प्रमोद भार्गव
संसद में पेश लोकपाल विधेयक की जो इबारत सामने आई है, उसने दो बातें तय कर दी हैं, एक संसद से सड़क तक टकराव के हालात निर्मित होंगे। दूसरे, लोकपाल में आरक्षण का सियासी दांव एक ऐसा हथियार साबित होगा जो लोकपाल को पारित करना नमुमकिन बना देगा। क्योंकि यह न तो अण्णा हजारे की जन लोकपाल की मूल भावना पर खरा उतरता है और न ही संसद के पिछले सत्र में सर्वसम्मति से पारित उन तीनों प्रस्तावों का लिहाज रखता है, जिन्हें ‘संसद की भावना’ कहा गया था। इसलिए अण्णा समूह के प्रमुख अरविन्द केजरीवाल ने इसे अगस्त में पेश विधेयक से भी कमजोर करार दिया है। 43 साल से लटका लोकपाल यदि जैसे-तैसे संसद से पारित हो भी जाता है तो इसमें धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों को आरक्षण और राज्यों में लोकायुक्त के प्रावधान को संवैधानिक चुनौती सर्वोच्च न्यायालय में दी जा सकती है। इबारत में उल्लेखित ये मंशाएं इस बात की प्रतीक हैं कि सरकार लोकपाल को टालना चाहती है। सरकार सीबीआई पर भी कुण्डली मारकर बैठी रहना चाहती है। जाहिर है सरकार की भ्रष्टाचार से निपटने की मंशा साफ नहीं है।
संसद में पेश नए लोकपाल की इबारत से उम्मीद थी कि वह सशक्त और प्रभावशाली होगी। लेकिन लोकपाल की संहिताओं की व्याख्या करने से साफ होता है कि इसकी आत्मा में भ्रष्टाचार उन्मूलन की भावना अंतर्निहित ही नहीं है। यह स्थिति तब है, जब सभी राजनीतिक दलों ने संसद में प्रभावी लोकपाल बनाने का भरोसा देश की जनता को जताया था। सरकार ने उन तीन मुद्दों को भी दरकिनार कर दिया, जिन्हें लोकपाल का हिस्सा बनाने की सहमति सभी राजनीतिक दलों ने सर्वसम्मति से दी थी।
अगस्त में रामलीला मैदान में अनशन खत्म होने से पहले संसद के दोनों सदनों ने एकमत से यह प्रस्ताव पारित किया था कि केंद्र की समस्त नौकरशाही के भ्रष्टाचार का निवारण लोकपाल कर सकेगा। सिटीजन चार्टर, मसलन शिकायत निवारण व्यवस्था भी लोकपाल के अधीन होगी और राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति अनिवार्य शर्त होगी। लेकिन संसद में विधेयक का जो अंतिम मसौदा प्रस्तुत किया गया है, उसकी इबारत ने संसद की भावना का लिहाज नहीं रखा। सरकार ने तीन में से दो मुद्दों की इबारत पूरी तरह बदल दी। नागरिक अधिकार-पत्र के लिए अलग से विधेयक संसद में पेश किया गया। कारण बताया गया कि शिकायतों की भरमार से लोकपाल को बचाने के लिए ऐसा किया गया। किंतु इसी लोकपाल में व्यवस्था है कि शिकायत को निपटाने की अंतिम व्यवस्था लोकपाल के दायरे में ही होगी। जब शिकयत निवारण के लिए आखिर में लोकपाल से रूबरू होना ही है तो फिर अलग से विधेयक लाकर एक कानूनी ढांचा खड़ा करने की क्या जरूरत थी ? शिकयात निवारण की पहली अपील से लेकर अंतिम अपील तक लोकपाल के दायरे में रखने की जरूरत थी। इससे संस्थागत ढांचे में एकरूपता रहती और विधेयक की इबारतों में भी विरोधाभास की उम्मीद नहीं रहती। संहिताओं के विरोधाभासी ये विकल्प जहां अधिकारियों के अहंकार-टकराव का कारण बनते हैं, वहीं इनकी इबारत में मौजूद विकल्प फैसले को आमूल-चूल बदलने का आधार भी बन जाते हैं। इसी तरह शत-प्रतिशत सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाने की बात सरकार ने नकार दी। बकौल अरबिंद केजरीवाल 95 फीसदी कर्मचारी लोकपाल द्वारा नियंत्रित नहीं होंगे। जाहिर है फिलहाल तो सरकार की मंशा जनता को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने की नहीं लगती है।
