विभागीय जॉंच रूपी अभेद्य सुरक्षा कवच को भेदना होगा!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

इन दिनों देशभर में लोकपाल कानून को बनाये जाने और लोकपाल के दायरे में ऊपर से नीचे तक के सभी स्तर के लोक सेवकों को लाने की बात पर लगातार चर्चा एवं बहस हो रही है| सरकार निचले स्तर के लोक सेवकों को लोकपाल की जॉंच के दायरे से मुक्त रखना चाहती है, जबकि सिविल सोसायटी के प्रतिनिधि सभी लोक सेवकों को लोकपाल के दायरे में लाना चाहते हैं| ऐसे में लोक सेवकों को वर्तमान में दण्डित करने की व्यवस्था के बारे में भी विचार करने की जरूरत है| इस बात को आम लोगों को समझने की जरूरत है कि लोक सेवकों को अपराध करने पर सजा क्यों नहीं मिलती है|

लोक सेवकों को सजा नहीं मिलना और लोक अर्थात् आम लोगों को लगातार उत्पीड़ित होते रहना दो विरोधी और असंवैधानिक बातें हैं| नौकर मजे कर रहे हैं और नौकरों की मालिक आम जनता अत्याचार झेलने को विवश है| आम व्यक्ति से भूलवश जरा सी भी चूक हो जाये तो कानून के कथित रखवाले ऐसे व्यक्ति को हवालात एवं जेल के सींखचों में बन्द कर देते हैं| जबकि आम जनता की रक्षा करने के लिये तैनात और आम जनता के नौकर अर्थात् लोक सेवक यदि कानून की रक्षा करने के बजाय, स्वयं ही कानून का मखौल उड़ाते पकडे़ जायें तो भी उनके साथ कानूनी कठोरता बरतना तो दूर किसी भी प्रकार की दण्डिक कार्यवाही नहीं की जाती! आखिर क्यों? क्या केवल इसलिये कि लोक सेवक आम जनता नहीं है या लोक सेवक बनने के बाद वे भारत के नागरिक नहीं रह जाते हैं? अन्यथा क्या कारण हो सकता है कि भारत के संविधान के भाग-३, अनुच्छेद १४ में इस बात की सुस्पष्ट व्यवस्था के होते हुए कि कानून के समक्ष सभी लोगों को समान समझा जायेगा और सभी को कानून का समान संरक्षण भी प्राप्त होगा, भारत का दाण्डिक कानून लोक सेवकों के प्रति चुप्पी साध लेता है?

पिछले दिनों राजस्थान के कुछ आईएएस अफसरों ने सरकारी खजाने से अपने आवास की बिजली का बिल जमा करके सरकारी खजाने का न मात्र दुरुपयोग किया बल्कि सरकारी धन जो उनके पास अमनत के रूप में संरक्षित था उस अमानत की खयानत करके भारतीय दण्ड संहिता की धारा ४०९ के तहत वर्णित आपराधिक न्यासभंग का अपराध किया, लेकिन उनको गिरफ्तार करके जेल में डालना तो दूर अभी तक किसी के भी विरुद्ध एफआईआर तक दर्ज करवाने की जानकारी समाने नहीं आयी है| और ऐसे गम्भीर मामले में भी जॉंच की जा रही है, कह कर इस मामले को दबाया जा रहा है| हम देख सकते हैं कि जब कभी लोक सेवक घोर लापरवाही करते हुए और भ्रष्टाचार या नाइंसाफी करते हुए पाये जावें तो उनके विरुद्ध आम व्यक्ति की भांति कठोर कानूनी कार्यवाही होने के बजाय, विभागीय जॉंच की आड़ में दिखावे के लिये स्थानान्तरण या ज्यादा से ज्यादा निलम्बन की कार्यवाही ही की जाती है| यह सब जानते-समझते हुए भी आम जनता तथा जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि चुपचाप यह तमाशा देखते रहते हैं| जबकि कानून के अनुसार लोक सेवकों के विरुद्ध विभागीय कार्यवाही के साथ-साथ भारतीय आपराधिक कानूनों के तहत दौहरी दण्डात्मक कार्यवाही किये जाने की व्यवस्था है|

