परिचर्चा : क्या जाति आधारित जनगणना होनी चाहिए?

देश में ‘2011 की जनगणना’ का कार्य चल रहा है। पिछले दिनों विपक्ष सहित सत्तारूढ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के कई घटक दलों ने जनगणना में जाति को आधार बनाने की मांग की। केंद्र सरकार ने दवाब में आकर उनकी मांग को स्वीकार कर लिया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लोकसभा में घोषणा की कि केन्द्रीय मंत्रिमंडल इस मामले में सदन की भावना को ध्यान में रखते हुए जल्दी ही सकारात्मक फ़ैसला करेगी।

इस जातीय जनगणना को लेकर देश में उबाल है। इसके पक्ष और विपक्ष में तर्क प्रस्‍तुत किए जा रहे हैं।

गौरतलब है कि 1857 की क्रांति से भारत में राष्‍ट्रवाद की जो लहर चली थी, उसे रोकने के लिए अंग्रेजों ने जातीय जनगणना का सहारा लिया और इसकी शुरुआत 1871 में हुई। कांग्रेस के विरोध के कारण 1931 के बाद से जाति के आधार पर गिनती नहीं की गई। इसके पीछे कारण था कि इससे देश में जाति विभेद बढेगा।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में अब तक सात बार दस-दस वर्षो के कालखंड में जनगणना कार्य संपन्‍न हो चुका है।

सर्वोच्‍च न्‍यायालय

सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने इस मुद्दे पर सरकार को कोई निर्देश देने से इनकार कर दिया है कि वह जनगणना जाति के आधार पर कराए या नहीं कराए। न्‍यायालय ने कहा कि यह नीति संबंधी मामला है। इस पर सरकार ही कोई फैसला कर सकती है।

यूपीए

जहां एक ओर ज़्यादातर दल जाति आधारित जनगणना के पक्ष में हैं, वहीं दूसरी ओर यूपीए में इस मसले पर मतभेद हैं। केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में कई वरिष्ठ मंत्रियों की राय अलग-अलग होने के चलते कोई फ़ैसला नहीं हो पाया।

केंद्रीय कानून मंत्री एम वीरप्पा मोइली ने जाति आधारित जनगणना की वकालत की वहीं कांग्रेस के युवा सांसद एवं केंद्रीय गृह राज्यमंत्री श्री अजय माकन ने आम जनगणना में जाति को शामिल करने के खिलाफ अलख जगाते हुए इसे विकास के एजेंडे के रास्ते का रोड़ा बताया है। श्री माकन ने सभी युवा सांसदों को इस संबंध में एक खुला पत्र लिख कर भविष्य की राजनीति का एजेंडा क्या होना चाहिए, इस पर विचार करने को कहा है। उन्होंने कहा कि देश बड़ी मुश्किल से जाति और धर्म की राजनीति से बाहर निकला है और लोगों ने विकास को सबसे ऊपर रखा है। अगर जाति और धर्म की राजनीति फिर से हावी हुई तो देश एक बार फिर 20-25 साल पीछे चला जाएगा।

भाजपा

इस मुद्दे पर भाजपा नेताओं के सुर अलग-अलग सुनाई दे रहे हैं। संसद में जनगणना पर हुई चर्चा के दौरान लोकसभा में भाजपा के उपनेता श्री गोपीनाथ मुंडे ने जाति आधारित जनगणना की जोरदार वकालत करते हुए कहा कि जाति के आधार पर ओबीसी की जनगणना कराने पर ही उनके प्रति सामाजिक न्याय संभव हो सकेगा। अगर ओबीसी की जनगणना नहीं होगी तो उन्हें सामाजिक न्याय नहीं मिलेगा। वहीं, पार्टी के वरिष्ठ नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने जातीय जनगणना का विरोध करते हुए आशंका जताई है कि इससे भारतीय समाज का बंटवारा हो जाएगा।

जदयू

जनता दल (युनाइटेड) के अध्यक्ष श्री शरद यादव ने जनगणना के दौरान अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के साथ ही हर जाति की गिनती किए जाने की मांग की है। यादव ने कहा है कि जब तक देश में प्रत्येक जाति की स्थिति के बारे में जानकारी नहीं होगी, तब तक समाज के कमजोर तबके के लिए नीति नहीं बनाई जा सकेगी। श्री यादव ने कहा कि वह ओबीसी ही नहीं, जनगणना में हर जाति की गिनती किए जाने की मांग कर रहे हैं, ताकि समाज के कमजोर तबकों के लिए समुचित नीतियां बनाई जा सकें।

इसके साथ ही राजद प्रमुख श्री लालू प्रसाद यादव, सपा प्रमुख श्री मुलायम सिंह यादव और बसपा सुप्रीमो सुश्री मायावती ने जाति के आधार पर जनगणना की जोरदार वकालत की है।

माकपा

माकपा नेता सीताराम येचुरी का कहना है, ‘’हम जाति आधारित जनगणना के पक्षधर नहीं हैं लेकिन देश के लिए यह जानना जरूरी है कि अन्य पिछडे वर्ग के लोगों की वास्तविक संख्या क्या है। उनकी वास्तविक संख्या पता चलने पर आरक्षण के कई फायदे उन्हें मिल सकेंगे।‘’

शिव सेना

शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने यह कहते हुए जाति आधारित जनगणना का विरोध किया है कि ऐसा किया जाना देश के लिए नुकसानदेह होगा और इससे देश में दरार पड़ेगी।’

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के महासचिव भैयाजी जोशी ने कहा कि जनगणना में संघ अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की श्रेणियों के जिक्र के खिलाफ नहीं है पर वैयक्तिक जातियों के जिक्र के खिलाफ है क्योंकि यह संविधान की भावना और राष्ट्रीय एकता के खिलाफ है।

श्री जोशी के अनुसार संघ का मानना है कि जनगणना में जाति पर जोर देना सीधे जातपात मुक्त समाज के खिलाफ होगा, जिसकी कल्पना संविधान रचयिता डॉ. बाबासाहब अंबेडकर ने की थी। श्री जोशी के अनुसार संघ अपने जन्म से ही जाति विभाजन से परे राष्ट्रीय एकता की दिशा में काम कर रहा है।

वहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने हिन्दुओं को दिए अपने संदेश में कहा है कि वह जाति व्यवस्था की दीवारों को ढहा दें। इसके लिए किसी और की ओर न देखकर स्वयं कदम आगे बढ़ा दें। उन्होंने जनगणना में जाति के कालम की व्यवस्था पर सवाल उठाया।

श्री भागवत ने कहा कि संविधान में जाति व्यवस्था को खत्म करने की बात कही गयी है लेकिन जब जनगणना होती है तो जाति का कालम भरना पड़ता है। इसी तरह कई सरकारी फार्मों में भी अपनी जाति भरनी पड़ती है। यह कैसा विरोधाभास है। उन्होंने कहा कि रोज जातिगत विषमता पर समाचार पत्रों में खबरें पढ़ने को मिल जाती हैं। मानव निर्मित भेदों का कोई स्थान नहीं है।

जातीय जनगणना के पक्ष में दलील

भारत में जातिगत आधार पर आरक्षण की व्‍यवस्‍था है। सही आंकड़े के अभाव में सरकार कैसे न्‍यायसंगत जाति आधारित आरक्षण नीति लागू कर सकेगी? इसके लिए वास्‍तविक आंकड़ों की नितांत जरूरत है। जातीय जनगणना से सभी जातियों की सही संख्या का पता चल जाएगा। इससे भारत की असली तस्वीर सामने आएगी और पिछड़ी जातियों के लिए अलग-अलग तरह से कल्याणकारी योजनाएं बनाई जा सकेंगी।

प्रवक्‍ता डॉट कॉम का मानना है

जातिवाद का जहर सामाजिक एकता की राह में सबसे बडी बाधा है।

अजीब विडंबना है कि जातीय जनगणना के प्रबल पैरोकार समाजवादी हैं, जो अपने को ‘लोहिया के लोग’ मानते हैं। जबकि लोहिया कहते थे, जाति तोड़ो। सवाल यह है कि जातीय जनगणना से जाति टूटेगी या जातिवाद बढेगा?

