Home साहित्‍य लेख भारत में भारतीय भाषाओं का विकास एवं सम्मान

भारत में भारतीय भाषाओं का विकास एवं सम्मान

                                                                                                       प्रो. महावीर सरन जैन राजतंत्र में, प्रशासन की भाषा वह होती है जिसका प्रयोग राजा, महाराजा और रानी, महारानी करते हैं लोकतंत्र में राजभाषा शासक और जनता के बीच संवाद का की माध्यम होती है। लोकतंत्र में, हमारे नेताचुनावों में जनता से जनता की भाषाओं में जनादेश प्राप्त करते हैं। वे भाषाएँ देश के प्रशासन की माध्यम होनी चाहिए एवं उनको लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं का माध्यम भी बनना चाहिए। भारत सरकार ने सिद्धांत  के धरातल पर बीसवीं  सदी के आठवें दशक में यह निर्णय ले लिया था कि जनतंत्र को सार्थक करने के लिए विभिन्न राज्यों में वहाँ की भाषा को तथा संघ के राजकार्य के लिए हिन्दी को बढ़ावा दियाजाना चाहिए।प्रशासकों को जनता के बीच काम करना है और जनता से संपर्क स्थापित करने के लिएउनकी भाषा का ज्ञान होना अनिवार्य है। भाषा का ज्ञान है अथवा नहीं –इसका पता किस प्रकार चलेगा।लोक सेवा आयोग परीक्षाओं का संचालन किस उद्देश्य से करता है। यह किस प्रकार पता चलेगा कि परीक्षार्थी को जनता की भाषाओं का समुचित ज्ञान है अथवा नहीं। जब सरकारी अधिकारी बनने की इच्छा रखने वाले परीक्षार्थी लोक सेवा आयोग की परीक्षाएँ जनता के लिए बोधगम्य भाषाओं के के माध्यम सेदेकर परीक्षा पास करेंगे तभी तो उनकी भाषिक दक्षता प्रमाणित होगी। उन भाषाओं के माध्यम से परीक्षापास करने वाले सक्षम अधिकारी ही तो उन भाषाओं के माध्यम से प्रशासन चला पाएँगे तथा जनता सेसंवाद स्थापित कर सकेंगे।

लेखक ने सन् 1984 से लेकर सन् 1988 तक यूरोप में एक यूनिवर्सिटी में, विज़िटिंग प्रोफेसर के रूप में कार्य किया। लेखक को यूरोपके 18 देशों में जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यूरोप के सभी उन्नत विश्वविद्यालयों में विदेशी भाषाओं के संकाय हैं। संकाय में लगभग40 विदेशी भाषाओं को पढ़ने और पढ़ाने की व्यवस्था होती है। विदेशी भाषा का ज्ञान रखना एक बात है, उसको जिंदगी में ओढ़ना अलगबात है। यूरोप के जिन 18 देशों की लेखक ने यात्राएँ कीं, उसने पाया कि 18 देशों में से 17 देशों का सरकारी कामकाज अंग्रेजी में नहींहोता था।

भारत में 29 राज्य हैं। हर राज्य का सरकारी कामकाज उस राज्य की राज्यभाषा में होना चाहिए। संघ की राजभाषा हिन्दी है। सहराजभाषा अंग्रेजी है। संघ के राजकाज में सह राजभाषा से अधिक महत्व मुख्य राजभाषा को मिलना चाहिए। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता बनाए रखने का मतलब क्या है। क्या परीक्षार्थी की अभिक्षमता(एपटीट्यूड) को नापने वाला प्रश्न पत्र मूलतः अंग्रेजी में ही बन सकता है। क्या भारत में ऐसे विद्वान नहीं हैं जो भारतीय भाषाओं में मूलप्रश्न पत्र का निर्माण कर सकें। मूल अंग्रेजी के प्रश्न पत्र का अनुवाद जटिल, कठिन एवं अबोधगम्य हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं मेंकराया जाना क्या जरूरी है। संघ लोक सेवा आयोग चाहता क्या है। क्या उसकी कामना यह है कि देश के प्रशासनिक पदों पर केवलअंग्रेजी जानने वाले ही पदस्थ होते रहें। परीक्षाओं में प्रश्न पत्र का निर्माण मूल रूप से भारतीय भाषाओं में होना चाहिए। वर्तमान स्थिति मेंबदलाव जरूरी है। इस साल की परीक्षा में, मूल अंग्रेजी के प्रश्न पत्र का जैसासा अनुवाद भारतीय भाषाओं में हुआ है – वह इस बात काप्रमाण है कि लोक सेवा आयोग भारतीय भाषाओं को लेकर कितना गम्भीर है। हमने प्रश्नपत्र  का हिन्दी अनुवाद टी. वी. चैनलों पर सुनाहै। हम कह सकते हैं कि हमारे लिए प्रश्न पत्र की हिन्दी बोधगम्य नहीं है। क्या लोक सेवा आयोग यह चाहता है कि जो अमीर परिवारअपने बच्चों को महँगे अंग्रेजी माध्यम के कॉन्वेन्ट स्कूलों में पढ़ाने की सामर्थ्य रखते हैं, केवल उन अमीर परिवारों के बच्चे ही आईएएसऔर आईएफएस होते रहें। समाज के निम्न वर्ग के तथा ग्रामीण भारत के करोड़ों करोड़ों किसान, मजदूर, कामगार परिवारों के बच्चे कभी भी सपना न देख सकें कि उनका बच्चा  भी कभी उन पदों पर आसीन हो सकता है।