इस प्रकार की घटनाओं में पहली नजर में ही आईएएस अफसर उनके घरेलु बिजली उपभोग के बिलों का सरकारी खजाने से भुगतान करवाने में सहयोग करने वाल या चुप रहने वाले उनके साथी या उनके अधीनस्थ भी बराबर के अपराधी हैं| जिन्हें वर्तमान में जेल में ही होना चाहिये, लेकिन सभी मजे से सरकारी नौकरी कर रहे हैं| ऐसे में विचारणीय मसला यह है कि जब आईएएस अफसर ने कलेक्टर के पद पर रहेतु अपने दायित्वों के प्रति न मात्र लापरवाही बरती है, बल्कि घोर अपराध किया है तो एसे अपराधियों के विरुद्ध भारतीय दण्ड संहिता एवं भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम के तहत तत्काल सख्त कानूनी कार्यवाही क्यों नहीं की जा रही है? नीचे से ऊपर तक सभी लोक सेवकों के मामलों में ऐसी ही नीति लगातार जारी है| जिससे अपराधी लोक सेवकों के होंसले बुलन्द हैं!

इन हालातों में सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सरकारी सेवा में आने से कोई भी व्यक्ति महामानव बन जाता है? जिसे कानून का मखौल उड़ाने का और अपराध करने का ‘विभागीय जॉंच’ रूपी अभेद्य सुरक्षा कवच मिला हुआ है| जिसकी आड़ में वह कितना ही गम्भीर और बड़ा अपराध करके भी सजा से बच निकलता है| जरूरी है, इस असंवैधानिक और मनमानी व्यवस्था को जितना जल्दी सम्भव हो समाप्त किया जावे| इस स्थिति को सरकारी सेवा में मेवा लूटने वालों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता| क्योंकि सभी चोर-चोर मौसेरे भाई होते हैं, जो हमेशा अन्दर ही अन्दर एक-दूसरे को बचाने में जुटे रहते हैं| आम जनता को ही इस दिशा में कदम उठाने होंगे| इस दिशा में कदम उठाना मुश्किल जरूर है, लेकिन असम्भव नहीं है| क्योंकि विभागीय जॉंच कानून में भी इस बात की व्यवस्था है कि लोक सेवकों के विरुद्ध विभागीय कार्यवाही के साथ-साथ आपराधिक मुकदमे दायर कर आम व्यक्ति की तरह लोक सेवकों के विरुद्ध भी कानूनी कार्यवाही की जावे| जिसे व्यवहार में ताक पर उठा कर रख दिया गया लगता है|

अब समय आ गया है, जबकि इस प्रावधान को भी आम लोगों को ही क्रियान्वित कराना होगा| अभी तक पुलिस एवं प्रशासन कानून का डण्डा हाथ में लिये अपने पद एवं वर्दी का खौफ दिखाकर हम लोगों को डराता रहा है, लेकिन अब समय आ गया है, जबकि हम आम लोग कानून की ताकत अपने हाथ में लें और विभागीय जॉंच की आड़ में बच निकलने वालों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे दर्ज करावें| जिससे कि उन्हें भी आम जनता की भांति कारावास की तन्हा जिन्दगी का अनुभव प्राप्त करने का सुअवसर प्राप्त हो सके और जिससे आगे से लोक सेवक, आम व्यक्ति को उत्पीड़ित करने तथा कानून का मखौल उड़ाने से पूर्व दस बार सोचने को विवश हों|

