विश्व खाद्य दिवस पर चर्चा में भुखमरी

0
560


यह कम दुर्भाग्यजनक नहीं है कि अपने देश में व्याप्त भुखमरी पर चर्चा करने के लिए हमें ग्लोबल हंगर इंडेक्स के आंकड़ों की आवश्यकता होती है। और जब यह चर्चा हो भी रही है तो इसका स्वरूप निम्न स्तरीय राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप तक सीमित रह गया है। श्री राहुल गाँधी एवं श्रीमती स्मृति ईरानी के बीच ट्विटर पर हुआ शेरों का आदान प्रदान यह दर्शाता है कि हर मौके के लिए माकूल शेर का चयन करने वाले बौद्धिक सलाहकार अब भूख और गरीबी के लिए भी कुछ चुनिंदा शेर छाँटने लगे हैं। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी इस मुद्दे को स्पर्श किया किन्तु यह स्पर्श स्वयं को ग्लानिरहित रखते हुए हनीप्रीत के रहस्यों, आरुषि हत्याकांड और चोटी कटवा जैसे अन्य राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर कई दिनों तक चर्चा करने का अधिकार प्राप्त करने की एक चेष्टा जैसा लगा। खैर इससे यह तो पता चला कि मीडिया कर्मियों और उनके मालिकों की अंतरात्मा अभी मरी नहीं है। अन्यथा वे चाहते तो इस खबर को अनदेखा भी कर सकते थे। देश में विमर्श का स्तर इतना गिर गया है कि किसी भी प्रयोजन से जब कोई भूख और गरीबी की चर्चा करता है तो मन में यह आशा बंधती है कि हम आभासी मुद्दों को छोड़ कर बुनियादी मुद्दों की तरफ लौट रहे हैं।
स्वास्थ्य मंत्री जे पी नड्डा ने इस बात की ओर ध्यानाकर्षण किया कि कुछ समाचार पत्र और राजनीतिक दल यह भ्रामक प्रचार कर रहे हैं कि सन 2014 में भारत ग्लोबल हंगर इंडेक्स के आधार पर विश्व में 55 वें स्थान पर था और अब 45 स्थानों की गिरावट के साथ 100 वें स्थान पर आ गया है। दरअसल 2014 में शुरू के उन 44 देशों को सम्मिलित नहीं किया गया था जिनकी रैंकिंग अच्छी थी। इस प्रकार भारत का स्थान 76 देशों में 55 वां था। यदि ये देश सम्मिलित होते तो 2014 में भारत की रैंकिंग 99 वीं होती। उन्होंने यह तथ्य भी रेखांकित किया कि यह रैंकिंग 2012 से 2016 की अवधि के आंकड़ों पर आधारित है और इनमें 2.5 साल यूपीए का शासन रहा है। इसके पूर्व भी 8 वर्षों तक यूपीए ही सत्ता में था। भारत 2008 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स स्कोर 35.6 में सुधार करते हुए इसे 2017 में 31.4 तक ले आया है। आईएफपीआरआई के दक्षिण एशिया निदेशक पी के जोशी के उस बयान की भी चर्चा सत्ता पक्ष कर रहा है जिसमें उन्होंने 2022 तक कुपोषण मुक्त भारत बनाने के सरकार के संकल्प की सराहना की है। इधर विपक्ष इसे नोट बंदी और अन्य आर्थिक सुधारों के कारण आई मंदी, जीडीपी में कमी, उद्योग धंधों के बंद होने, बेरोजगारी में बेतहाशा वृद्धि तथा किसानों की बदहाली से जोड़ रहा है।विमर्श धीरे धीरे चिर परिचित दिशा में बढ़ रहा है। भुखमरी के लिए कौन जिम्मेदार- “60 वर्षों तक शासन करने वाला परिवार” या “सूट बूट की सरकार’। भूखों के लिए यह बहस बेमानी है। सरकार यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती कि यह उसके कार्यकाल का मामला नहीं है। यदि सरकार की नीतियां यथावत रहीं तो हो सकता है कि तमाम वादों और दावों के बाद भी देश में भुखमरी बढ़ती नजर आए।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स चार पैमानों के आधार पर भुखमरी का आकलन करता है। इनमें से प्रथम जनसंख्या में  कुपोषित लोगों की संख्या है। दूसरा चाइल्ड स्टन्टिंग है जिसका आशय आयु के अनुसार शिशु की लंबाई और वृद्धि में कमी से है। तीसरा मापक चाइल्ड वेस्टिंग है जो शिशु की लंबाई के अनुपात में उसका वजन कम होने से संबंधित है। चतुर्थ मापक शिशु मृत्यु दर है। भारत चाइल्ड वेस्टिंग के संदर्भ में विगत 25 वर्षों से कोई खास सुधार नहीं कर पाया है जो इस बात का परिचायक है कि जन्म के बाद प्रथम पाँच वर्षों में हम शिशुओं को पोषक आहार,स्वास्थ्य एवं स्वच्छता सुविधाएँ और अच्छा पर्यावरण देने में असफल रहे हैं। इसी कारण शिशु मृत्यु दर में अपेक्षित सुधार नहीं हो पाया है।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2017 यह दर्शाता है कि हमारे पड़ोसी देश भूख का मुकाबला करने में हमसे कहीं आगे हैं यद्यपि एक अर्थव्यवस्था के तौर पर वे हमसे बहुत पीछे हैं और इनमें से अनेक देश तो हिंसा, आतंकवाद और प्राकृतिक आपदा से लगातार जूझते रहे हैं। नेपाल(72 वां रैंक), म्यांमार(77), इराक(78)श्रीलंका(84), बांग्लादेश(88),उत्तर कोरिया(93) भी हम से कहीं बेहतर कर रहे हैं। जिस चीन से हम अपनी तुलना करते हैं और उससे आगे निकलने का सपना देखते हैं वह तो 29 वें स्थान के साथ हमें बहुत पीछे छोड़ चुका है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स के आधार पर पड़ोसी देशों से पिछड़ने को लेकर आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा है किंतु इसमें कुछ भी चौंकाने वाला नहीं है। स्वस्थ तथा लंबे जीवन, अच्छी शिक्षा और रोजगार व अच्छे जीवन स्तर को आधार बनाने वाले विकास के मापकों ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स और ह्यूमन कैपिटल इंडेक्स के आधार पर भी हम इन पड़ोसी देशों से पीछे रहते आए हैं। इन देशों में मातृ मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर हमसे कहीं कम रही है।  