राजनीति

मोदी और मनमोहन के स्वतंत्रता दिवस सन्देश का अन्तर

modi and manmohanडा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री

 

पन्द्रह अगस्त को लाल क़िले पर प्रधानमंत्री देश को सम्बोधित करते हैं । यह पुरानी परम्परा है । यह एक प्रकार से आशा और उत्साह का संदेश होता है । इस दिन प्रधानमंत्री लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी के नेता के तौर पर नहीं बल्कि देश के नेता के तौर पर राष्ट्र को सम्बोधित करते हैं । चाहे वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था मेंंं प्रधानमंत्री का अर्थ संसद में सबसे बड़ी पार्टी का नेता होना ही है , लेकिन प्रतीक के रुप में वह महत्वपूर्ण विषयों पर पूरे देश की आवाज़ को अभिव्यक्ति देने का माध्यम बन जाता है । यह परम्परा बहुत दूर तक निभाई भी गई थी , इसीलिए देश विदेश में प्रधानमंत्री के इस संदेश की प्रतीक्षा रहती थी । लेकिन प्रो० मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री के पद पर बैठने के बाद से यह परम्परा केवल खंडित ही नहीं हुई है बल्कि संदेश के भीतर की उर्जा ही समाप्त हो गई है । इसमें मनमोहन सिंह का कोई दोष नहीं है । देश की आशाओं और उनके सपनों को आवाज़ देने के लिये आप के पास राजनैतिक शक्ति भी होनी चाहिये । प्रधानमंत्री के पास अपनी पार्टी का नेतृत्व  भी होना चाहिये ।  दुर्भाग्य से प्रो० मनमोहन सिंह के पास ये दोनों ही नहीं हैं । क्योंकि वे राजवंश का वारिस राहुल गान्धी  जब तक राजतिलक के योग्य नहीं हो जाता , तब तक के लिये की गई अस्थाई व्यवस्था का परिणाम हैं । इसलिये वे लालक़िले पर परम्पराएँ निभाने के लिये बाध्य नहीं हैं । राजसत्ता उन्हें देशवासियों ने नहीं बल्कि विशेष परिस्थितियों में सोनिया गान्धी ने सौंपी है । वे हर साल लाल क़िले की प्राचीर पर खड़े होकर राष्ट्रोन्मुखी न होकर धीरे धीरे सोनियान्मुखी होते गये । परम्पराएँ टूटती रहीं और देश स्तब्ध होकर देखता रहा ।

लेकिन इस बार तो मनमोहन सिंह ने सब सीमाएँ लाँघ दीं । उनका भारत देश पंडित जवाहर लाल नेहरु से शुरु होकर राजीव गान्धी पर आकर समाप्त हो गया । किसी और प्रधानमंत्री का नाम बीच में न आ जाये इसलिये उन्होंने भारत के इतिहास का लेखा जोखा दशकों में लेना शुरु कर दिया । पहले दशक नेहरु के , दूसरे दशक इन्दिरा गान्धी के , अगले दशक राजीव गान्धी के , अन्तिम दशक नरसिम्हा राव का और उसके बाद के दशक सोनिया गान्धी के , जिनकी ज़िम्मेदारी प्रो० मनमोहन सिंह ने ख़ुद संभाल रखी है । उसके बाद भाईयो और बहनो, हिन्दोस्तान पर यू पी ए का क़ब्ज़ा हो गया , जिसकी अध्यक्षा सोनिया गान्धी हैं ( सोनिया गान्धी का नाम उन्होंने नहीं लिया लेकिन वह स्वत: स्पष्ट था) जिसके राज में इस मुल्क ने बेतहाशा तरक़्क़ी कर ली है ( एक बार फिर उन्होंने इतालवी सैनिकों द्वारा भारतीय मछियारों को मारे जाने का ज़िक्र नहीं किया ) । उसके बाद प्रधानमंत्री ने लोक सम्पर्क विभाग द्वारा तैयार की गई उपलब्धियों की सूची पढ़नी शुरु कर दी । हमने अब आगे से अध्यादेश जारी कर दिया है , ८१ करोड़ भारतीय तीन रुपये किलो के हिसाब से चावल , दो रुपये किलो के हिसाब से गेहूँ और एक रुपये किलो के हिसाब से दाल लेकर मज़े से अपनी ज़िन्दगी बसर कर सकते हैं । सोनिया गान्धी के राज में ८१ करोड़ हिन्दुस्तानियों को भूखे मरने की ज़रुरत नहीं है । बोलो बच्चो मेरे संग जय हिन्द जय हिन्द । बैसे यह समझ से परे है कि मनमोहन सिंह ने सभा में उपस्थित बच्चों के माता पिता से जय हिन्द कहने का अधिकार क्यों छीन लिया ? हो सकता है कि मनमोहन सिंह स्वयं भी जानते हों कि बच्चे तो मेरे भाषण को हिन्द का भाषण समझ कर धोखा खा सकते हैं लेकिन उनके माता पिता तो समझते हैं कि इस बार लाल क़िले से दिया जा रहा भाषण हिन्द का भाषण नहीं है । यह तो सोनिया चालीसा है । हिन्द का भाषण तो यहाँ से बहुत दूर सोमनाथ की धरती गुजरात के भुज से दिया जा रहा था । उस भुज से , जहाँ कि आबाज दिल्ली पहुँचने से भी पहले पाकिस्तान पहुँचती है । इस बार लाल क़िले से आवाज़ पाकिस्तान और चीन पहुँचनी चाहिये थी लेकिन वह सोनिया स्तुति पर ही समाप्त हो गई । यू पी ए की तथाकथित काग़ज़ी उपलब्धियाँ गिनाना एक प्रकार से सोनिया चालीसा पढ़ना ही था । शायद इसीलिये भुज में स्वतंत्रता दिवस पर एक सौ पच्चीस करोड़ भारतीयों को सम्बोधित करते हुये नरेन्द्र मोदी ने कहा कि पिछले नौ साल से सीमा पर हमारे सैनिक मारे जा रहे हैं , लेकिन हमारी सरकार अभी भी नींद से जागी नहीं है ।  और इस बार ज़रुरत भी यही थी कि जागे हुये हिन्दोस्तान की आवाज़ इस्लामाबाद और बीजिंग पहुँचे । पाकिस्तान लगातार भारतीय सीमान्त पर गोलीबारी कर रहा है और चीन की घुसपैठ हिमालयी क्षेत्र में बढ़ती जा रही है । लेकिन प्रधानमंत्री अपनी विदेश नीति की सफलता के क़िस्से बता रहे थे । प्रधानमंत्री ने सही कहा कि देश में विभाजन की राजनीति नहीं चल सकती , लेकिन वह यह कहने की हिम्मत नहीं कर पाये कि सोनिया कांग्रेस आजकल देश में यही धंधा कर रही है ।इसीलिये मोदी ने छिपा व्यंग्य किया , पैंसठ साल तक बाँटने का काम आप लोगों ने बहुत कर लिया अब इस से बाहर निकलिये । लेकिन  मनमोहन सिंह क़दमताल करते हुये यही दोहराते रहे कि हमें अभी बहुत आगे जाना है । पाकिस्तान के सीमान्त कच्छ पर खड़े होकर नरेन्द्र मोदी ने सही प्रश्न पूछा कि किस राकेट में बैठकर जाना है ? एक अमेरिकी डालर के बदले में भारतीय रुपये का ढेर लगने लगा है । एक डालर के ६४ रुपये तो सरकारी रेट से मिलने लगे हैं और प्रधानमंत्री लोगों को विश्वास करने के लिये कह रहे हैं कि देश बहुत तेज़ी से तरक़्क़ी कर रहा है । मोदी ने सही कहा कि कुछ लोग चाँद लाकर देने के वायदे करके गये थे और इतने साल बाद भी ख़ाली लोटा थमा रहे हैं ।