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डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
मीणा-आदिवासी परिवार में जन्म। तीसरी कक्षा के बाद पढाई छूटी! बाद में नियमित पढाई केवल 04 वर्ष! जीवन के 07 वर्ष बाल-मजदूर एवं बाल-कृषक। निर्दोष होकर भी 04 वर्ष 02 माह 26 दिन 04 जेलों में गुजारे। जेल के दौरान-कई सौ पुस्तकों का अध्ययन, कविता लेखन किया एवं जेल में ही ग्रेज्युएशन डिग्री पूर्ण की! 20 वर्ष 09 माह 05 दिन रेलवे में मजदूरी करने के बाद स्वैच्छिक सेवानिवृति! हिन्दू धर्म, जाति, वर्ग, वर्ण, समाज, कानून, अर्थ व्यवस्था, आतंकवाद, नक्सलवाद, राजनीति, कानून, संविधान, स्वास्थ्य, मानव व्यवहार, मानव मनोविज्ञान, दाम्पत्य, आध्यात्म, दलित-आदिवासी-पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक उत्पीड़न सहित अनेकानेक विषयों पर सतत लेखन और चिन्तन! विश्लेषक, टिप्पणीकार, कवि, शायर और शोधार्थी! छोटे बच्चों, वंचित वर्गों और औरतों के शोषण, उत्पीड़न तथा अभावमय जीवन के विभिन्न पहलुओं पर अध्ययनरत! मुख्य संस्थापक तथा राष्ट्रीय अध्यक्ष-‘भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान’ (BAAS), राष्ट्रीय प्रमुख-हक रक्षक दल (HRD) सामाजिक संगठन, राष्ट्रीय अध्यक्ष-जर्नलिस्ट्स, मीडिया एंड रायटर्स एसोसिएशन (JMWA), पूर्व राष्ट्रीय महासचिव-अजा/जजा संगठनों का अ.भा. परिसंघ, पूर्व अध्यक्ष-अ.भा. भील-मीणा संघर्ष मोर्चा एवं पूर्व प्रकाशक तथा सम्पादक-प्रेसपालिका (हिन्दी पाक्षिक)।

5 COMMENTS

  1. मीना जी उपरोक्त लेख व गहन विश्लेषण .के लिए बधाई

  2. मैंने इस लेख को ज़रा देर से पढ़ा और उससे भी देर से इस पर टिप्पणी लिख रहा हूँ.डाक्टर निरंकुश के लेख और उसके बाद की व्यापक विश्लेषण के बाद कुछ कहने को रह भी नहीं जाता है.फिर मैं एक दो बातें कहना चाहूंगा.ऐसे ईमानदार पदाधिकारी या कर्मचारी को तलवार की धार पर चलना पड़ता है,क्योंकि न तो उसके इस ईमानदारी को उसके ऊपर वाले पसंद करते हैं न उसके मातहत.इस हालात में कहीं ईमानदारी के साथ अंहकार आ गया और नियमों का हवाला देकर वह पदाधिकारी अपने काम में ढिलाई करने लगा तबतो सचमुच उसकी खैर नहीं.मेरे एक मित्र जिनकी गिनती ईमानदारों में की जाती थी,ने एक बार मुझसे यह प्रश्न किया था की यार मैं ईमानदारों को हमेशा आगे लाना चाहता हूँ,पर एक तो उनकी संख्या यो हीं कम है और जो हैं भी वे काम को आगे बढाते हीं नहीं.ऐसी अवस्था में मैं क्या करूं.मैंने केवल यही कहाथा की अपने आचरण से ईमानदारी को प्रोत्साहन दीजिये.,आपके जो इने गिने ईमानदार कर्मचारी और पदाधिकारी हैं वे अपने खोल से बाहर आ जायेंगे.पता नहीं उन्होंने मेरी बात पर अमल किया या नहीं पर जब तक वे उस उच्च पद पर रहे,न केवल उनकी ,बल्कि उनके साथ जुड़े हुए लोगों की भी ईमानदारी की सराहना होती रही.
    ऐसे एक और बात मैं कहना चाहूंगा,जो कुछ हद तक मेरा निजी अनुभव है की अगर आप आम जनता या किसी अन्य से संपर्क में ईमानदारी बरतना चाहते हैं ,जैसा की डाक्टर निरंकुश ने जिक्र किया आपको अपने कार्य के प्रति न केवल ईमानदार होना पड़ेगा बल्कि अतिरिक्त कुशलता भी लानी पड़ेगी,फिर भी हो सकता है की आपके कार्य कुशलता का कोई प्रशंसक न मिले.सच पूछिए तो वर्तमान में यह राह काँटों भरी है,फिर भी अगर आप इसको कुशलता पूर्वक पार कर जाते हैं तो आपको एक ऐसी आंतरिक प्रसन्नता प्राप्त होगी जिसकी तुलना दूसरों द्वारा प्राप्त पदोन्नति से भी नहीं की जा सकती.सर उठा कर चलने की आदत से बुढ़ाते में कमर भी सीधी रहेगी शारीरिक और मानसिक व्याधियों का भी सामना शायद ही करना पड़े.ध्यान देने की बात केवल यही है की आपको अपनी ईमानदारी के लिए किसी भी हालात में पश्चाताप नहीं होना चाहिए.

