देवी की लीला

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anathashramपरसों मेरा एक मित्र रामपुर से आया। उसके पास जो अखबार था, उसमें ‘मां लीलावती निराश्रित कन्या आश्रम’ के ‘दीवाली मिलन’ का समाचार छपा था। उससे पता लगा कि इन दिनों आश्रम के अध्यक्ष मेरे मामाजी हैं।

 

मामाजी के इस आश्रम से जुड़ने की कहानी बड़ी रोचक है; पर इसके लिए हमें लगभग दस साल पीछे जाना होगा। मामाजी रामपुर में रहते हैं। उनके एकमात्र पुत्र का नाम रोहित है। समय की बात, विवाह के दस साल बाद तक रोहित के यहां कोई संतान नहीं हुई। गंडा, ताबीज से लेकर मंदिर और मजारों तक में मन्नतें मानी गयीं। कई तरह के इलाज भी किये गये; पर सफलता नहीं मिली। ऐसी परिस्थिति बहुतों के साथ होती है। ऐसे में लोग अपने किसी रिश्तेदार के लड़के को गोद ले लेते हैं। रोहित के सामने भी ये विकल्प थे; पर उसकी पत्नी सुनीता इसके लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं थी।

 

दिल्ली से लखनऊ जाते समय रास्ते में मुरादाबाद और रामपुर पड़ते हैं। रामपुर में कुछ समाजसेवी लोग अनाथ बच्चियों का एक आश्रम चलाते हैं। कई साल पहले एक निसंतान सज्जन श्री भोलानाथ जी ने पास के एक गांव में अपनी पांच बीघे जमीन अनाथ बच्चियों की सेवा के लिए दी थी। उन्होंने अपनी स्वर्गीय मां के नाम से एक न्यास बनाकर उसमें अपने भाई-भतीजों के साथ ही शहर के कई प्रतिष्ठित लोगों को जोड़ा था। दुर्भाग्यवश यह भला काम करने के साल भर बाद ही उनका निधन हो गया। न्यास के सदस्यों ने उनकी इच्छा का सम्मान करते हुए उस वहां ‘मां लीलावती निराश्रित कन्या आश्रम’ की स्थापना कर दी।

 

पांच बीघे जगह कम नहीं होती। अतः प्रबन्ध समिति ने वहां एक बालिका विद्यालय भी खोल दिया। उसमें आश्रम की लड़कियों के साथ ही पड़ोसी गांवों की लड़कियां भी पढ़ने लगीं। बाकी जगह में खेती होने लगी। जिस समय का यह प्रसंग है, उन दिनों आश्रम में 20 लड़कियां थीं। सबके भोजन, आवास, पढ़ाई और संस्कारों की अच्छी व्यवस्था वहां थी।

 

आप सोचेंगे कि आश्रम में लड़कियां आती कहां से हैं ? तो मुरादाबाद एक बड़ा शहर है। कई लड़कियां तो वहां बस अड्डे और रेलवे स्टेशन पर भटकती हुई मिल जाती हैं। पुलिस वाले उन्हें इस आश्रम में ले आते हैं। कुछ लड़कियां स्थानीय भिखारियों की भी हैं, जिन्हें उनके माता-पिता ने यहां भर्ती कराया है। कुछ लड़कियां अवैध संतान के रूप में संसार में आती हैं। यद्यपि कई लोग कहते हैं कि अवैध तो सम्बन्ध होते हैं, संतान नहीं। ये बच्चे भी बाकी सबकी तरह भगवान का ही रूप हैं। ऐसी कई लड़कियां भी वहां हैं।

 

आश्रम वालों ने बरेली, रामपुर और मुरादाबाद के कुछ बड़े मंदिरों में पालने लगा रखे हैं। कई अविवाहित माताएं लोकलाज के भय से अपने नवजात शिशु को इनमें छोड़ जाती हैं। पालने में यदि कन्या है, तो उसे यहां भेज दिया जाता है। यदि लड़का है, तो ऐसा ही एक आश्रम बरेली में है, उसे वहां भेज देते हैं। जिला प्रशासन की सहमति से कई बालिकाओं को निसंतान दम्पतियों ने गोद भी लिया है।