जाति आधारित जनगणना से लोगों के मन में जातिगत भावना काफ़ी तेजी से बढ़ेगी। इससे देश जातीयता के बादल में फंस जाएगा और देश में एक बार फिर नब्‍बे के दशक की तरह जाति के आधार पर वोट की राजनीति को हवा दी जाएगी।

जातीय जनगणना से देश में जातियों की घट-बढ रही जनसंख्‍या का पता लगना शुरू हो जाएगा, जिसके चलते सामाजिक संरचना को खतरा उत्‍पन्‍न होगा।

जनगणना में जाति के बजाय आर्थिक स्थिति के बारे में जानकारी हासिल करनी चाहिए, जिससे देश व समाज का वास्‍तविक विकास हो सके।

निवेदन : स्वस्थ बहस ही लोकतंत्र का प्राण होती है। आपसे आग्रह है कि अश्लील, असंसदीय, अपमानजनक संदेश लिखने से बचें और विचारशील बहस को आगे बढाएं।

75 COMMENTS

  1. इस पुरानी परिचर्चा में केवल इसलिए लिख रहा हूँ की प्रस्तावक संजीव के गाँव पुपरी अभी मैं हालमे दो बार गया हूँ – सरकार में निर्णय लेल्लिया है और आंकड़े आ जायेंगे- पता नहीं आपलोगों में अधिकांश आंकड़ों से क्यों डरते हैं – –अभे इभी राजनीती के खिलादीयों के पास जातिगत आंकडें हैं और बिलकुल सही – नत घबराइए सरकारी आंकड़ों से – —————————हिन्दू समाजमे जातिव्यवस्था है और समाज फिर भी चल रहा है और चलेगा क्योंकि इसमें आध्यत्मिक संजीवनी है – जातियां किस समाज में नहीं हैं? जातियां रहेंगी पर जातीयता नहीं हो यह लक्ष्य होना चाहिए ..

  2. Today Mahatama Gandhi met Chitragupta in heaven and asked him as to how his Three Monkeys are doing?

    Chitragupta said Sir they are doing very well in India.

    The one who was blind has become the Law.

    The one who was deaf has become the Government.

    And the one who was dumb is very very happy as he has become the Prime Minister

  3. जाती व्यवस्था ने इस देश का जितना अहित किया है उतना और किसी चीज ने नहीं आज जो लोग जनगणना में इसके उल्लेख की वकालत कर रहे है उनका मकसद सिर्फ इसका raj
    नीतिक लाभ लेना है इस देश में राजनीतिज्ञों का सर फिर गया है वैसे पुराणी जाति व्यवस्था हट भी जाय तो नई जाति व्यवस्था पैदा हो जाएगी उसे वर्ग भी कह सकते है और यह वर्ग विभाजन भी जाति व्यवस्था की तरह व्यव्हार करती है धार्मिक कल्ट भी इसी श्रेणी में आ सकते है दरअसल साधारणता लोगो की दृष्टि उतनी व्यापक नहीं होती है वे एक संकुचित दायरे में देखने के आदी होते है ऐसा इस लिए भी होता है क़ि इसमें उनका स्वार्थ जुरा होता है
    और इस स्वार्थ के चलते भिन्न भिन्न वर्गीय चेतना भी पनपती है जो और कुछ नहीं जाति का ही बदला हुआ रूप होता है अब मुख्य बात पर आते है .हम समता मूलक समाज के निर्माण क़ि दिशा में जाना चाहते है तो उसका यह तरीका ठीक नहीं है क्यों क़ि यह स्वार्थ से प्रेरित दृष्टिकोण है आप किसी भी वर्ग को विशेष सुविधा दे कर समाज में एक ईर्ष्या का बीज बो rरहे है इससे अकर्मण्यता भी बढती है जब कोई चीज आसानी से मिल जाति है तो उसका मूल्य लोग समझना छोड़ देते है मेरी समझ से इस प्रकार क़ि जनगणना का विपरीत प्रभाव परेगा. बी क सिन्हा

    • आज जातिगत आरक्षण पे बात करने वालो से मैं ये पूछना चाहूँगा की क्या sc st और obc ही गरीब होते है gen क्लास गरीब नहीं होता इस क्लास के गरीबो के बारे में तो कोई बात ही नहीं करता

      मेरे हिसाब से सभी क्लास के गरीबो की गिनती होनी चाहिए और उन्हें चिन्हित कर उन्हें समाज की मुख्या धारा में जोड़ना चाहिए नहीं तो आज जो गरीब gen क्लास के है उन्हें मजबूर हो कर दूसरा धर्म और जाती या कोई और रास्ता अख्तियार करना पड़ेगा

  4. जाति आधारित जनगणना यद्यपि उचित नहीं है तथापि हो जानी चाहिए. क्योंकि राजनेता ऐसा चाहतें हैं. उनके चाहने से ही इस देश की संपूर्ण संस्कृति का नाश हो चुका है, भारत का विद्यार्थी मित्थ्या इतिहास पढने को विवश है. जनता चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती. इस प्रकार की जनगणना के आंकड़े आने के बाद भारत की मूर्ख जनता फिर एक दूसरे की खून की प्यासी हो जाएगी. वस्तुतः राजनेता यही चाहते हैं. परन्तु राजनेता संभवतः एक बात को संज्ञान में नहीं ले रहे हैं कि फ़ोर्ब्स की सूची क्या कह रही है. यदि जैसा उसमे कहा गया है वो सच है तो जनगणना के बाद गृहयुद्ध निश्चित ही है

  5. आप जाति जनगणना पर अपने विचार बताएं, मैं आपकी जाति बता दूंगा। लगभग 99% सटीक उत्तर आपको मिलेंगे। जाति जनगणना ने जातिवादियों की पोल खोल दी है।

  6. mere anusar jati aadharit jangarna sahi nahi hai , yadi jati aadharit jangarna hoti hai to kai tarah ki jatiy vishamtaye aayengi jaise ki yadi kisi jati ko kendriya reservation ki sunchi me reservation prapt hai ya use state reservation prapta hai , kahne ka tatparya hai ki maharashtra me dhobi ko pichada warg mana jata hai jabki up aur bihar me sc me ata hai isi tarah se rajashtahan ki meena jati waha ki janjati mani jati hai aur ise madhya pradesh me pichada mana jata hai tab aap kis prakar se kisko kis star ka phayda denge.

  7. जातिगत जनगणना बिल्कुल नहीं होना चाहिए क्योंकि देश आज तक जातिगत आरश्रण का दंश झेल रहा है । राजनेता इसका गलत फायदा उठायेगे ।

  8. मुझे अगर यह जानना हो कि इस देश में कितनी अंतर्जातीय शादियां हो रही हैं, तो क्या इस तरह के आंकड़े कहीं मिल सकते हैं? नहीं मिल सकते, क्योंकि जाति की ही गिनती नहीं की जाएगी तो समाज में आ रहे अच्छे-बुरे बदलावों को कैसे समझा जाएगा। हमलोग दरअसल एक ऐसे देश में हैं, जहां के प्रभुजन को ज्ञान से डर लगता है क्योंकि जानकारियां लोगों को सबल बनाती हैं।
    जाति जनगणना का विरोध करने वालों की जाति देख लें, तो कई उलझनें अपने आप दूर हो जाएंगी।