  3. आदरणीय डॉ. साहब ने विभागीय जांच का बहुत अच्छा मुद्दा उठाया है.

    श्री अनिल गुप्ता जी ने बहुत अच्छा मुद्दा प्रश्न उठाया और डॉ. साहब ने सही सही लिखा है.

    किन्तु फिर भी यतार्थ में विभागीय जांच काफी हद्द तक दिखावटी होती होती है, पूर्व नियोजित-पूर्व निर्णित होती है, लगभग एक पक्षिये होती है.
    छोटी मोती गलती करना वाला तो फस जाता है किन्तु मोटी मछली कभी नहीं फसती है. बेदाग निकल जाती है.

    सामान्तया ऐसा होता है. कुछ एक अपवाद को छोड़ दिया जय तो ५० से ९० प्रतिशत तक यही होता है. हाँ सरकारी, ऑटोनोमोस, स्वयं सेवी, संसथान और संगठन से संगठन के अनुसार प्रतिशत में कमी बढ़ोतरी हो सकती है किन्तु औसत यही होता है.

    रही बात पारंपरिक कोर्ट कचहरी की तो आम आदमी आदमी के लिए केंसर से jyada badi bimari कोर्ट और पोलिसे का चक्कर है.

  4. श्री अनिल गुप्ता जी,

    सबसे पहले तो इस आलेख पर टिप्पणी लिखने के लिए आभार और धन्यवाद| अन्यथा कुछ पाठकों को तो इस प्रकार के विषय टिप्पणी करने के लिए उपयुक्त ही नहीं लगते, क्योंकि इस प्रकार के विषय शान्त समाज में वैमनस्यता फ़ैलाने में सहायक नहीं होते हैं| ऐसे में आपकी टिप्पणी न मात्र स्वागत योग्य और सराहनीय है, बल्कि मेरे लिये विचारणीय भी है|

    आपने महत्वपूर्ण सवाल उठाया है कि-‘‘लोकसेवकों को गुनाह करने पर सजा अवश्य मिलनी चाहिए. लेकिन अनेक बार ये देखा गया है की भ्रष्ट लोकसेवक साफ़ बच जाते हैं क्योंकि उनसे कोई नाराज़ नहीं होता जबकि ईमानदारी से काम करने वाले मारे जाते हैं क्योंकि ईमानदारी से काम करने के कारण अनेक लोग उनसे नाराज़ होकर फर्जी शिकायतें कर देते हैं और छोटी मोती तकनिकी कमियों का आधार लेकर उन्हें भरी सजा मिल जाती है. ऐसे मामलों में क्या होना चाहिए?’’

    श्री अनिल गुप्ता जी, आपकी बात सही है और व्यवहार में कुछ ईमानदार लोक सेवकों के साथ ऐसा होता भी है| लेकिन मैं स्वयं करीब इक्कीस वर्ष तक भारत सरकार की सेवा में लोक सेवक रहा हूँ और मुझे कभी इस समस्या का सामना नहीं करना पड़ा| इसका कारण ये भी रहा कि मेरा पब्लिक से सीधा डीलिंग नहीं था| लेकिन मैंने ऐसी शिकायतें करते हुए अनेक लोक सेवक देखें हैं, जो पूरी तरह से ईमानदार रहे हैं| मैं कोई ऑथोरिटी तो हूँ नहीं, लेकिन फिर भी अपने अनुभवों के आधार पर कुछ बातें इस बारे में सार्वजनिक करना चाहता हूँ :-
    -यह बात सही है कि कुछ लोक सेवक सच्चे और ईमानदार होते हैं, लेकिन उनमें से अनेक अपने कार्य के प्रति निष्ठावान नहीं होते और वे अपनी ईमानदारी को अपने अहंकार से जोड़ लेते हैं| इस कारण वे बाहरी और विभागीय लोगों में अप्रिय हो जाते हैं| ऐसे में यही माना जाता है कि ‘‘एक तो करेला और ऊपर से नीम चढ़ा!’’ अर्थात् ईमादार और अहंकारी ये दो बातें आज के भ्रष्ट और पददलित सरकारी महकमें में सम्भव नहीं| वैसे तो प्रत्येक लोक सेवक को ईमानदार एवं नम्र होना चाहिए, लेकिन ईमानदार लोक सेवक को अवश्य ही नम्र होना चाहिए, ये हर एक ईमानदार लोक सेवक के लिए बहुत जरूरी योग्यता है|
    -कुछ ईमानदार लोक सेवक ऐसे होते हैं, जो केवल अपनी ईमानदारी का ढोल पीटते रहते हैं और कुछ न कुछ बहाने बनाकर या नुक्ताचीनी करके काम को टालते रहते हैं| नियमों का हवाला देकर काम नहीं करते हैं|
    -कुछ ईमानदार लोक सेवक इस कारण से ईमानदार होते हैं क्योंकि वे रिश्वत चाहते तो हैं, लेकिन उन्हें कोई देता नहीं या उनमें रिश्वत लेने की हिम्मत या कूबत नहीं होती और इस कारण से वे जनता के काम करने के बजाय, जैसा कि आपने लिखा है, तकनीकी कारणों से बहाना बनाकर काम को टालते रहते हैं| ऐसे लोगों को हमेशा परेशानी झेलनी पड़ती हैं|
    -उपरोक्त के आलावा ये बात भी सही है कि आजकल भ्रष्ट लोक सेवकों की संख्या अधिक होने के कारण, नियमों के बहाने या तकनीकी कारणों से काम समय पर नहीं करने वाले लोक सेवकों को संदेह की नज़र से देखा जाता है और ऐसे लोक सेवकों की शिकायत भी कर दी जाती है| शिकायत मिलने पर अधिकतर भ्रष्ट हो चुके अफसर ऐसे ईमानदार जीवों के विरुद्ध तत्काल कठोर कार्यवाही करते हैं और ऐसे ईमानदार लोक सेवक को सजा मिलने की सम्भावना हमेशा बनी रहती है|
    शायद आपने यही पूछा है कि ऐसे में क्या किया जाये?
    मैं कोई विशेषज्ञ तो हूँ नहीं, लेकिन जो कुछ देखा, सुना, पढ़ा, अनुभव किया और आत्मसात किया है, उसके आधार पर अपने विचार बतला सकता हूँ :-