 

रामपुर वाले आश्रम में हर होली और दीवाली पर बड़े कार्यक्रम होते हैं। उसमें सम्पन्न तथा प्रभावी लोगों को मुख्य अतिथि तथा अध्यक्ष बनाते हैं। ये लोग वहां आकर संस्था को अच्छा दान भी देते हैं। कार्यक्रम में आसपास के हजारों लोग भी आते हैं। वे भी आश्रम के लिए यथाशक्ति नकद या राशन देते हैं। इस प्रकार आश्रम चल रहा है।

 

पर दस साल पहले ऐसा नहीं था। उस समय वहां छह कमरों की नींव और दीवारें तो बन गयी थीं; पर छत के नाम पर टीन की चादरें ही थीं। चार कमरों में लड़कियां और एक में उनकी संरक्षक मौसी मां रहती थीं। एक कमरे में रसोई थी। खेती की देखभाल के लिए दो पुरुष कर्मचारी तथा एक चौकीदार भी था। उनके लिए दो कमरे अलग से बने थे।

 

पर अब समिति वाले आश्रम का विस्तार करना चाहते थे। क्योंकि हर साल दो-तीन नयी लड़कियां आ जाती थीं। अतः वे इन कमरों पर लिंटर डालकर उनके ऊपर छह कमरे और बनाना चाहते थे। उसका बजट बनाया, तो लगभग दस लाख का खर्चा आ रहा था। आश्रम के लिए एक गाड़ी की भी जरूरत थी। हर दिन किसी न किसी काम से रामपुर या मुरादाबाद भागना पड़ता था। आश्रम सड़क से थोड़ा हटकर है। अतः शाम के बाद वाहन नहीं मिलते। एक बार एक लड़की रात में अचानक बीमार हो गयी। ऐसे में बड़ी मुश्किल से उसे अस्पताल में भर्ती कराया जा सका।

 

आश्रम में जो विद्यालय चल रहा था, उसमें भी हर साल एक कक्षा बढ़ जाती थी। एक कक्षा का अर्थ है एक कमरा। सब चाहते थे कि पानी के लिए भी अपना बोरिंग हो। क्योंकि नगरपालिका की सीमा में न होने से सरकारी पानी वहां नहीं आता था। गाड़ी के लिए दो लाख और बोरिंग के लिए भी 50 हजार रु. की जरूरत थी। इसलिए आश्रम वाले इस बार दीवाली मिलन में किसी ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष बनाना चाहते थे, जो उन्हें मोटी रकम दान दे सके।

 

लीजिये, इस चर्चा में अपने मामाजी के बारे में बताना तो मैं भूल ही गया। उनका रामपुर के सिविल लाइन्स में ‘नंदा स्टोर्स’ के नाम से टी.वी. तथा अन्य इलैक्ट्रोनिक सामान बेचने का बड़ा कारोबार है। यद्यपि यह स्थिति 30-35 साल पहले नहीं थी। उस समय हमारे नानाजी की छोटी सी दुकान थी, जिसमें वे बिजली के सामान की बिक्री तथा मरम्मत करते थे। नानाजी के कई ठेकेदारों और मिस्त्रियों से सम्बन्ध थे। अतः बिजली फिटिंग और मरम्मत का पर्याप्त काम उन्हें मिल जाता था। नानाजी के जीवन में सादगी थी। अतः कम खर्चे में ही वे संतोषपूर्वक परिवार का पालन कर रहे थे।

 