टीम अण्णा की प्रमुख इच्छा केंद्रीय जांच ब्यूरो को संपूर्ण स्वायत्ताता देते हुए सरकारी नियंत्रण से बाहर रखने की थी। लेकिन विधेयक की इबारत में यह मंशा नदारद है। इस हालात से भ्रष्टाचार का निर्मूलन कैसे संभव है ? यह स्थिति सीबीआई और लोकपाल दोनों को ही कमजोर बनाती है। लोकपाल जैसी संस्था उन हालातों में कैसे अपनी सार्थकता सिध्द कर सकती है, जब उसके मातहत कोई स्वतंत्र जांच एजेंसी हो ही नहीं ? लोकपाल को भ्रष्टाचार से जुड़े मुद्दे को स्वमेव संज्ञान में लेने का आधिकार भी नहीं है। जबकि यह अधिकार न्यायालयों और कलेक्टर तक को है। तय है सरकार की मंशा भ्रष्टाचार पर नकेल कसने की है ही नहीं। जबकि सीबीआई के दो-दो पूर्व निदेशक समाचार चैनलों की बहस में यह तथ्य सार्वजनिक कर चुके हैं कि सरकार सीबीआई के मार्फत अपने राजनीतिक हितों को साधने और अपने विरोधियों को डराने व धमकाने का काम करती है। इसके बावजूद सरकार सीबीआई को पूर्ण स्वायत्ताता देने अथवा उसे लोकपाल के अधीन करने को तैयार नहीं है। देश में कर्नाटक का लोकायुक्त सबसे शक्तिशाली माना जाता है। वह इसीलिए क्योंकि उसे भ्रष्टाचार से जुड़े किसी भी मुद्दे की स्वतंत्र रूप से जांच कराने का अधिकार तो हासिल है ही, जांच कराने का अपना प्रशासनिक तंत्र भी है। नतीजतन कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े की जांच रिपोर्ट रंग लाती है और अवैध खनन के मामले में मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को पदच्युत होना पड़ता है। यदि लोकपाल को भी ऐसे कानूनी अधिकार दिए जाते तो भ्रष्टाचार उन्मूलन की संभावनाएं बढ़तीं। इस कानून को अमल में लाने से तो अच्छा है सरकार यथास्थिति बहाल रखे।
43 साल बाद नौवीं बार संसद में पेश लोकपाल सशक्त कानून न बनने पाए इसलिए इसमें लालू, मुलायम, शरद और पासवान के दबाव में शुध्दिपत्र लटकाकर दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक तबकों को पचास फीसदी आरक्षण का पेंच डाल दिया गया। यही वह पेंच है, जिसके चलते आज तक महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा से पारित होने के बावजूद अटका हुआ है। हमारे संविधान में धार्मिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था नहीं है, बावजूद धार्मिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान रखा गया। यह सीधे-सीधे जाति और धर्म विशेष के वोटों को हथियाने का फंडा है। वाकई यदि इन पिछड़े और दलित वर्गों से जुड़े नेताओं को वंचित व लाचारों के हित साधने की इच्छा शक्ति होती तो वे विधेयक को सशक्त बनाने की पैरवी करते न कि आरक्षण की ? भ्रष्टाचार के चलते गरीब तबकों के लोग जितने बुनियादी आधिकारों से वंचित हैं, उतने लाभ उन्हें लोकपाल में आरक्षण सुविधा देने से मिलने वाले नहीं हैं ? देश की सर्वोच्च संवैधानिक संस्थाओं न्यायपालिका, निर्वाचन आयोग और केंद्रीय सतर्कता आयोग में आज भी आरक्षण का प्रावधान लागू नहीं है, तब क्या ये संस्थाएं अपने दायित्वों का निर्वहनर् कत्ताव्य-निष्ठा के साथ नहीं कर रही हैं ? फिलहाल की स्थिति में आरक्षण का यह पेंच लोकपाल को महिला आरक्षण विधेयक की तरह लटकाने का ही काम करेगा। बहरहाल लोकपाल विधेयक के मसौदे ने ऐसी आधार-भूमि तैयार कर दी है, जिससे इसे संसद से सड़क तक नकारा जा सके और केंद्र सरकार को यह बहाना मिले जाए कि उसने तो विधेयक संसद में पेश करके अपनेर् कत्ताव्य का पालन और संसद में दिए वचन का पालन कर दिया था, अब संसद में उसे सर्वसम्मति नहीं मिल रही है तो इसके लिए जवाबदेह तो संसदीय दल हैं, न कि कांग्रेस अथवा संप्रग सरकार ?