    १-एक महत्वपूर्ण बात ये है कि हमारे देश का इतिहास साक्षी है कि जिस काल को राम राज्य कहा जाता है, उसमें भी पतिव्रता सीता की अग्नी-परीक्षा ली गयी थी! अर्थात सच्चे और अच्छे लोगों को सदैव अपनी अच्छाई और सच्ची बातों को (जो आम तौर पर कड़वी होती हैं) सिद्ध करने में सक्षम और समर्थ होना चाहिए| आज के समय में चोर, चालक और भ्रष्ट लोगों के पास पद और धन की शक्ति होती है, जिसका वे उन लोगों के खिलाफ भी जमकर उपयोग करते हैं, जो उनके विधि विरुद्ध कार्यों में रोड़ा बनते हैं! चाहे ऐसे लोग विभागीय लोक सेवक हों या आम जनता या जनप्रतिनिधि! आज हर एक सरकारी संस्थान में ऐसे ही लोगों का कब्ज़ा है| जिसके कारणों पर विवेचना करने पर विषय लम्बा हो जायेगा|
    २-दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि आज की व्यवस्था में लोक सेवक का ईमानदार होना अपराध जैसा है और यदि लोक सेवक छोटे पद पर है और फिर भी वो ईमानदार है तो उसको हर दिन परीक्षा देनी पड़ती है| इसके उपरांत भी अनेक लोक सेवक आज भी ईमानदार हैं! मुझे भी कॉलेज के समय से ही सही, सच्ची और नियम संगत बात कहने की आदत रही है| जिसे सरकारी सेवा में (और यहॉं प्रवक्ता के पाठकों की नज़र में भी) बीमारी समझा जाता है| इसकी मैंने खूब कीमत चुकाई है| हमले सहे हैं, जेल की यात्रा भी करनी पड़ी हैं| लेकिन अंतत: अभी तक मैं जिन्दा हूँ और अपने परिवार की गाड़ी को संचालित कर रहा हूँ| मैंने तो ये सीखा है कि यदि निजी जीवन में या सरकारी सेवा में सच्चा और ईमानदार रहना है तो कुछ बातें अपने जीवन में अपनानी होंगी|
    जैसे एक ईमानदार और सच्चे लोक सेवक के लिये निम्न बातें महत्वपूर्ण हैं :-
    -हमेशा और हर हाल में बोलने और लिखने में संसदीय और कार्यालयी भाषा का ही उपयोग करें|
    -यदि ईश्वर में आस्था हो तो ईश्वर में पूर्ण आस्था रखें|
    -अपने कार्य में अधिकाधिक निपुणता हासिल करें|
    -अपनी बात निर्भीकता पूर्वक कहने में हिचकें नहीं|
    -अपने कार्य को केवल ईमानदारी से ही नहीं करें, बल्कि समय पर और श्रद्धापूर्वक पूर्वक भी करें|
    -यदि आपके दायित्व और अधिकार संहिताबद्ध नहीं हैं तो अपना पद संभालते ही अपने बॉस या विभागाध्यक्ष से अपने समस्त अधिकार और दायित्वों की स्पष्ट और पूर्ण जानकारी लिखित में प्राप्त करें| और उसका निष्ठापूर्वक निर्वाह करें|
    -जीवन में तनाव आते हैं और कई बार परिवार की कई अप्रिय स्थितियों के कारण मन अप्रसन्न या विषादमय रहता तो ऐसे समय में अपनी मनस्थिति का उल्लेख करते हुए अवकाश स्वीकृत करवा लें| जिससे ऐसे हालात में सरकारी काम में किसी प्रकार की गलती नहीं हो| इसके बावजूद भी जब भी आपसे जाने-अनजाने कोई गलती या भूल हो जाये तो उसके बारे में सभी कारणों तथा उन परिस्थितियों को दर्शाते हुए, जिनके कारण ऐसा हुआ अपने बॉस को लिखित में अवगत करा दें|
    -कभी भी किसी के दबाव या प्रभाव या बहकावे में आकर अपनी गलती को लिखित में स्वीकार नहीं करें|
    -अपने कार्य को कभी भी लंबित नहीं रहने दें| अन्यथा केवल ये ही वजह आपको नौकरी से बर्खास्त करने का कारण बन सकती है|
    -अधिकाधिक समय अपने कार्यस्थल पर बैठकर काम को निपटाने की आदत डालें| काम नहीं होने पर पुराने मामलों की फाइलों का अध्ययन करें| इससे आपका काम तो समय पर होता ही है| साथ ही साथ काम में पारंगतता भी स्वत: ही आती है|