  9. जनगणना पर किस तरह की कल्याणकारी योजना बनेगी यह तो कहना बेहद मुश्किल है, लेकिन यह राजनीति करने वाले राजनीतिज्ञों के लिए के लिए कल्याणकारी जरूर होगा। जातिगत जनगणना अगर देश की जातिगत जनसंख्या के लिए किया जा रहा है तो जरूर सराहनीय है। लेकिन हिन्दुस्तान का इसे दुर्भाग्य ही कहें कि जनगणना होने के बाद व्यक्ति विशेष इन्हें जनगणना को जरिया बनाकर उनके उपर राज करने की सोचता है। न कि उनके विकास के लिए। और वे लोग भी तो मुर्ख है जो ऐसे लोगों का समर्थन करते हैं। देश में जो नीति है उसमें जाति की नीति नहीं बल्कि अमीरी और गरीबी की नीति को लागू होनी चाहिए। यहां अमीर दिन-दुनी और रात तरक्की कर रहे हैं अर्थात धनवान और धनवान और गरीब और गरीब होता जा रहा है। यहां योजनाएं तो बनती है गरीबी मिटाने के लिए, लेकिन यह मैं यह बड़े दुःख से बात कह रहा हूं कि गरीबी नहीं बल्कि गरीबों को ही मिटाने का काम किया जा रहा है। योजनाएं बनती है तो वे केवल अमीरो के लिए गरीबों के लिए कुछ नहीं। इन सबके बीच पीस रहा है मध्यमवर्गीय परिवार। मतलब गरीब बेहाल, मध्यमवर्गीय परेशान और धनाड्य वर्ग मालामाल।

  10. 2010 में होनेवाली जनगणना जातिगत आधार पर नहीं होना चाहिए क्योकि इससे समाज में विद्वेश फैलेगा जो देश एवं समाजहित में सही नहीं है। भारतीय राजनीति में जातिवाद का बोलबाला है। इसके दुषप्रभाव से देश के समस्त नागरिक त्रस्त है और अपना देश भारत अभी भी विकासशील देशों की श्रेणी में ही है।

  11. मेरे विचार से जातिय आधारित जनगणना नहीँ होनी चाहिए।देश पहले से ही बंटा हुआ है,जाति आधारित जनगणना हमारे देश मेँ एकता के स्थान पर भिन्नता को ही दर्शाएगी,क्योँकि आज भी भारतवासियोँ का नजरिया नहीँ बदला हैं। जातियोँ को देखने से ज्यादा जरुरी गरीबी रेखा को कम करने के उपाय सुझाना अति आवश्यक है।

  12. सुजाता मिश्रा जी ने कम शब्दों में सही बात कह दी है.

  13. प्रश्न यह नहीं है की जाति जनगणना उचित है या नहीं अपितु प्रश्न यह है की इसका विकास से कोई लेना देना भी है या नहीं | जाति और संप्रदाय के नाम पर चुनाव जीतने वाले नेतावों का इस जनगणना कराने का कोई सही मकसद हो इसकी सम्भावना कम है | जहाँ आजादी के ६० साल बाद हमें जरुरत है सविंधान में कुछ बदलाव की जैसे की ‘राईट ऑफ़ प्रोटेस्ट टू वोट’, राईट ऑफ़ एजुकेसन आदि वहां पर इसतरह की सरकारी मंशा सविंधान के खिलाफ है | धर्मों व् जाति व् उपजाति के नाम पर पहले से ही बातें भारतीय समाज को राष्ट्रीय अखंडता के पीरों में बंधने की बजाय उन्हें कण-कण तोड़ने पर आमादा इन राजनीतिज्ञों के खिलाफ हमें उठाना ही होगा | हमें अपने प्रतिनिधियों को बताना होगा हम आप के काम से खुश नहीं हैं | हमें एक अपनी रैली और विरोध प्रदर्शन करना होगा |

  14. जनगणना में जाति का समावेश भारत के स्वार्थी राजनीतिज्ञों को इसलिए आपत्तिजनक प्रतीत नहीं होता क्योंकि सत्ता के नज़दीक पहुँचाने में यह उन्हें सहायक दिखता है. देश का दुर्भाग्य है कि इसके कारण ही वास्तव में सामाजिक विभाजन की लकीरें और गहरी होती जा रहीं हैं. यही सामाजिक विभाजन गुलामी के उन्हीं ऐतिहासिक खतरों को और निकट लाता है जिनका शिकार भारत सदियों तक रहा है. लेकिन आज के सत्ता-बुभुक्षितों को ऐतिहासिक चेतावनियों से क्या लेना देना. आरक्षणों की राजनीती में सभी पार्टियाँ प्रतिस्पर्धा में हैं ताकि चुनावो में कथित छोटी जातियों का समर्थन प्राप्त कर सकें.

    समाज में एकता का प्रादुर्भाव सभी जातियों, वर्गों और मज़हब-सम्प्रदायों में एकात्मभाव को प्रोत्साहन देने से ही हो सकता है. उसके लिए आरक्षण की विभाजीयता नहीं, बल्कि देश के सभी नागरिक मात्र भारतीय हैं और उसी नाते समानता के अधिकारी भी हैं और उनके राष्ट्र के प्रति कुछ कर्तव्य भी हैं इस पर धयान केन्द्रित करने की नितांत आवश्यकता है. जनगणना में जाति को गिना जाना मैं अदूरदर्शी और राष्ट्र हित विरोधी मानता हूँ.

    नरेश भारतीय
    लेखक, पत्रकार एवं समीक्षक
    यू के

  15. किसी भी काम के सही या गलत ठहराना सिर्फ उस काम के पीछे छुपी भावना के आधार पर ही होना चाहिए ! अगर जातिगत जनगणना का उद्देश्य सिर्फ ये जानकारी प्राप्त करना होता की देश में विभिन्न जातियों की क्या स्तिथि है तो यह काम सराहनीय होता पर भारत में जहाँ चुनाव से लेकर तमाम सामाजिक एवं राजनितिक कार्यो का आधार सिर्फ धर्म एवं जाति बन गया हैं वहां ऐसा कोई भी प्रयास , वो भी स्वयं प्राशासन की तरफ से करवाना ना सिर्फ निंदनीय है बल्कि चिंताजनक भी हैं! देश में समानता स्थापित करने के नाम पर राजनितिक संगठन वैसे ही भेदभाव की गहरी खायी खोद चुके हैं…आज की स्तिथि को देख कर तो सिर्फ यही कहा जा सकता हैं की अंग्रेजो द्वारा अपनाई गयी फूट डालो और राज्य करो की नीति आज के भारतीय राजनीती में आज भी लोकप्रिय हैं !

    • =====”अंग्रेजो द्वारा अपनाई गयी, फूट डालो और राज्य करो की नीति आज के भारतीय राजनीती में आज भी लोकप्रिय हैं !”=======
      सुजाता जी— नितान्त सही कहा आपने– अब हमारे अपने राज्यकर्ता उसी नीतिको अपनाकर, फूट डाल कर, चुनाव जीतकर, राज करने के लिए ही, उसी नीतिको अपनाते प्रतीत हो रहे हैं। “अपनी अपनी सम्हालियो, जी, भाडमें जाय देस” कौरवशाही ज़िंदाबाद, रिश्वतशाही ज़िंदाबाद, कठपुतली सरकार ज़िंदाबाद।
      १८२२ में एशियाटीक सोसायटी की मिटींग हुयी थी (प्रमाण इंग्लैंडमे सुरक्षित और गुप्त रखनेका प्रयास भी किया गया था।) —और भारतमें फूट डालनेका षड्‍यंत्र रचा गया था, कि कैसे फूट डाली जाए, कैसे भारतको मतिभ्रमित किया जाए। उसकी सफलता की ऐतिहासिक छाया आज तक जीवित है। धन्य है हमारे(Brain washed) मति भ्रमित राज्यकर्ता।

  16. प्रो. मधुसुदन जी की बात गंभीरता से लीजानी चाहिए कि जाती आधारित जनगणना का दुरूपयोग देश को टुकड़ों में बांटने और देश को कमजोर बनाने के लिए होने वाला है. आजतक का भारत सरकार का इतिहास इसका प्रमाण है कि वे जो भी करते हैं , वह देश के हित में नहीं, देश को डुबाने वाला होता है. अतः समय रहते सँभालने की जरूरत है. जातिवाद को बढ़ावा देने वाले हर प्रयास का विरोध होना चाहिए.