लेकिन 1980 के बाद दूरदर्शन सेवा का विस्तार हुआ। 1982 में दिल्ली में हुए एशियाड खेलों का प्रसारण देश भर में किया गया। पैसे वालों ने रंगीन टी.वी. खरीदे, तो बाकी लोगों ने ब्लैक एंड वाइट। मनोरंजन के नाम पर उन दिनों रविवार की शाम को पिक्चर आती थी और बुधवार को चित्रहार। इन्हें देखने टी.वी. वाले घर में पूरा मोहल्ला उमड़ पड़ता था। उन दिनों जिसके घर में टी.वी. होता था, वह अपने आप को कुछ बड़ा समझता ही था। लगभग इसी समय मामाजी ने भी पढ़ाई पूरी कर कारोबार में प्रवेश किया। वे देश-विदेश की पत्रिकाएं खूब पढ़ते थे। इससे उन्हें यह बात समझ में आयी कि अब भारत में टी.वी. के दिन आ रहे हैं। अतः इस कारोबार में खूब लाभ होगा।

 

उन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश सरकार के सहयोग से रामपुर में अपट्रॉन टी.वी. की फैक्ट्री स्थापित हुई थी। उसके प्रबन्धक अपने रेडियो और फ्रिज आदि की मरम्मत नंदा स्टोर्स पर ही कराते थे। उन्होंने नानाजी से आग्रह किया कि आपके पास रेडियो का काम तो है ही, आप टी.वी. की एजेंसी भी ले लें। बुजुर्ग नानाजी तो कुछ संकोच कर रहे थे; पर नौजवान मामाजी उत्साह से भरे थे। उन्होंने हिम्मत करके रामपुर, मुरादाबाद और बरेली जिलों के लिए अपट्रॉन टी.वी. की एजेंसी ले ली।

 

बस फिर क्या था; पांच साल में ही उनका कारोबार लाखों रु. तक पहुंच गया। हर दिन 10-12 टी.वी. तो उनकी दुकान से ही बिक जाते थे। हर महीने एक ट्रक माल मुरादाबाद और बरेली चला जाता था। उन दिनों लड़के वाले दहेज में टी.वी. जरूर मांगते थे। अतः विवाह तय होते ही लड़की वाले टी.वी. के लिए एडवांस जमा करा जाते थे। सबसे अधिक माल इन्हीं दिनों में बिकता था।

 

रामपुर नगर दिल्ली-लखनऊ मुख्य मार्ग पर स्थित है। कुमाऊं के नैनीताल, हल्द्वानी, रुद्रपुर, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ आदि पहाड़ी नगरों के लिए वहीं से होकर ट्रक और बस आदि जाते हैं। टी.वी. का प्रचार होने पर वहां से भी लोग उनके पास आने लगे। एक बार मामाजी एक छोटे ट्रक में पचास टी.वी. लेकर इन सब शहरों में गये। इस दौरे में सारे टी.वी. तो बिके ही, कई दुकानदार उनके डीलर भी बन गये। उनकी इस सूझबूझ से खुश होकर फैक्ट्री वालों ने उन्हें पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मुख्य एजेंट बना दिया। फिर तो मानो पैसे की बरसात ही होने लगी।

 

इस दौरान मामाजी और उनकी सब बहिनों के विवाह हो गये। उन्होंने सिविल लाइन्स में ही ‘अपट्रॉन हाउस’ के नाम से शानदार घर बना लिया। आगे चलकर कारोबार का और विस्तार हुआ। आज तो हर तरह का इलैक्ट्रोनिक सामान उनकी दुकान पर बिकता है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इतनी जल्दी पैसा आने के बाद उनका मन भी क्रमशः बड़ा होता गया और सामाजिक संस्थाओं को वे भरपूर सहयोग देने लगे।

 