भविष्य में, संसार में वे भाषाएँ ही टिक पाएँगी जो भाषिक प्रौद्योगिकी की दृष्टि से इतनी विकसित हो जायेंगी जिससे इन्टरनेट पर म करनेवाले प्रयोक्ताओं के लिए उन भाषाओं में उनके प्रयोजन की सामग्री सुलभ होगी। सूचना प्रौद्यौगिकी के संदर्भ में भारतीय भाषाओं की प्रगति एवं विकास के लिए, मैं एक बात की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित करनाचाहता हूँ। व्यापार, तकनीकी और चिकित्सा आदि क्षेत्रों की अधिकांश बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने माल की बिक्री के लिए सम्बंधितसॉफ्टवेयर ग्रीक, अरबी, चीनी सहित संसार की लगभग 30 से अधिक भाषाओं में बनाती हैं मगर वे हिन्दी, बांग्ला, तेलुगु, मराठी, तमिलजैसी भारतीय भाषाओं का पैक नहीं बनाती। मेरे अमेरिकी प्रवास में, कुछ प्रबंधकों ने मुझे इसका कारण यह बताया कि वे यह अनुभवकरते हैं कि हमारी कम्पनी को हिन्दी, बांग्ला, तेलुगु, मराठी, तमिल जैसी भारतीय भाषाओं के लिए भाषा पैक की जरूरत नहीं है। हमारेप्रतिनिधि भारतीय ग्राहकों से अंग्रेजी में आराम से बात कर लेते हैं अथवा हमारे भारतीय ग्राहक अंग्रेजी में ही बात करना पसंद करते हैं।उनकी यह बात सुनकर मुझे यह बोध हुआ कि अंग्रेजी के कारण भारतीय भाषाओं में वे भाषा पैक नहीं बन पा रहे हैं जो सहज रूप से बनजाते। हमने अंग्रेजी को इतना ओढ़ लिया है जिसके कारण न केवल हिन्दी का अपितु समस्त भारतीय भाषाओं का अपेक्षित विकास नहींहो पा रहा है। जो कम्पनी ग्रीक एवं अरबी में सॉफ्टवेयर बना रही हैं वे हिन्दी, बांग्ला, तेलुगु, मराठी, तमिल जैसी भारतीय भाषाओं मेंसॉफ्टवेयर इस कारण नहीं बनातीं क्योंकि उनके प्रबंधकों को पता है कि उनके भारतीय ग्राहक अंग्रेजी मोह से ग्रसित हैं। इस कारणहिन्दी, बांग्ला, तेलुगु, मराठी, तमिल जैसी भारतीय भाषाओं की भाषिक प्रौद्योगिकी पिछड़ रही है। इस मानसिकता में जिस गति सेबदलाव आएगा उसी गति से हमारी भारतीय भाषाओं की भाषिक प्रौद्योगिकी का भी विकास होगा। हिन्दी, बांग्ला, तेलुगु, मराठी, तमिलजैसी भारतीय भाषाओं की सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के लिए कम से कम विदेशी कम्पनियों से भारतीय भाषाओं में व्यवहार करने काविकल्प चुने। उनको अपने अंग्रेजी के प्रति मोह का तथा अपने अंग्रेजी के ज्ञान का बोध न कराए। जो प्रतिष्ठान भाषा का विकल्प चुनने का अवसर प्रदान करते हैं, 

कम से कम उसमें अपनी भारतीय भाषा का विकल्प चुने। आप अंग्रेजी में दक्षता प्राप्त करें – यह स्वागतयोग्य है। आप अंग्रेजी सीखकर, ज्ञानवान बने – यह भी ´वेल्कम’ है। मगर जीवन में अंग्रेजी को ओढ़ना बिछाना बंद कर दें। ऐसा करने सेआपकी भाषाएँ विकास की दौड़ में पिछड़ रही हैं। भारत में, भारतीय भाषाओं को सम्मान नहीं मिलेगा तो फिर कहाँ मिलेगा। इस परविचार कीजिए। चिंतन कीजिए। मनन कीजिए।

प्रो. महावीर सरन जैन 

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