    • डॉ. राजेश कपूर जी बहुत धन्यवाद, आपकी मूल टिप्पणी के लिए और इस स्पष्टता के लिए। कुछ इसी प्रकारकी जानकारी प्रो. धर्मपालजी की पुस्तकोमें भी संदर्भित है। आपसे मेरा अनुरोध: आप इस विषयपर कुछ अधिक वृत्तांत सहित दीर्घ लेख दे।ऐसी जानकारी हमारे समाजमें कृत्रिम रीतिसे प्रसारित भ्रांत धारणाओंको समाप्त करनेमें बहुत साहायक होंगी।संदर्भ ग्रंथोंके नाम देनेसे विश्वसनीयता बढेगी। फिरसे बहुत धन्यवाद।

  17. Janganana ka uddeshya samajik vishmata ko door karne nahi hai. ye Rajnitik labh ko dhyan me rakh ker kiya ja raha hai shor shsraba hai..Next PM obc ka hoga ye Rahul gandhi ke liye soochna hai. Abhimanyu ki tarah Rahul antim samay me iska tor dhoondh nahi payenge.Mulayam, Laloo, Ajit Singh ye sabhi jo aaj Mantrimandal me shamil ho rahe hai antatah Rahul ke liye Manmohan singh nasoor bo rahe hai.Waise bhi tatkal jaroorat pare to Pranav Mukherjee aur aage ke liye P.Chidambaram routine metayyar hai

  18. जाति आधारित जनगणना के पीछे नेता नगरी की जो भी बुद्धि चल रही है वह जनता के हित में तो नहीं चल रही होगी इतना तो तय है। जाति का सबसे अधिक और बेजा फायदा तो नेता अपने हित में ही करते हैं। जाति के नाम पर वोट बटोर कर और भी नाना प्रकार से। जाति की गिनती करने से आम जन को क्या फायदा है यह अपनी समझ से परे है। उनको जिससे फायदा हो सकता है वे योजनाएं तो नेता लोग बनाते ही बहुत कम हैं।

  19. जातिगत जन गड़ना से हमारे देश को बहुत नुक्सान होगा.
    बड़ी विडंबना है की हमारे देश ने कभी भी इतिहास से सबक नहीं लिया. जाति की गड़ना अगर जनगणना के साथ न होती और अलग से होती तो कमजोर वर्गों को इसका फायदा समझ में आता है किन्तु राजनीती द्रष्टिकोण से लिया गया निर्णय है जिसका गंभीर परिणाम हमारे देश भारतीय समाज को आने वाले कुछ सालो में भुगतना होगा. जाहिर है की जातिगत जनगणना के आकड़ो नतीजो से किसी वर्ग को कुछ नहीं मिलेगा, मलाई तो राजनेता और जाती विशेष के मुखिया ही लेंगे.

    किसी भी बहस को घंटो, दिनों, सालो तक चलाया जा सकता है अगर तर्क और वितर्क करने वाले ज्ञानी हो तो, किन्तु किसी के हारजीत से परिणाम में कोई फर्क नहीं पड़ता है. वैसे है जाती गड़ना का कितना भी समर्थन किया जाए देश को आने वाले समय में नुक्सान ही होगा. जैसे की डॉ. प्रो. मधुसूदन उवाच जी ने कहा की ५० – ६० साल पहले के गलत निर्णयों को हमारे देश आज झेल रहा है, वैसे हे आज के जातिगत गड़ना से अगले १० से २० सालो में ही हमारे संप्रभु राष्ट्र में विघटन के बुलबुले बुल्बलाने लगेगे.

  20. shaayad यह हमारे देश का दुर्भाग्य है की इस महान देश के नेता कितने नीच है. कोई इनसे ये तो पूछे की आरक्षण से कितने गरीब पिछडो को आरक्षण मिला है? आरक्षण का लाभ तो सिर्फ अमीर पिछडो को मिला है और इन नेताओ की औलादों को मिला है. जाति आधारित जनगणना से किसी का भी भला नहीं होने वाला. ना तो देश का और ना हि इन गरीब पिछडो का भला तो नेताओ का होगा. लेकिन हम आम भारतीय भी कितने कमीने हो गए कि देशभक्ति गौण हो गयी और जाति महत्वपूर्ण हो गयी. राष्ट्रप्रेम और अनुशासन सब भाड़ में गए स्वछंदता और कर्तव्यहीनता भर गयी. दूसरों को गाली देने में हि व्यस्त है अपने अन्दर झाँकने कि फुर्शत नहीं है. व्यक्ति से समाज, समाज से राज्य और राज्य से देश बनता है. देश कि पहली इकाई को ही रोग के कीड़े लग गए है.

  21. वैचारिक संभ्रम में सबकुछ गड़बड़ा गया है. जातियां कहाँ नहीं हैं, जातियां कब नहीं थीं, जाती विहीन कोई समाज कभी हुआ नहीं और ना होना संभव है. ईश्वरीय रचना में भी जातियों की भरमार है.
    बात केवल इतनी है कि भारत मैं जाती प्रथा तो सदा से रही पर जाती के नाम पर छुआ -छूत बिलकुल नहीं थी. अस्पृश्यता नामकी बीमारी भारत में नहीं थी. इसकी शुरुआत कब और केसे हुई, यह खोज और शोध का विषय है.
    सन 1820 से 1835 के बीच एडम स्मिथ द्वारा किये 1710 पृष्ठों की सर्वे रपट है तथा टी. बी. मेकाले की सर्वे रपट भी है . इन रपटों से पता चलता है कि भारत में तबतक छुआ-छूत नाम को भी नहीं थी. दक्षिण भारत में 1400 से अधिक मेडिकल कालेज थे जिनमें एम् एस के बराबर पढाई होती थी . सर्वे रपटों में साफ़-साफ़ लिखा मिलता है कि 80 प्रतिशत विद्यार्थी और अध्यापक क्षुद्र जातियोंके थे जबकि 20 प्रतिशत स्वर्ण जातियों के थे. सारे सर्जन नाइ जाती के थे. सभी जातियों के लोग उनसे बिना किसी भेद-भाव के पढ़ते थे. यानी जातियां तो थीं पर अस्पृश्यता नाम कि कोई भावना नहीं थी.
    अतः आज भी जातियों को नहीं , जातीय घृणा और मन भेद मिटाने के तरीके जानने-समझने कि जरूरत है. अतः जातियों के आधार पर जनगणना समस्या नहीं, उसके पीछे देश को टुकड़ों में बांटने की नीयत समस्या है. जनता और देश को तोड़- तोड़ कर अपनी राजनीति चमकाने वालों की बादनियत इस जाती आधारी जनगणना का कारण है. यहाँ मानसिकता और इस मानसिकता से की जानेवाली जनगणना देश को कमजोर बनानेवाली ,देश विरोधियों की ताकत बढानेवाली साबित होने की आशंका से इनकार नहीं किया जासकता. इसका इस्तेमाल देश के खिलाफ यानी समाज को टुकड़ों मे बांटने के लिए किये जाने की पूरी संभावना है.

  22. प्रिय संपादक महोदय, परिचर्चा बहुत अच्छी है. सभी विचारकों के विचार भी सोचने योग्य. पर आप की इस वेबसाइट पर इतना छोटा font भला कौन पढ़ेगा? अक्षर इतने पतले हैं कि थोड़ी ही पंक्तियों में सिर दर्द हो जाता है. इस का प्रभाव यही पड़ेगा कि कई लोंग तो इसे पढेंगे ही नहीं. मेरा निवेदन कि इस का font बड़ा कर दीजिए. आशा है मेरे इस हस्तक्षेप को आप अन्यथा न लेंगे, क्यों कि website सशक्त लगती है और अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचनी चाहिए. धन्यवाद – उर्मिल.

  23. This is yet another mischief by politicians to perpetuate caste base
    politcs so as to promote their personal agenda.

  24. जाति एक पुरातन संस्था है, भारतीय मानस में बसी हुई परन्तु जनगणना में इसका आधार लेना ठीक नहीं है क्योकि इसके आधार पर वोट कि राजनीति शुरू होगी जिसका परिणाम ठीक नहीं होगा

  25. जातियों के आधार पर जनगणना नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इससे जातिगत भेदभाव और बढ़ेगा। पहले ही मंडल आयोग तथा आरक्षण के कारण यह भेदभाव बढ़ा है और धर्म, प्रान्तीयता और भाषागत अन्तर ने भारतीयता का भारी नुक़्सान किया है। जातिगत राजनीति के घिनौने चेहरे गंदगी फैला रहे हैं। लोगों को स्वयं को भारतीय कहना सीखना चाहिए।

  26. सवाल ना जाति का है और ना उससे देश का कुछ बनना बिगड़ना है. वैसे इतना कुछ बिगड़ा हुआ ही है कि अब क्या बिगड़ जाएगा इस जाति आधारित जनगणना से? अगर मंडल आयोग की बदतमिज़ियों, लालू, मुलायम, रामविलास, मायावती जैसे अभागों के बावजूद देश टूटने से बचा हुआ है. अगर पूरी की पूरी राजनीति को जाति के आधार पर विभक्त कर दिया गया है. राबडी-लालू के जातिवादी कुशासन के बावजूद बिहार ज़िंदा रहा, मधु कोड़ा के बावजूद झारखंड, और सबसे बड़ी बात यह कि हर तरह के तुष्टिकरण द्वारा देश को बेचते रहने, जाति, सम्प्रदाय, क्षेत्र ,लिंग, भाषा आदि हर आधार पर पूरे देश को टुकड़े-टुकड़े करने के कांग्रेसी हरकतों के बाद भी भारत बचा रहा है तो भगवान की कुछ कृपा है इस भूमि पर. जनम से लेकर मरण तक आरक्षण अगर जाति के आधार पर ही होना है तो निश्चय ही सभी जातियों का अधिकृत आकड़े रहना चाहिए. और जब तक जाति की प्रासंगिकता समाज में बची है, कानूनी स्तर पर हर न्याय आपको जाति के सांचे में ही दाल कर मिलना है तो निश्चय ही जाति आधारित जनगणना होनी ही चाहिए.

    • अच्छे और समझदार तर्क से गलत सवाल को सही जवाब मिल जाता है। मतलब अच्छा वकील हो तो अपराधी को छूट मिल जाती है। इस तरह ही सह मुद्दा है। नेताओं द्वारा जाति गणना के इस कृत्य है में एक शरारत और चालाकी भरी योजना है. हमारे लिए किसी भी तरह के अच्छे उद्देश्य को लेकर यह योजना नहीं लगती है। वे चाहते हैं गरीब जनता विभाजित रहे नड़ती रहे रोड पर रहे और वहाँ सत्ता नियंत्रित के शासन करने या खेल खेलने के लिये वे लगे रहे। यह सच है कि जाति हमारे समाज की विशेष सामाजिक पहचान है। हमें पूरी दुनिया में हमारे अद्वितीय पहचान दिलाने में और बनाए रखने यही वर्ण व्यवस्था है। लेकिन हमें जाति को बनाए रखने के द्वारा सद्भाव भी बनाए रखना चाहिए और यह सरकार की भी जिम्मेदारी है। इसके अलावा सरकार के लिए एक बहुत ही ज्यादा जरूरी काम समाज की देखभाल है जिसके लिए वे चुने गये है हमारे हिस्से के पैसे व सार्वजनिक निधि की संपति उन्हें और नौकरशाह को इसी बात पर दिये जाते हैं ताकि देश और जनता के कल्याण से संबंधित काम है। इसके बजाय आप पाएंगे सरकार द्वारा लिया गया लगभग हर निर्णय बेकार अभिनय और मन बहलाव के साथ ही सभी वर्ग में सामंजस्य मिटाने तथा हमारे समाज की व्यवस्था को मारने में लगे हैं। मुझे पूरा पूरा अदेंशा लगता है। यह सब राजनेता एक दूसरे के बीच कार्टेल है। अगर आप ध्यान देगें तो पाते हैं महगांई, आम लोगों की सुरक्षा देखने के लिए, देश की सुरक्षा, मूल्य वृद्धि, शिक्षा, अदालत के लम्बित मामलों, बेराजगारी, रोड बिजली पानी और इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए तथा अपराध गरीबी नक्सलवाद मिटाने और बहुत सारे मुद्दों पर वहाँ जहाँ काम करना चाहिए, इन लोगों के कार्रवाई करने का कोई मन नहीं लगता लेकिन वे हमारे ध्यान हटाने के लिए – दोनों पक्ष और विपक्ष के नेता यूनीक कार्ड, एक ही लिंग के शादी, गोत्र विवाह पर, परमाणु करार, अन्य बहुत से बेमतलब के कई मुद्दों प्रचार करने पर ऊल जलूल तुगलकी निर्णय लेते फिरंगें। मेरे प्रिय मित्र मुझे लगता है यह भी एक बेकार की बात है जहाँ सरकार को बीच में आने की जरूरत नहीं है। अब आप अपने आप को पूछें राजनेता के द्वारा किया जा रहा क्या कार्य अधिक महत्वपूर्ण है? क्या लगता है राजनेता जो कार्य कर रहे हैं या उनके द्वारा निष्पादित किया जाना कार्य प्राथमिकता का सही क्रम देते हुऐ कर रहे हैं। dr atul kr 9313450055

  27. jaati par jangarna karna shi nhi hoga kyuki jaati atharit jangarna hamare desh harzo saal piche chod skte h……….

  28. माफ़ कीजियेगा पर सच कड़वा होता है! हम हिन्दू हैं, मुसलमान हैं, सिख हैं, इसाई हैं, जैन, बौध्ह हैं पर क्या हम हिन्दुस्तानी हैं? ऊपर आप सभी ने आपने नाम के अपने उपनाम भी लिखे हैं! तो में कह सकता हूँ की आप हिन्दू है और आप सिख! और भी ज्यादा सोचें तो शर्मा जी और खान साब भी पता चल ही रहा है! तो अब सोचिये की हम सब बहस किस बात के लिए कर रहे हैं? अगर जनगणना जाति के आधार पर हो रही है तो क्या गलत है? अगर कुछ सुधारना है तोह पहले हमें अपने आप को फिर नेताओं को और फिर देश अपने आप सुधर जाएगा! जय हिंद !!!!!!!!!!!!!!!

    • Abhi you have good logic and sensible question but this act of counting by politicians on public fund is a mischief and cunning plan. This is planned not for any good purpose to us. They want to divide and play there game of controlling power to RULE. This is a social identity of our s. We preserve our uniqueness in the world but we should maintain harmony by sustaining the caste . And govt has to take care of a lot much work related to welfare of society for which they have been chosen . Instead if you find and reconcile this and all the other decision taken by this govt a lot many you will find are useless act and mind diverting as well KILLING our society. I think this all the politician has cartel among each other. You see safety of people, safety of country, price hike, education, court cases poverty Naxalism and lot many issues are there where these crooked people is suppose to take action. But they divert our attention – both positioned in power and opposition issues like Unique I Card, same sex marriage, Gotra marriage atomic deal and swine flu type of matter Cancers noting to us but to hype and divert. My dear friend this is also a useless matter where govt is suppose to nab in. I feel. Now you your self think what is write act to be done by the politician, what are the more important act to be performed by the politician what are the function to be completed by them first and then second….

