सतीश सिंह
सच कहा जाए पर्यावरण को बचाना 21वीं सदी का सबसे ज्वलंत मुद्दा है। लेकिन विश्व के किसी देश का ध्यान इस ओर नहीं हैं। सभी देश विकास के नाम पर प्रकृति द्वारा प्रदत्त संसाधनों का अंधाधुंध दोहन कर रहे हैं। सिर्फ दिखावे के लिए हर देश खास करके विकसित देश ‘सेव पर्यावरण’ का नारा देते हुए कुछ सम्मेलन, बैठक, वार्ता इत्यादि करने का ढोंग एक निश्चित अंतराल पर करते रहते हैं। इस समस्या के बरक्स कभी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सच ही कहा था ‘प्रकृति हमारे जरुरतों को तो पूरा कर सकती है, परन्तु हमारे लालच को नहीं’। आज हमारी लालच के कारण ही हम ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से रुबरु हो रहे हैं। उत्तर भारत में कड़ाके की शीतलहरी का कारंवा बदस्तुर आगे बढ़ता जा रहा है। यूरोपीय और अमेरिकी देशों में बर्फबारी के कहर से जन-जीवन तहस-नहस हो गया है।
इस संदर्भ में भारत के रवैये को भी बहुत सकारात्मक नहीं कहा जा सकता है। वैसे कहने के लिए भारत में पर्यावरण मंत्रालय का गठन किया गया है, जिसका काम है पर्यावरण को हर खतरे से बचाना, लेकिन हकीकत में यह मंत्रालय अपने गठन के दिनों से ही रबर स्टांप की तरह काम कर रहा है।
श्री जयराम रमेश के पर्यावरण मंत्री बनने के बाद से यह मंत्रालय सुर्खियों में रहने लगा है। जयराम रमेश ने अपने हालिया बयान में कहा है कि अक्षरधाम मंदिर के निर्माण के लिए पर्यावरण मंत्रालय से अनुमति नहीं ली गई थी। श्री रमेश के इस ताजा शगूफा से भारत में पर्यावरण का मसला फिर से गरमा गया है।
उल्लेखनीय है कि अक्षरधाम मंदिर का निर्माण यमुना के तट पर लगभग 30 एकड़ जमीन पर सन् 2005 में राजग सरकार के कार्यकाल में तत्कालीन गृहमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी की अनुमति देने के बाद किया गया था।
अब पर्यावरण मंत्रालय नदी नियमन क्षेत्र संबंधी अधिसूचना जारी करने के संबंध में गंभीरतापूर्वक विचार कर रहा है। ताकि भविष्य में इस तरह के निर्माण से किसी भी नदी को कोई नुकसान न पहुँचे।
यहाँ पर यह सवाल उठता है कि किस बिना पर यमुना के किनारे राष्ट्रमंडल खेल के लिए खेलगाँव का निर्माण किया गया था और पर्यावरण मंत्रालय के द्वारा उसे निर्माण हेतु मंजूरी भी दी गई थी? इस मौजूं सवाल के जबाव में श्री जयराम रमेष का कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण खेलगाँव का निर्माण संभव हो सका था।
इतना तो तय है कि आज की तारीख में यमुना की हालत खराब है। दिल्ली में यमुना का जैसा स्वरुप है उसे नदी तो कदापि नहीं कह सकते हैं। क्या श्री जयराम रमेश यमुना के इस बदतर हालत के लिए मुख्यरुप से जिम्मेदार कॉरपोरेट घरानों के गिरेबान तक कभी पहुँच पाएंगे ? आज यमुना के अलावा भी देश के अनेक नदियाँ प्रदूषण के कारण या तो सूख चुकी हैं या उसका पानी किसी काम का नहीं रहा है। पवित्र पावन नदी गंगा की जो स्थिति कानपुर और पटना में है, वह निश्चित रुप से भयावह है।
बावजूद इसके आजकल कॉरपोरेट जगत में यह चर्चा जोरों पर है कि ‘होइहें वही जे, जयराम रचि राखा’। वॉल स्ट्रीट जनरल अखबार में प्रकाशित एक आलेख में आर्थिक विकास की राह में श्री रमेश को सबसे बड़ा रोड़ा बताया गया है। आलेख में उनपर तानाषाह की तरह काम करने वाला मंत्री कहा गया है।