तो इस बार आश्रम वालों ने मामाजी से ‘दीवाली मिलन’ में अध्यक्षता का आग्रह किया। मामा जी ने उनका प्रस्ताव मान लिया। निर्धारित तिथि पर दीवाली मिलन बड़े उत्साह से सम्पन्न हुआ। सबसे पहले आश्रम के संस्थापक श्री भोलानाथ और उनकी मां श्रीमती लीलावती के चित्र पर माल्यार्पण किया गया। फिर आश्रम की लड़कियों ने सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किये। एक लड़की द्वारा प्रस्तुत भावपूर्ण कविता ‘काश मेरी भी मां होती..’ ने सबको आंखें पोंछने पर मजबूर कर दिया। इसके बाद प्रबन्धक महोदय ने वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत की। फिर उन्होंने कार्यक्रम के अध्यक्ष यानि मामाजी को मंच पर आमन्त्रित किया।

 

कार्यक्रम में मामाजी पूरे परिवार के साथ आये थे। नानीजी का तो निधन हो चुका था; पर बाकी सब लोग यानि मामाजी, रोहित और सुनीता के साथ बुजुर्ग नानाजी भी वहां उपस्थित थे। मामाजी ने कार्यक्रम और प्रबन्ध समिति के सेवाभाव की प्रशंसा की। इसके बाद उन्होंने कहा कि मेरी पूज्य माताजी का पिछले साल निधन हुआ है। मेरे पिताजी उनकी स्मृति में नये कमरों के निर्माण के लिए दस लाख रु. देने की घोषणा करते हैं।

 

फिर क्या था; पूरा सभागार तालियों से गूंज उठा। मामाजी ने मंच से उतरकर अपने पिताजी के हाथ में एक लिफाफा दिया। उसमें दस लाख रु. का चैक था। आश्रम के अध्यक्ष और प्रबन्धक ने नानाजी के पैर छूकर वह लिफाफा प्राप्त किया। अपने बुजुर्गों का सम्मान कैसे किया जाता है, इसका उदाहरण मामाजी ने प्रस्तुत किया था। किसी ने ठीक ही कहा है कि पैसा तो युवा पीढ़ी कमाती है; पर संस्कारवान लोग उसे बड़ों का आशीर्वाद मानते हैं। मामाजी ने अपने आचरण से सिद्ध कर दिया कि उनके माता-पिता ने उन्हें कितने श्रेष्ठ संस्कार दिये हैं।

 

समारोह के अंत में आश्रम के अध्यक्ष जी ने मंच पर आकर मामाजी तथा अन्य सभी दानदाताओं को धन्यवाद दिया। उन्होंने यह भी बताया कि पिछले हफ्ते ही हमारे परिवार में एक नये सदस्य का आगमन हुआ है। मुरादाबाद के सनातन धर्म मंदिर के पालने में कोई इस बच्ची को छोड़ गया था। अब यह हमारे पास है।

 

उनके संकेत पर आश्रम की मौसी मां उसे लेकर आयीं। वह लगभग एक महीने की रही होगी। वह बार-बार अपने नन्हें हाथ और पैर हिला रही थी, मानो सब लोगों का अभिनंदन कर रही हो; लेकिन उसकी भोली आंखें यह प्रश्न भी पूछ रही थीं कि आखिर मेरा क्या अपराध है; मुझे मां की गोद से अलग क्यों होना पड़ा ?

 

घर आकर सुनीता का मन किसी काम में नहीं लगा। सबने सोचा कि शायद उसकी तबियत ठीक नहीं है; पर उसका मन तो किसी और दिशा में दौड़ रहा था। वह बार-बार सोच रही थी कि दोषी कौन है, वह बच्ची या उसकी मां ? या फिर समय ही अपराधी है, जिसने उस फूल से बच्ची से मां की गोद छीन ली ?