  29. जनगणना से समाज का विखंडन होगा यह किसी भी लिहाज से उपयोगी नहीं है

  30. वेसे तो जातियों की गणना आसान नहीं है हिंदुस्तान में अनगनित हैं
    पर सबसे नीच जात है नेताओं की जिनमे शर्म हया नाम की कोइ चीज नहीं बची है इस जाती की गणना जरूरी है फिर जनता वोट दे कि इनका क्या किया जाये – ये जनता को वोट नहीं देने देंगे

  31. जनगणना जतिगणना सब कुछ सही है अगर आवश्यकता है तो भारत देश में से आरक्षण जैसा शब्द को हटाने की, किसे क्या कहाँ आरक्षण कायदे के अनुसार प्राप्त होता है? देश एक है पर व्यक्ति किसी और प्रान्त में जाकर रहे और वहाँ आरक्षण चाहे तो वहाँ कि समाज कल्याण ओफिस या जाति प्रमाण पत्र देने वाले अधिकारी कहते हैं कि यह जाति यहाँ इस सूचि में सामिल नहीं है तो आप का प्रमाण पत्र नहीं बनेगा अर्थात आपके पास सर्टी है तो आप आरक्षित है नहीं तो नहीं । इसका अर्थ यह होता है कि आप जनरल कैटेगरी के हुए। जरूरी नहीं की आप जिस प्रान्त में जन्मे या रहे हों वहीं आपका अनेवाला समय बीते आप अपनी आर्थिक और सामाजिक समृद्घि के लिए किसी भी प्रान्त में जा सकते हैं। तो आप स्वयं समझ सकते है कि आप कितने आरक्षित हैं।

  32. ये सरकार बिकाऊ है. थोडा सा दबाव बनाओ और केंद्र सरकार आपके कदमो में झुक जाती है. लालू, माया, मुलायम और रामविलास जैसे लोग इसी का फायदा उठा रहे है.

  33. आज भारतीय समाज उस मुकाम पर खड़ा है जहाँ उसने अनेक परिवर्तन देखे है सदियों की गुलामी से निकल कर वहाँ खड़ा है जहाँ से तमाम उन जातियों को यह डर लग रहा है की कल कहीं उनकी पोल खुल गयी तो क्या होगा इस सर्वे में यह बात बहुत ही स्पष्ट रूप से सामने आयी है की आज इस देश में ही नहीं दुनिया के अनेक देशों में बैठे लोग इस बारे में सोचना शुरू कर दिये है , उन्हें भी यहाँ मुख्य धारा से छूट गए लोगों की जहाँ चिंता है वहीँ उनके भाई बंधुओ की भी चिंता है जिन्होंने सदियों से देश को हड़पकर अपने कब्जे में रखा है इन्हें पढ़े-
    भारत में पाखंड बहुत है.यही पढ़े लिखे सभ्य समाज वाले जाति और गोत्र के आधार पर विवाह की वकालत करते हैं. जनगणना में धर्म पूछा जाता है तो इन्हें कोई आपत्ति नहीं. चुनावों में प्रत्याशियों का चयन व मतदान तक में जाति एक बड़ी वजह बनती है. परन्तु जैसे ही कुछ तथाकथित बड़ी जातियों को खतरे का आभास हुआ, इन्हें जाति में संकीर्णता दिखने लगती है. जाति आधारित नीतियां बनायी गई हैं. उन्ही नीतियों के परिणाम के विश्लेषण के लिए जाति आधरित गिनती की आवश्यकता है, तो इस पर आपत्ति क्यों?
    और जरा इन्हें पढ़िए-
    जाति आधारित जनगणना बिल्कुल ही किसी के हित में नहीं है. इससे मानसिक संकीर्णता बढ़ती है. जातिवाद से जनता में एक दूसरे के प्रति दूरी बढ़ती है. जातिवाद से सिर्फ़ पिछड़ेपन को ही मदद मिलती है. जातिवाद समाज और देश के लिए जहर है. सब पढ़ें, सब बढ़ें एक साथ, तब देश बढ़े. इसमें जातिवाद कहां से आ गया.Pandit ji
    आइये इन्हें देखें-
    इसकी सचमुच ही जरूरत है. भारतीय संविधान आरक्षण की बात करता है तो इसके लिए सांख्यिकी आंकड़ों की जरूरत पड़ेगी. हमें यह जानना होगा कि अलग-अलग जातियों में कितने लोग हैं. अगर आरक्षण का आधार जाति न होता तो फिर इस तरह के जनगणना की जरूरत नहीं थी. सही आंकड़े के अभाव में सरकार कैसे जाति आधारित आरक्षण नीति लागू कर सकेगी? यह तर्क संगत नहीं होगा. Gandhi
    यह सच्चाई है-
    यहाँ ऐसे लोगों की कमी नहीं जो प्रायः हर मुद्दे पर अपने दोहरे मानदण्ड रखते हैं.एक तरफ तो वे जनगणना में जाति के बारे में जानकारी माँगी जाने का विरोध करते हैं और दूसरी तरफ भारत की चारों पीठों के शंकराचार्यों की नियुक्ति में केवल ऊँची जाति का जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं.वे जातियों को खत्म भी नहीं करना चाहते और उनके सही आँकड़े भी दुनिया के सामने नहीं लाना चाहते.वे गरीबों और अमीरों के लिए जारी दोहरी शिक्षानीति का समर्थन करते हैं पर समान शिक्षा नीति के नाम पर चुप्पी साध लेते हैं.अब ऐसा नहीं चलेगा. Khan
    पूरे जवाबों में समाज दो धरो में बट गया है एक धडा जातीय जिक्र आने पर आग बबूला हो जा रहा है जो हमेशा अपनी जाति का ही ख्याल रखता है, और दूसरा धडा है जिसे जातिवादी कहा जाता है उसने कई जगह जातीय गूढ़ समीकरण को समझे वगैर जाति की निन्दा करने की कोशिश किया है पर इस सवाल पर हर समझदार व्यक्ति जातियों की गिनती कराये जाने को जायज ठहराया है आज के इस तकनिकी युग में इस प्रकार के आंकडे आना बहुत ही सिद्दत के साथ सजगता का ही सवाल है. होता क्या है जाति की गड़ना का जिसके लिए इन दलित और पिछड़ों के विरोधियों के मन में क्या है ? पर यदि इसबार इसको रोक लिया गया तो भविष्य में इसको लागू करना जरा कठिन ही नहीं मुश्किल हो जायेगा .
    क्योंकि –
    सामाजिक सन्दर्भों पर सोचने वाले लोगों का निरंतर ह्रास हो रहा है जो पूरे नियोजित तरीके से किया जा रहा है जिसकी व्यवस्था बहुत ही सुनियोजित तरीके से हो रही है जिसके लिए देश की पूरी मशीनरी लगी हुयी है, जिसे यह दिखाई नहीं देता की वह जो कुछ कर रही है वह किसी न किसी तरह नज़र तो आता ही है.
    आवाज उठानी होगी
    “न्यायिक सुधारों के लिए” जाति जनगड़ना आधार बनेगी उसे रोकने वालों को पहचानो ?और इन्हें दुबारा संसद में ही न आने दो !
    डॉ.लाल रत्नाकर

