आज चाहे देश की राजधानी दिल्ली हो या देश का अन्य कोई भाग लोगों को पानी, बिजली आदि समस्याओं की मार झेलनी पड़ती है. गर्मियों में तो यह समस्या और भी अधिक बढ़ जाती है. सरकार भी पानी को संरक्षित करने के लिए नयी-नयी योजनायें चलाती रहती है. लेकिन कोई उपाय अधिक कारगर सिद्ध नही हो पाता.
कुछ स्थानों पर तो पानी की इतनी किल्लत हो जाती है कि लोग पानी की एक-एक बूँद तक को तरस जाते हैं. कई जगह पर आज भी पीने का पानी नहीं आता है. ऐसे जगहों पर पानी के टैंकर भेजकर पीने के पानी की आपूर्ति की जाती है. आज यमुना नदी का पानी भी प्रदूषित होने के कारण पीने योग्य नहीं बचा है. यमुना नदी को लेकर हमेशा ही विवाद बना रहता है.
अब सवाल यह उठता है कि क्या पानी की समस्या को लेकर पहले भी लोगों को जूझना पड़ता था ? तो इसका जवाब है हाँ पहले भी लोग पानी को संग्रहित करने को लेकर काफी संवेदनशील थे. ताकि पानी की कमी हो तो संग्रहित जल का प्रयोग किया जा सके. पहले लोग पानी को संग्रहित करने के लिए कुओं, बावलियों आदि का निर्माण करते थे तथा उनकी समुचित देखभाल और प्रयोग भी करते थे.
इसका सर्वश्रेष्ट उदहारण ‘दिल्ली के दिल’ कहे जाने वाले कनाट प्लेस में प्रसिद्ध हैली रोड पर स्थित ‘उग्रसेन की बावली’ है. कुछ दिनों पहले मेरा अपने कुछ मित्रों के साथ इस बावली में जाना हुआ. वहां की कुछ झलकियों से आप सब को परिचित कराना चाहती हूँ.
यह सोपानयुक्त कुआं अथवा बावली, एक भूमिगत इमारत है जिसका निर्माण मुख्यतः मौसम के परिवर्तन के कारण जल की आपूर्ति में आई अनियमितता को नियंत्रित करके जल के संग्रहं के लिए किया गया था. इस बावली का निर्माण अग्रवाल समुदाय के पूर्वज राजा उग्रसेन द्वारा किया गया. इस इमारत की मुख्य विशेषता उत्तर से दक्षिण दिशा में 60 मीटर लम्बी तथा भूतल पर 15 मीटर चौड़ी है. अनगढ़ तथा गढ़े हुए पत्थर से निर्मित यह दिल्ली में बेहतरीन बावलियों में से एक है. इसकी स्थापत्य शैली उत्तरकालीन तुगलक तथा लोधी काल ( 13वी-16वी ईस्वी) से मेल खाती है.
पश्चिम की ओर तीन प्रवेश द्वार युक्त एक मस्जिद है. यह एक ठोस ऊँचे चबूतरे पर किनारों की भूमिगत दालानों से युक्त है. इसकी स्थापत्य में ‘व्हेल मछली की पीठ के समान’ छत, ‘चैत्य आकृति’ की नक्काशीयुक्त चार खम्बों का संयुक्त स्तम्भ, चाप स्कन्ध में प्रयुक्त पदक अलंकरण इसको विशिष्टता प्रदान करता है.
लेकिन आज इस बावली से बहुत कम लोग ही परिचित हैं. इसका निर्माण भी कई जगहों पर अधूरा है. यह बहुत ही जर्जर अवस्था है. इसका प्रयोग भी नहीं हो पा रहा है. सरकार को इस पुरातात्विक इमारत को संरक्षित तथा इसके सही प्रयोग के लिए कारगर कदम उठाने चाहिए. यहाँ प्रदर्शनी लगाई जानी चाहिए ताकि लोग इसके सही प्रयोग को को जान सके.
इस बावली से ये पाता लगता है कि हमारे पूर्वज विभिन्न समस्याओं को लेकर कितने उचित उपाय करते थे. आज सरकार सिर्फ तत्कालीन हल ढूंढ़ती है, समस्या के निराकरण की बात कोई नहीं करता. लेकिन सरकारों को ऐसे विभिन्न प्राचीन उपाय जो अधिक लाभदायक हैं, पर ध्यान देना होगा.
यह सच में एक उपयुक्त दर्शनीय स्थल है. जिससे अधिक से अधिक लोगों को परिचित कराये जाने की जरूरत है. यह हमारा दुर्भाग्य होगा कि अगर हम दिल्ली में रहते हुए भी इस इमारत को न देखें.
बहन अन्नपूर्ण मित्तल को साधुवाद की उसने अग्रवालों के पूर्वज राजा उग्रसेन द्वारा निर्मित बावली से परिचत कराया. सर्कार को ऐसे सभी छोटे किन्तु महत्वपूर्ण स्थलों का उचित संरक्षण करके और उनके आसपास सौन्दर्यीकरण करके इन्हें दर्शनीय स्थलों के रूप में विकसित करना चाहिए. एक सुझाव ये भी हो सकता है की इस बावली के सौन्द्रिय्करण के लिए स्थानीय अगरवाल सभा का सहयोग लेकर इसे विकसित कराया जाये. मुझे पूरा विश्वास है की दिल्ली के अग्रवाल बंधू ही इस धरोहर को एक दर्शनीय स्थल के रूप में विकसित करने में पूरा सहयोग करेंगे और ये एक महत्वपूर्ण स्थल के रूप में विकसित हो सकेगा.