अमर्त्य सेन कहते हैं कि स्वास्थ्य सेवाएँ मुहैया कराने हेतु बहुत अधिक मानवीय श्रम की आवश्यकता होती है। इन देशों के पास बेशक स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च करने के लिए बहुत कम धनराशि होती है किंतु चूंकि मजदूरी की दरें कम होती हैं इसलिए इन्हें इन स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध कराने वाले लोगों पर बहुत कम धन खर्च करना पड़ता है। अमर्त्य सेन यूनिवर्सल हेल्थ केयर (एक ऐसे तंत्र का निर्माण जो किसी देश के सभी नागरिकों को स्वास्थ्य सुविधा और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करे) की ओर अग्रसर होने का सुझाव देते हैं। वे कहते हैं कि आवश्यकता दृढ़ राजनीतिक प्रतिबद्धता की भी है।  भारत के विकसित दक्षिणी राज्यों(केरल, तमिलनाडु) और पंजाब, हरियाणा तथा महाराष्ट्र ने भी चाइल्ड स्टन्टिंग में भारी कमी लाने में सफलता प्राप्त की है। अर्थात शिशुओं का जन्म अब बेहतर दशाओं में होने लगा है। इन राज्यों के अध्ययन के आधार पर भी कुछ हल निकल सकता है।
यह कहना कि देश में आर्थिक विकास नहीं हुआ है सर्वथा अनुचित है। विकास के आकलन के हर आधुनिक पैमाने पर देश आगे बढ़ा है। समस्या यह है कि इस विकास का लाभ गरीब लोगों को मिल नहीं पाया है। वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था के जिस उदारीकरण और निजीकरण समर्थक मॉडल को हमने अपनाया है वह अमीर और गरीब की खाई को और बढ़ाने वाला है। भारत के एक प्रतिशत धनाढ्य लोगों के पास 58 प्रतिशत दौलत है। हाल के वर्षों में शीर्ष के सबसे धनी 10 प्रतिशत लोगों की आय में भारी वृद्धि देखी गई है जबकि सबसे गरीब 10 प्रतिशत लोगों की आय 15 प्रतिशत तक गिर गई है। सामाजिक और लैंगिक असमानता भी कुपोषण और शिशु मृत्यु हेतु उत्तरदायी है। आदिवासी समुदाय कुपोषण से सबसे ज्यादा पीड़ित हैं। यही स्थिति महिलाओं की है। वर्तमान में जो गरीब कल्याण की योजनाएँ चल रही हैं उनमें से अनेक चुनावी राजनीति के अनुरूप गरीबों को मुफ्त उपहार और सौगातें देने पर केंद्रित हैं। जबकि प्रयास गरीबों के समग्र जीवन स्तर को ऊपर उठाने का होना चाहिए। बिना इस चेष्टा के गरीबों को दी जाने वाली मुफ्त सुविधाएँ उनकी गरीबी को चिरस्थायी बनाकर उनका राजनीतिक उपयोग करने की रणनीति मात्र हैं। देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, कुपोषण और बीमारी से लड़ने के हर प्रयास को विफल कर देता है। हाल ही में राजस्थान सरकार ने राशन के गेहूं की कालाबाजारी के आरोप में एक आई ए एस समेत 20 अधिकारियों और कर्मचारियों को निलंबित किया। छत्तीसगढ़ का 36 हजार करोड़ का नान राशन घोटाला और अरुणाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश आदि में विभिन्न सरकारों के कार्यकाल में हुए राशन घोटाले हमारी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के खोखलेपन को उजागर करते हैं। समुचित भंडारण सुविधा के अभाव और आपराधिक लापरवाही के कारण देश के किसानों द्वारा उपजाया गया अनाज नष्ट हो रहा है और अन्नदाता स्वयं भूखा मर रहा है। विशाल पाँच सितारा होटलों और राजनेताओं तथा धनकुबेरों के वैवाहिक समारोहों में खाने की बर्बादी दिल दहला देने वाली है किंतु अनुशासन और मितव्ययिता के पाठ आम आदमी को पढ़ाए जा रहे हैं।  शिशुओं की चिकित्सा के प्रति हमारे असंवेदनशील नजरिये का अंदाजा तो देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश के मुख्य मंत्री के पूर्व लोकसभा क्षेत्र गोरखपुर के अस्पताल में सैकड़ों बच्चों की निरंतर होती मौत से लगाया जा सकता है।
विश्व खाद्य दिवस 2017 की थीम है- पलायन को रोकें। खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण विकास में निवेश करें। किन्तु नृशंस उत्सवधर्मिता के इस दौर में  इस दिशा में कोई गंभीर प्रयास होगा ऐसा नहीं लगता।

 

डॉ राजू पाण्डेय

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,871 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress