाकिस्तान सीमा पर बीकानेर, अनूपगढ़, सूरतगढ़ और श्रीगंगानगर सेक्टरों के संवेदनशील इलाकों में करीब पचास मदरसों और मजारों के अचानक तेजी से पनपने के कारण भारतीय सुरक्षा एजेंसियां सकते में है। पिछले वर्ष (2003) लिए गए एक आधिकारिक सर्वेक्षण से पता चला है कि राजस्थान के सीमांत इलाकों में मदरसों के बढ़ने से मजहबी पहचान के प्रति आग्रह बढ़ रहा है। गुजरात और पश्चिम बंगाल के सीमांत क्षेत्रों में भी यह बात सही साबित हो सकती है, वहां भी ऐसे ही सर्वेक्षण करवाए गए हैं। 1991 की जनगणना अनुसार राजस्थान के पश्चिम में पाकिस्तान के सीमा से सटे जैसलमेर में मुसलमानों की जनसंख्या का अनुपात प्रदेश में सर्वाधिक है। सन् 1951-91 के कालखंड में राजस्थान के पाकिस्तान के साथ सटे चार सीमांत जिलों को छोड़कर प्रदेश में मुसलमानों की जनसंख्या में 41.46 प्रतिशत की खासी वृद्धि हुई। इस दौरान, मुसलमानों की वृद्धि दर हिन्दुओं से 13.37 प्रतिशत और कुल जनंसख्या वृद्धि दर से 13.02 प्रतिशत अधिक रही। आश्चर्यजनक बात यह है कि प्रदेश की राजधानी जयपुर सहित राज्य के सत्रह जिलों में मुसलमानों की वृद्धि दर हिन्दुओं से कहीं अधिक थी।
दूसरी तरफ जहां पिछली जनगणना (1991) में ईसाइयों की वृद्धि दर 17 प्रतिशत थी वह 2001 में बढ़कर 22.1 प्रतिशत हो गई, यानी 5.1 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी। प्रादेशिक स्तर पर, खासकर देश के पूर्वोत्तर भाग में ईसाइयों की आबादी में वृद्धि अप्रत्याशित है। साफ तौर पर यह जनसंख्या स्वाभाविक रूप से न बढ़कर मतांतरण के माध्यम से बढ़ी है, जिसके पीछे चर्च की संगठित शक्ति है, जो कि हिन्दुओं के मतांतरण के लिए छल से लेकर बल तक-किसी भी उपाय के इस्तेमाल में कोताही नहीं बरतता है। सन् 1991 के आंकड़ों का सन् 2001 में प्रकाशित जनगणना के आंकड़ों से तुलनात्मक अध्ययन करने से एक चिंताजनक दृश्य नजर आता है। अरुणाचल प्रदेश की कुल आबादी में ईसाइयों का हिस्सा 10.29 प्रतिशत (1991) से बढ़कर 18.7 (2001) हो गया है। प्रदेश के परिदृश्य में बदलाव का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहां 1971 में प्रदेश के कुल 364 ईसाई थे वहीं आज उनकी जनसंख्या 2,05,548 हो गई है। इसी तरह मेघालय में 64.58 प्रतिशत से बढ़कर 70.3 प्रतिशत, मिजोरम में 85.73 प्रतिशत से बढ़कर 87 प्रतिशत, नागालैण्ड में 87.47 प्रतिशत से बढ़कर 90 प्रतिशत, त्रिपुरा में 1.69 प्रतिशत से बढ़कर 3.2 प्रतिशत ईसाई हो गए हैं। यहां तक कि उड़ीसा और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भी ईसाइयों की जनंसख्या बढ़ी है। जहां 1951 में उड़ीसा की कुल आबादी में ईसाइयों का प्रतिशत 0.97 था जो कि 1991 में 2.1 और 2001 से बढ़कर 2.4 प्रतिशत हो गया है।
मध्य प्रदेश में ईसाइयों की आबादी 1951 में 0.31 प्रतिशत से बढ़कर 1991 में 0.64 हो गई। जबकि 2001 के ताजा आंकड़ों के अनुसार, छत्तीसगढ़ में ईसाई कुल आबादी का 1.9 प्रतिशत हो चुके हैं। दूसरे शब्दों में इन राज्यों में ईसाइयों की जनसंख्या में लगभग दोगुनी से अधिक वृद्धि हुई है। अगर सरकार और समाज ने समय रहते मुसलमानों की उच्च प्रजनन दर, बंगलादेशी घुसपैठ और चर्च के मतांतरण अभियानों को रोकने के लिए प्रभावी उपाय न किए तो वह दिन दूर नहीं जब हिन्दू अपने ही देश में अल्पसंख्यक होकर रह जायेंगे।
(लेखक प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक है)