 

असल में मामाजी और रोहित तो पहले भी कई बार इस आश्रम के कार्यक्रम में आ चुके थे; पर सुनीता के लिए यह पहला ही मौका था। आश्रम की एक लड़की द्वारा प्रस्तुत ‘काश मेरी भी मां होती’ नामक कविता और अंत में मंच पर लायी गयी अनाथ बच्ची ने उसे झकझोर दिया। उसने रोहित से कहा कि क्यों न उसके पालन-पोषण का पूरा खर्च हम उठा लें। इस पर रोहित ने एक कदम आगे बढ़ते हुए कहा कि यदि तुम्हारे मन में उसके प्रति प्यार है, तो हम उसे बेटी की तरह पाल सकते हैं। सुनीता ने कुछ असमंजस के बाद स्वीकृति दे दी।

 

अगले दिन घर में चर्चा हुई। मामाजी और मामीजी इससे बहुत खुश हुए। वे तो कबसे चाहते थे कि सुनीता किसी बच्चे को गोद ले ले; लेकिन वह राजी ही नहीं होती थी। मामाजी ने अगले ही दिन आश्रम के प्रबन्धक जी से बात की। उन्हें इसमें भला क्या आपत्ति हो सकती थी ? दो-तीन दिन में कानूनी औपचारिकताएं पूरी होकर वह बच्ची ‘अपट्रॉन हाउस’ की रौनक बन गयी। महीने भर बाद विधि-विधान से उसका नामकरण संस्कार हुआ। पंडित जी ने उसका नाम ‘नीलम’ रखा; लेकिन लीलावती आश्रम से आने के कारण मामाजी और मामीजी उसे ‘लीला’ कहते थे।

 

दुनिया में तरह-तरह के चमत्कारों की बातें सुनी जाती हैं। कुछ लोग इन्हें सच कहते हैं, तो कुछ झूठ; पर नीलम के उस घर में आने के छह महीने बाद जो चमत्कार हुआ, उसे तो कोई झुठला ही नहीं सकता था।

 

एक दिन सुनीता ने रोहित और अपनी सासु मां को बताया कि उसे गर्भ ठहर गया है और वह सचमुच मां बनने वाली है। बस फिर क्या था; पूरे घर में आनंद की लहर दौड़ गयी। सबसे अधिक खुश मामीजी थीं। एक महिला के लिए मां बनने का महत्व क्या होता है, यह उनसे अधिक कौन समझ सकता था ? उन दिनों नवरात्र चल रहे थे। उन्हें विश्वास हो गया कि उनके घर आयी नीलम कोई साधारण लड़की नहीं, बल्कि साक्षात देवी है। उसने अपनी लीला दिखाने के लिए हमारा घर चुना, यह उसकी कृपा है, वरना वे तो हर उपाय आजमा कर निराश हो चुके थे। इसके बाद पूरे नवरात्र में उन्होंने नीलम की भी विधिवत पूजा की।

 

इस बीच सुनीता प्रगति करती रही और फिर एक दिन उसकी गोद में एक सुंदर बालक आ गया। मामीजी की धारणा एक बार फिर पक्की हो गयी कि नीलम देवी है और उसके आशीष से ही घर में बेटा आया है। इसलिए उन्होंने उसका नाम ‘आशीष’ ही रख दिया।

 

इसके बाद की कहानी बस इतनी ही है कि मामाजी का रुझान अब आश्रम की तरफ बढ़ने लगा। यह देखकर प्रबन्ध समिति ने सर्वसम्मति से उन्हें ही अध्यक्ष चुन लिया। उनके प्रभाव से चंदा भी भरपूर मिलने लगा। इससे आश्रम हर तरह से सुविधा सम्पन्न हो गया।

 

इस समय आश्रम में लगभग सौ लड़कियां हैं। विद्यालय भी कक्षा बारह तक हो गया है। कई लड़कियों का विवाह हो चुका है। रोहित को तो कारोबार से फुर्सत नहीं मिलती, पर सुनीता दोनों बच्चों के साथ हर रविवार को वहां आती है। आश्रम का सबसे बड़ा उपकार वह अपने ऊपर ही मानती है। क्योंकि ‘देवी की लीला’ का सर्वाधिक सुखद ‘आशीष’ तो उसे ही मिला था।

– विजय कुमार

1 COMMENT

  1. काश सच में ऐसा हो जाये तो यह समाज कितना सुन्दर गुलदस्ता बन जाये …….

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