बीनू भटनागर
धूप बेचारी,
तरस रही है,
हम तक आने को।
धूल, जीवाणु, विषाक्त गैेसें,
उसका रस्ता रोके खड़ी हैं।
वायु प्रदूषण के कारण,
अब आँखें जले लगी हैं।
ये धुंध है, ना कोहरा है,
ना ही बादल का घेरा है,
दूर दूर तक वायु प्रदूषण का,
जाल बना गहरा है।
साल के अंतिम छोर पर भी,
ठँड का नामोनिशान नहीं है।
सूरज को भी अब तो,
धूप पर अभिमान नहीं है।
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