    सदियों से लोगों को लूट कर सरकारी पदों पर बैठे और अन्याय को काबिलियत का आधार बनाकर देश को गर्त में ले जाकर किसको इन्हें ठीक करना है, जनता को इन्हें ठीक करना चहिये जिससे देश की सारी दौलत और सत्ता को इन्होने ने अपने कब्जे में किये है उससे देश के दबे कुचलों को नहीं बल्कि हार तरह से कराहते हुए देश को निजात दिलाना होगा तभी खुशाली और देश फिर से दौलत से परिपूर्ण होगा .
    मेरे बार बार लिखने का औचित्य यह नहीं है की मुझे राजनेताओं की तरह कुर्सी हथियानी है बल्कि आज़ादी के बाद देश की गुलामी से बदतर हालत आज़ाद भारत में दलितों पिछड़ों और गरीब मजदूर की है पर इनके कान पर जू नहीं रेंगती है इनके कुकर्मों का लेखा जोखा यही है की देश बेचों गरीब की गरीबी के नाम पर योजनायें बनाकर करोणों रुपये अपने अपनों में बाँट दो यही हालत ९५% पदों पर बैठे लोग कर रहे है जिन्हें देश की नहीं उनके अपनों की चिंता है गरीबों की नहीं गरीब के नाम पर लूट की छूट है जिससे ये देश की दौलत इज्जत ज्ञान विज्ञानं इमान सब कुछ लूट रहे है, एकलब्य तो उदहारण है नजाने कितनों को ये एकलब्य जैसा अभागा बना रहे |
    ऐसा प्रधानमंत्री जो कहीं से ग्राम प्रधान तक का चुनाव नहीं जीत सकता ?
    डॉ.लाल रत्नाकर
    भारत के प्रधान मंत्री ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस में जाति आधारित जनगरना-२०११ को जिस तरह गोल मटोल जवाब देकर टाल गए है, उससे संदेह के घेरे में कांग्रेस की नियति आ जाती है, जिस देश का प्रधानमंत्री देश की सबसे बड़ी पंचायत में यह स्वीकार करता हो की जाति आधारित जनगरना करायी जाएगी उससे इस प्रकार गोल मटोल जवाब की अपेक्षा नहीं हो सकती पर एसा करके उन्होंने सारी संभावनाओ को दर किनार कर दिया है. लगता है की कांग्रेस की आतंरिक चाल के कोई नए हथकंडे तैयार किये जा रहे है, समय और सत्य की समझ से कोसों दूर जिस बडबोलेपन का आदी समाज सार्वजनिक तौर पर अन्याय और हड़प का सिद्धांत अख्तियार कर सारा समय अपने एसों आराम के लिए चुना और तो और देश के कारीगरों मेहनतकशों किसानों मजदूरों की जिंदगी को नारकीय बनाने की योजनाये बनायीं तब उन्हें यह कहाँ पता था की बराबरी या हिस्सेदारी की मांग तो एक ना एक दिन उठेगी जरुर पर ये टालू किस्म के लोग तब सब कुछ टाल गए थे.आज का एक अहम् मुद्दा जिसे अंग्रेजों ने जरुरी समझा था और तत्कालीन ‘विश्वयुद्ध’ की विडंबनाओ की वजह से जिसे कट कर दिया गया था उसे देसी अंग्रेजों ने आज तक टाल कर रखा थोड़ी सी संभावना तब ‘बनी’ जब कांग्रेस की अध्यक्षता एक विदेशी हाथों में है, अगर वैसी ही नियति इन्होने भी अख्तियार ‘न’ की तो वर्तमान समय में पूरे देश से कांग्रेस को जाना होगा, यह जाती का सवाल इतना आसान नहीं है जितना आसान आज के बौद्धिक बरगलस करके तमाम सुविधाभोगी जमात द्वारा आज नहीं सदियों से किया जा रहा जो कुछ इनके भ्रष्ट बेहुदे और विकृत मानसिकता से किया जा रहा है, जिसे वक़्त ने बड़ी बुद्धिमत्ता से यहाँ तक खींच कर खड़ा किया है. आज राष्ट्रीय स्तर पर जिस अपराधिक प्रवृत्ति के लोग देश की सत्ता के नियामक बने है उनकी नियती साफ नहीं है. कहने को वह देशप्रेमी राष्ट्रभक्त आदी-आदी कहे जा रहे है लेकिन सारी संपदाओं पर उनके बहकाओं में आकर पिछड़े और दलित उन्हें सारी सत्ता सौंप देते रहे है आज उनकी मौजूदा हालत के लिए यही पिछड़े और दलित की मानसिकता जिम्मेवार है जहाँ उनकी संख्या तक का लेखा जोखा कराने पर इतना बड़ा समाज असहाय है, इसमे कोई दो राय नहीं की हमारा देश विकास की जिस गति को प्राप्त कर सकता था उसे इन्ही सुबिधाभोगी देशद्रोहियों ने नहीं होने दिया है, फिर ऐसा प्रधानमंत्री जो कहीं से ग्राम प्रधान तक का चुनाव नहीं जीत सकता वह जनता जो ‘वोट’ डालती है उसके लिए क्यों नीति बनाएगा या बनवाएगा वह तो अपने गृह-मंत्री से नंगे भूखों की जायज मांगों पर उन्हें गोलियों से भुनवायेगा.
    आज सारा समाज केंद्र की ओर देख रहा है की वह जातीय गरना पर क्या फैसला लेता है और सदियों की छुटी हुयी आधारभूत मान्यताओं को दरकिनार कराने की साजिश में लगे पूरे तथाकथित समाज बुद्धिजीवियों की विरासत यह देश और दौलत उनकी ही है एसा उनका मानना है. यदि यही हाल रहे तो देश को उन तमाम जातियों को दिल्ली घेरना होगा जिन्हें जानबूझकर छोड़ दिया जा रहा है जिनकी गिनती नहीं हो रही है. नहीं तो सदियों से दबे कुचले लोग जिस जातिवाद का शिकार है उसका कोई निदान करने का उपाय ढूढ़ना पड़ेगा उसका सारा मूल्यांकन तभी होगा जब समग्र इंतजामात करना होगा अन्यथा भारतीय लोकतंत्र का नया स्वरुप गढ़ ही नहीं जा रहा है सर्वत्र दिखाई देने लगा है. राजतन्त्र की पुरानी अवधारणा पर सदियों से लड़ी गयी लड़ाई को दर किनार करके फिर से राजतन्त्र गढ़ा जा रहा है.
    पिछड़ी जातियों और दलितों को भी बांटना उनका सदियों का मोनोपली रही है जिससे उनकी हार होती रहती है, इसी हार के बदले बदलते माहौल के लिए बनाये जाने वाली ताकतों का भी जिक्र उनके द्वारा किया जा रहा है, उनकी दिक्कतें यहीं नहीं खत्म होती है बल्कि वो अब ज्यादा चिंतित हो गए है की कहीं उनकी असलियत खुल न जाय ! आज जब पुरे देश की यह मांग है जाती की पहचान और उनकी संख्या उन्हें यह एहसास हो ऐसी जानकारी से कतराना क्या पुरे अवाम के लिए क्या सन्देश है, जहाँ एक तरफ आई टी और सूचना के अधिकार की बात हो रही हो वहां जातियों की संख्या छुपाने की साजिस का कारण आसानी से समझ आता है पूरी दुनिया इस देश के सबसे खतरनाक इरादे को समझ रही है पर आज के देश के इन्त्ज़म्कारों को यह समझ नहीं आ रहा है.
    ऐसे प्रधानमंत्री को क्यों रहना चहिये जिसे उसकी ही कैबिनेट ही घुमा रही हो,उनके यह सच उनकी अध्यक्ष को जो समझा रहे है उन्हें यह भी समझ में आना चाहिए की यू पी ये -१ के कामकाज में लालू प्रसाद यादव का भी योगदान था मुलायम सिंह यादव ने ही अंततः इन्हें बचाया था जिससे उनकी जनता ने उन्हें उसका सबब भी दिया है. यह इनको भी नहीं भूलना चाहिए की जनता कभी भी सबक सिखा सकती है.
    मेरे द्वारा सम्पादित एक आलेख पर एक मुस्लिम महिला की टिप्पड़ी –
    “बेहतरीन आलेख है मेरी एक निजी अभिव्यक्ति है शायद ये बात तो किसी ने हुसैन मियाँ से पूछी तक न होगी कि जो चित्र उन्होंने बनाया है उसमें जिस तरह से प्रतीकात्मक नग्न स्त्री को भारतमाता जताया है वह “पैंटी” पहने सी लग रही है उसकी योनि नहीं दिख रही है हुसैन चाहते तो उस अंग को भी चित्रित कर सकते थे और हमारे देश में उदार कानून और बौद्धिकता के सहयोग से उसमें गुदामैथुन आदि तक का चित्रण कर देते तो भी इसे हमारे कौल महाशय तर्कसंगत ही मानते। हमारे न्यायमूर्ति धन्य हैं।”

