व्यंग्य

धनंजय के तीर/ ……..और अब लेखक लैंड??

writerमहीने बाद सरकारी टूअर के बहाने मस्ती मारकर घर में कदम रखा भर ही था कि पत्नी ने सांस लेने से पहले ही खबर तमाचे की तरह गाल पर दे मारी, ‘सुनो जी!’

‘क्या है??’ ये कम्बखत घर है ही ऐसी बला कि घर में कदम बाद में पड़ते हैं पत्नी समस्या उससे पहले तमाचे की मानिंद गाल पर दे मारती है और तब घर जबरदस्ती आने का बचा खुचा मजा भी किरकिरा हो जाता है। मैंने अपने साहब को कोसते हुए मन ही मन कहा कि काश वह चार दिन और टूअर बढ़ा देता तो उसका क्या जाता? मुझे तो कम से कम चार दिन और षांति मिलती।

‘वे अपने मुहल्ले के लेखक था न!’ कह उसने आधी मुस्कराहट के साथ मेरा अधभुना स्वागत किया। बुढ़ियाते संबंधों का स्वागत करने की भी एक सीमा होती है साहब!

‘क्या हो गया उसे?? मर गया क्या??’ जिसके होने न होने का कोई मतलब शेष न रह गया हो उसे जीने के लिए संघर्ष करना बेकार होता है। क्या मिल गया उसे लेखक होकर? किसने समझा उसके लेखन को?? जब किसीको अपनी ताजी टटकी रचना सुनाने की डरते हुए कोशिश करता भी है तो लोग उसे धमका कर परे कर देते हैं। पर है वह भी पूरा हठी। कहता है पक्के घड़ों में बिल लगा कर ही छोड़ेगा।

‘भूख हड़ताल किए बैठा है पंद्रह दिनों से!’

‘क्यों??’

‘ये तो पता नही।’ पत्नी ने कहा तो हंसी भी आई। लगा या तो अपने मुहल्ले का लेखक पागल हो गया है या फिर वह लेखकी छोड़ राजनीति में जाने की फिराक में है। अच्छी बात है। राजनीति में तो आजकल लोग मजे से चांदी काट रहे हैं साहब! दस दिन राजनीति में रहते हैं तो दस पुश्‍तों को टांगें पसार कर खाने का जोड़ देते हैं। लेखक को लगता है अक्कल आ गई।

‘लेखक की हालत नाजुक हो गई है। चाय पीकर उसे समझा आओ। और तो सभी समझाकर थक गए, हो सकता है आपकी बात मान जाए।’ मुझे पत्नी के मुंह पर यह सुन बड़ी हंसी आई। यार! जिसके कहे को घर में ही कोई नहीं समझता, वह दबंग लेखक उसकी क्या खाक सुनेगा? पर चुप रहा। जब अपने आप पर हंस कर थक गया तो मैंने कहा, ‘उसे पहले भी कौन सी रोटी मिल रही थी? सोच रहा होगा ऐसा करके शहीदों में उसका नाम दर्ज हो जाएगा।’

‘देख आइए उसे नहीं तो खामखाह एक छुट्टी खराब होगी।’ छुट्टी खराब होने की बात पत्नी ने कही तो मैंने चाय खत्म की और वहां जा पहुंचा जहां पर लेखक दरी बिछाकर आमरण अनशन किए लेटा था। उसने आजू बाजू में उसने दो चार गत्तों पर अपनी मांगें चिपकाई हुई थी। एक ओर प्लास्टिक की बोतल में पानी धरा था। सामने कुत्ते लेटे हुए थे, उसी की तरह उदास। अगर आप भी देश के बारे में गलती से कुछ सोचना चाहते हों तो बंद कर दीजिए साहब! यहां कोई सुनने वाला नहीं। केवल अपने बारे में सोचिए। दीर्घायु के हकदार हो सकते हैं मेरी तरह। उसने मुझे अपनी ओर आते देखा तो उसकी आंखों में एकाएक चमक आ गई जैसे मैं उसके मुहल्ले का न होकर सरकार की ओर से उसे जूस पिलाने के लिए भेजा गया बंदा होऊं। उसने वैसे ही दरी पर लेटे लेटे करवट बदली तो मैंने उससे संवेदनहीन हो पूछा, ‘यार! ये क्या कर रहे हो, पहले ही देश में अनशन करने वालों की कमी है जो एक तुम भी… कोई देश में सच को खत्म करने के लिए आमरण अनशन किए बैठा है तो कोई देश को खंड खंड करने के लिए आमरण अनशन किए बैठा है। कोई देश से देशभक्ति को खत्म करने के लिए अनशन किए बैठा है तो कोई देश से सांप्रदायिक सद्भाव को खत्म करने के लिए दरी बिछाए बैठा है। एक लेखक होने के नाते तुम भी अनशन पर…. उठो और भूखे पेट फड़कती हुई समाज को जगाने वाली रचनाएं देश को दो।’कह मैंने उसे दरी पर से उठाने की कोषिश की तो वह फटी दरी से पहले से भी अधिक चिपक जोश में बोला, ‘देखो साहब! अब हमने आमरण अनशन कर दिया तो कर दिया। अब तो जब तक हमारी मांग नहीं मानी जाती तब तक हम उठने वाले नहीं।’

‘तो क्या मांग है यार तुम्हारी? दो वक्त की रोटी ही न? चलो मेरे घर आकर खा लिया करना।

बस! कि कुछ और भी?’

‘हमें भी तेलंगाना की तर्ज पर लेखक लैंड चाहिए। हरित प्रदेश की तर्ज पर लेखक लैंड चाहिए। गोरखा लैंड की तर्ज पर लेखक लैंड चाहिए।’ कह उसने बड़े जोर से नारा बुलंद किया,’लेखक लैंड जिंदा बाद! लेखक लैंड जिंदाबाद!!’

‘यार ! ये जमीं तुम्हारी है, ये पाताल तुम्हारा है, ये आकाश तुम्हारा है तो फिर किस लिए ये लेखक लैंड का नारा है?’

‘हमें फुसलाकर हमारी हड़ताल फेल मत करवाओ साहब! किसीने खुश होकर हमें क्या आजतक एक स्टोर भी किराए पर दिया है? अब तो बस ये फटी दरी तब उठेगी जब सरकार मेरी लेखक लैंड की मांग पूरी करेगी।’

‘तो भूखे मर जाओगे यार! यहां कोई नहीं पूछेगा।’

‘तो वैसे भी कौन सा जी रहा हूं।’ जानता हूं घरवाली और लेखक कभी नहीं मानते। कल एक और लेखक से इस बारे बात की तो उसने कहा,’ साहब मरने दो। इस बहाने एक दुश्‍मन तो कम होगा।’ पर मुझे अपनी छुट्टी खराब होने की चिंता है।

-अशोक गौतम