ताज्जुब है प्रधानमंत्री ६५ साल बाद भी तीन रुपये किलो का गेहूँ बाँट रहे हैं । जो देश कभी सोने की चिड़िया कहलाता था वह तीन रुपये किलो चावल तक पहुँचा दिया । इसके बाबजूद प्रधानमंत्री नेहरु से लेकर राजीव गान्धी तक की गई प्रगति के अपने किस्से से दायें बांये हटने को तैयार नहीं हैं । रही सही कसर मनमोहन सिंह के अपने दशक ने पूरी कर दी । हज़ारों किसानों ने आत्महत्या तो इन्हीं के काल में हुई । मोदी ने अत्यन्त भावुकता में कहा कि हमारे लिये एक ही पावन ग्रन्थ है और वह है संविधान , एक ही भक्ति है – वह है भारत भक्ति और एक ही शक्ति है और वह है जन शक्ति । बस यही अन्तर मोदी के और मनमोहन सिंह के भाषण में भी और उनके चिन्तन में भी है । मोदी की शक्ति जन शक्ति है और मनमोहन सिंह की शक्ति सोनिया शक्ति है ।

वैसे तो ठीक भी है । जो व्यक्ति कच्छ के रेगिस्तानों में खड़े होकर भारत के विकास का सपना देखेगा उसकी शक्ति भारत के जन जन की शक्ति ही हो सकती है और जो व्यक्ति विश्वबैंक के कारीडोर से निकला हुआ भारत विकास का स्वप्न देखेगा उसका भरोसा सोनिया शक्ति ही हो सकता है । इस विकास का परिणाम हज़ारों किसानों की आत्महत्या ही हो सकती है । इस विकास ने सचमुच हिन्दोस्तान का विभाजन कर दिया है । एक भारत है एक इंडिया है । मोदी कच्छ में खड़े होकर भारत विकास की कथा रच रहे थे और मनमोहन सिंह दिल्ली में खड़े होकर इंडिया की भारत विजय की कथा पढ़ रहे थे । यही कारण था कि मनमोहन सिंह के पढ़े जा रहे संदेश को शायद अमेरिका और यूरोप में नीति निर्धारक सुन रहे थे और मोदी के संदेश को करोड़ों भारतीय आत्मसात कर रहे थे । परन्तु इस के बावजूद मनमोहन सिंह की एक बात के लिये दाद देनी पड़ेगी । उन्होंने बहुत ही हिम्मत करके इस बार नर सिम्हा राव का नाम लेने का साहस कर ही दिखाया । नर सिम्हा राव ने ही उन्हें पहली बार वित्त मंत्री बनाया था ।( यह अलग क़िस्सा है कि किसके कहने पर बनाया था , पूरी कथा जानने के लिये कृपालु पाठक पश्चिमी बंगाल के वित्त मंत्री रहे व मनमोहन सिंह के मित्र अशोक मित्रा की आत्मकथा पढ़ें ।) जब भारत के राजमहल में नर सिम्हा राव के नाम का उच्चारण करना भी कुफ़्र है । शायद मनमोहन सिंह ने सोचा होगा कि शायद लाल क़िले पर उनका यह अंतिम भाषण न हो , इसलिये वे नरसिम्हा राव के ऋण से भी उऋण हो गये । आमीन ।