हाल ही में श्री रमेश के झटकों से पॉस्को का प्रोजेक्ट, वेदांता की खनन परियोजना, नवी मुम्बई का हवाई अड्डा परियोजना, आंध्रप्रदेश तथा पूर्वोतर में नदियों पर बनने वाले बांध, लवासा प्रोजेक्ट तथा अन्यान्य इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं हिल-डूल रहे हैं।
हिन्दुस्तान कंस्ट्रक्षन कंपनी की सब्सिडियरी लवासा कॉरपोरेशन को नोटिस भेजने के मामले पर तो श्री शरद पवार ने सीधे तौर पर श्री रमेश के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। इसका मुख्य कारण लवासा प्रोजेक्ट में श्री शरद पवार की बेटी की हिस्सेदारी का होना है।
वैसे पूर्व में भी अनेकानेक मामलों में श्री शरद पवार ने कॉरपोरेट घरानों का खुलकर समर्थन किया है। श्री पवार का चीनी कारोबारियों की लॉबी के साथ प्रगाढ़ संबंध होने की बात भी जगजाहिर है।
ज्ञातव्य है कि भारत में पर्यावरण को अक्षुण्ण रखने के नाम पर आदिवासियों को एक अरसे से अंग्रेजों के जमाने में बने हुए भारतीय वन कानून के प्रावधानों के कारण उत्पीड़त किया जा रहा है। श्री रमेश चाहते हैं कि बजट सत्र में इस कानून के सबसे विवादित धारा 68 में संशोधन किया जाए। इस धारा के कारण आदिवासियों के खिलाफ जंगल जाने, वन संपदा लेने इत्यादि जैसे साधरण मामलों में भी आपराधिक मामला दर्ज किया जाता है।
वन अधिकार कानून पर बनी कमेटी ने हाल ही में अपनी रपट पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी है। इस रपट में कहा गया है कि अभी तक देश में कोई आदिवासी नीति नहीं है और न ही कोई ठोस पुनर्वास नीति। इसके कारण बडे पैमाने पर आदिवासियों और जंगल पर निर्भर रहने वाले अन्यान्य लोगों के अधिकारों का हनन हो रहा है।
एक तरफ तो श्री जयराम रमेश बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को पर्यावरण के नाम पर रोकने का नाटक कर रहे हैं तो दूसरी तरफ उघमियों को पर्यावरण मंजूरी के लिए मैनुअल फॉर्म भरने के लिए दफ्तर न जाना पड़े और साथ ही उनसे लंबी प्रतीक्षा भी न करवाया जाए, इसके लिए भरपूर जतन भी कर रहे हैं। उनका आदिवासी प्रेम भी महज एक दिखावा है। नवी मुम्बई के हवाई अड्डा परियोजना के मामले में शुरुआत में श्री रमेश ने जरुर अड़ंगा लगाया था, किन्तु कालांतर में प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह के हस्तक्षेप के बाद उक्त परियोजना को हरी झंडी दिखा दी गई थी।
श्री रमेश और यूपीए सरकार की इस दोहरी नीति से भले ही अनपढ़ और नासमझ लोग तात्कालिक रुप से खुश हो सकते हैं, परन्तु पढ़े-लिखे प्रबुद्व जन इस दिखावे के सच को अच्छी तरह से जानते हैं।
विकास या प्रयावरण संरक्षण या दोनों एक साथ?इन विकल्पों में से एक तो चुनना ही होगा.मैनेइस विषय पर अब तक जो भी पढ़ा है उसमे केवल समस्याएं उठाई गयी है.समाधान कही नहीं दिखाया गया है.जैराम रमेश क्या चाहते हैं या शरद पवार क्या चाहते हैं वह उतना प्रमुख मुद्दा नहीं है जितना यह की आम भारतीय क्या चाहता है?उसे तो शायद अभी यह भी नहीं मालुम है की आखिर यह मुद्दा है क्या?मेरे विचार से प्रयावरण संरक्षण के लिए आम भारतियों में जो जागरूकता होनी चाहिए वह कही नहीं दीखता.इस बारे में आम भारतीय कतई सजग नहीं है.प्रयावरण संरक्षण का नारा जब तक आम जनता का नारा नहीं होता तब तक यह पभावशाली हो ही नहीं सकता आवश्यकता है आम जनता को इस बारे में जागरूक करने की,उसको शिक्षित करने की .जबतक यह नहीं होगा हम प्रयावरण संरक्षण नहीं कर पाएंगे और न सर्वांगीण विकास ही हो पायेगा.