    -ईमानदार लोक सेवकों को भ्रष्ट उच्च अधिकारी या वरिष्ठ साथी समान्यत: सही और कानून सम्मत परामर्श नहीं देते हैं| इसलिए यह बात याद रखनी चाहिये कि जो भी परामर्श या मार्गदर्शन किसी भी लोक सेवक को जब-जब भी जरूरी हो, उसके बारे में मार्गदर्शन देना या सिखाना या बतलाना प्रत्येक सम्बन्धित उच्च अधिकारी या वरिष्ठ साथी का कानूनी दायित्व होता है| जिसे वे टालते हैं| अत: जब भी किसी उच्च अधिकारी या वरिष्ठ साथी से परामर्श चाहिए तो ऐसा परामर्श पत्रावली पर लिखकर प्राप्त करें| ऐसे में वरिष्ठ अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते और कभी भी किसी के अस्पष्ट या समस्या पैदा कर सकने वाले मौखिक आदेशों तथा कानून विरुद्ध आदेशों का पालन नहीं करें| यदि जनहित में मौखिक आदेशों का पालन करना जरूरी हो तो कार्य पूर्ण करते ही तत्काल ऐसे मौखिक आदेशों को फ़ाइल पर लिखकर उनका सम्बन्धित अधिकारी से लिखित में अनुमोदन प्राप्त कर लें| अनुमोदन करने से इनकार करने पर एक स्तर उच्च अधिकारी को लिखित में अवगत करावें|
    -अपने से वरिष्ठ या अपने बॉस के कहने से फाईल पर गलत टिप्पणी (नोटिंग) कभी नहीं लिखें| जब तक मांगी न जाये या आपके दायित्वों में शामिल नहीं हो तब तक फाईल पर अपने बॉस को परामर्श नहीं दें|
    -अपने विभाग के नियमों की सामान्य नहीं, बल्कि पूर्ण जानकारी प्राप्त करें|
    -विभागीय नियम केवल प्रक्रियागत नियम होते हैं, जो कार्यसंचालन के लिये बनाये जाते हैं| जिनमें अनेक ऐसे नियम भी होते हैं, जो असंगत और मनमाने होते हैं| अत: ऐसे नियमों को अन्तिम सत्य कभी नहीं मानें| आप देश के संविधान और अदालती निर्णयों के बारे में भी कुछ जानकारी रखें| जिससे आपको ज्ञात हो सके कि प्रक्रियागत नियम कितने अधिकृत हैं! यह इसलिये भी जरूरी है कि हमारे देश में बहुत सारे कानून संविधान के प्रावधानों के विपरीत होने के कारण असंवैधानिक और विधि-विरुद्ध हैं| अनेक तो ऐसे नियम भी लागू किये जा रहे हैं, जिन्हें न्यायालयों द्वारा असंवैधानिक घोषित किया जा चुका है| ऐसे कानूनों का विधिक प्रभाव शून्य है|

    श्री अनिल जी मैं समझता हूँ कि आपको अपने सवाल का उत्तर मिल गया होगा| फिर भी अन्य पाठकों से भी अपेक्षा है कि वे भी इस बारे में प्रकाश डालें|
    शुभाकांक्षी
    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

  5. लोकसेवकों को गुनाह करने पर सजा अवश्य मिलनी चाहिए. लेकिन अनेक बार ये देखा गया है की भ्रष्ट लोकसेवक साफ़ बच जाते हैं क्योंकि उनसे कोई नाराज़ नहीं होता जबकि ईमानदारी से काम करने वाले मारे जाते हैं क्योंकि ईमानदारी से काम करने के कारण अनेक लोग उनसे नाराज़ होकर फर्जी शिकायतें कर देते हैं और छोटी मोती तकनिकी कमियों का आधार लेकर उन्हें भरी सजा मिल जाती है. ऐसे मामलों में क्या होना चाहिए?

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