    ”बे-शक” फरहीन नाज़ जी आप को आलेख अच्छा लगा यह जानकर मुझे भी अच्छा लगा. इसका साधुबाद. पर जो कुछ आप अपनी टिप्पड़ी में लिखी हो वाह सब चित्र के हिस्से है पर आपने जस्टिस कौल के बहाने जिस चित्र शास्त्र को नंगा करने की सोच रखती हो माकूल नहीं है बौद्धिकता की बरगलश में चित्र विधा जिसे भारतीय शास्त्रों ने मान्यता दी है सब प्रतीकात्मक है वास्तविक नहीं, यूरोपीय नग्नता की वहाँ उन्हें मान्यता है अतः वह सब अंग प्रत्यंग वहाँ चित्रित है और उत्कीर्णित भी. यथा सोच और ज्ञान में तादात्म्य बढाईये,बाकि सब तो विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल वाले करी रहे है, क्योंकि वह रचनात्मकता विरोधी तो है ही, लम्बे समय से यह देश रचनात्मकता के लिए दलित और विधर्मी को ही उसका उत्तरदायी मानता है यथा – नाई धोबी दर्जी मोची राजगीर पेंटर बढाई लोहार धरिकार चुरिहारिन मेहतर भिश्ती रिक्सवान इक्कावान दुधिया आदी आदी, पर थोड़े दिनों से इस पर भी हमला करने की सुधि बौद्धिक विलाशिता के लोगों ने ली है, जिससे आप जैसों के मनो में यह भावना आई है हुसेन मियां मियां चित्रकार नहीं थे वह भारतीय कला के समग्र उन्नायक है जहाँ भी रहेंगे उसी को बड़ा करेंगे, मैं इस फैसले में काम से काम न्याय के सारे तर्कों से सहमति रखता हूँ काश ‘वो भी समझ पाते’ जिनकी वजह से देश सैकड़ों वर्षों की गुलामी झेल चुका है.

  34. जहाँ तक समझता हूँ जनगणना होनी चाहिए न कि जातिगणना.जातिगणना के पीछे राजनितिक स्वार्थ छिपा है.जिसका उपयोग वे अपने राजनितिक जीवन में करना शुरू कर देंगे .इस समय देश को जरुरत है कि कितने लोग हैं,न कि कितनी जातियों की.इस लिए
    जनगणना का पछधर हूँ न कि जातिगणना.हम तो एक धर्मनिरपेक्ष देश के नागरिक हैं ,पुरादेश एक है फिर जाति कि बात कहाँ से उठती है.

  35. बुद्धिजीवि वर्ग कह लो, ब्यूरोक्रेट्स, साहित्यकार, एंटरप्रेन्योर्स, बड़े कारोबारी, देश की अर्थव्यवस्था को संभालने-प्रबंध देखने वाले या कोई और जब भी ‘प्रोगे्रस’ (आगे बढऩे की) बात करते हैं, तो हमेशा कहते हैं, जाति से ऊपर उठो। मैंने खुद अपने परिवार को शुरू से जातिगत मुद्दों से बाहर पाया। वही संस्कार भी मिले। उसका महत्त्व भी पता चला। …लेकिन जातिगत जनगणना के बारे में जब से सुना है, पता नहीं क्यों उस सिस्टम से ही मन में खटास बैठ गई है, जहां से यह प्रक्रिया शुरू होती है, और जहां इसे पूरी करने के बारे में सोचा जा रहा है।

    जब देश की तरक्की जातिगत समीकरणों के बारह से निकलती है, तो इस जातिगत जनगणना का तमगा लगाकर हम, हमारा सिस्टम क्या प्रूव करना चाहता है। पहले जातिगत जनगणना होगी, फिर अपनी-अपनी जातियों में कथित नेता नारे बुलंद करेंगे। जातिगत द्वेष फैलाएंगे। दावे करेंगे कि वे, उनसे ज्यादा हैं। वे, उनसे मजबूत हैं। जाति के नाम पर इन्हीं आंकड़ों को सभाओं में, बाजार में उछाल कर मानसिक शोषण करेंगे और अपनी-अपनी जातियों में कथित कट्टकरता का हवाला देकर लोगों को बरगलाने, भटकाने का प्रयास करेंगे। क्या फायदा? …आखिर नतीजे जब ऐसे विषय में, बेकाबू निकलते हैं, तो ऐसी प्रक्रियाएं अपनाना कहां तक उचित है? कम से कम मैं तो इससे असहमत हंू।

    आप गांवों में जाएं, पड़ताल करें, उन लोगों के बीपीएल कार्ड बने हुए हैं, जिन्हें जरूरत तक नहीं है। मेरे खुद के गांव में जितनी मैंने जानकारी जुटाई, तकरीबन 35 बीपीएल कार्ड धारकों में एक ऐसा व्यक्ति है, जिसे उसका वाकई लाभ मिलना चाहिए। शेष तो भाई-बंदी, सरपंचाई, नेतागिरी में बने कार्ड हैं। अब इस जातिगत जनगणना से हम किसी जाति विशेष को लाभ दिलाने की योजनाएं बनाने का डंका पीटें, तो देश की तरक्की में कहां तक सार्थक होगा। सही देखें, तो यह बिलकुल वैसा ही कदम है, जैसे एक कंपनी के पास इंफ्रास्ट्रक्चर तो है, लेकिन उसे उसका उपयोग करना नहीं आता। बिलकुल वैसे ही ऐसी जनगणनाओं के भरोसे योजनाओं को प्लान करने की बजाय, बीपीएल या दूसरी किसी श्रेणी में जरूरत मंदों को लाया जाए, आर्थिक आधार को तवज्जो दी जाए, तो इसके दूरगामी परिणाम सफल होंगे।

    लोग कहते हैं गरीबी मिटा देंगे। मत मिटाओ। उस गरीब को किसी रोजगार से जोड़ दो, वो खुद अपनी गरीबी मिटा लेगा। अब आप जाति से जोड़ोगे, तो कोई उसका मानसिक शोषण कर ले जाएगा, वह देखता रहेगा और उसी गरीबी के कुचक्र में फंसा रहेगा। आर्थिक आधार पर प्राथमिकता देकर सीधा रोजगार मुहैया करवाया जाए, तो सरकार को ऐसी जातिगत जनगणनाओं पर सोचने की जरूरत ही ना पड़े। वर्ना मेरी नजर में तो यह जनगणना महज एक ऐसा तमाशा है, जिसे देखने के बाद तमाशा दिखाने वाला भी नुकसान में और देखने वाला भी नुकसान में।

    शुक्रिया प्रवक्ता ने उम्दा मुद्दा उठाया।

  36. वर्तमान जनगणना……

    जातीय जनगणना से कुछ पार्टियाँ और समुदाय क्यों भयभीत हैं? क्या इस लिये कि वस्तु स्थिति सामने आयेगी और जो कमज़ोर जातियां उभरकर सामने आयेंगीं, उन्हें विकास करने के अवसर मिलेंगे. ये भी पाता चलेगा कि एक अरब १५ करोड़ की जनसँख्या वाले देश में किस जाति की क्या स्थिति है. आज़ादी के समय इस देश की आबादी मात्र ३५ करोड़ थी. पाकितान और आज के बंगलादेश की जनसँख्या मिलाकर ७ करोड़ थी. विभाजित भारत में तब मुसलमानों की जनसँख्या ५ करोड़ थी, ६० वर्षों में यह आबादी १५ करोड़ हो गयी. तब इस देश में हिन्दुओं की जनसँख्या ३० करोड़ थी, जिसमें कुछ प्रतिशत ईसाई भी शामिल हैं. आज ईसाई एक करोड़ से अधिक हैं और हिन्दुओं की आबादी ९५ करोड़ है जिसमें सिख समुदाय को भी सम्मिलित किया जा सकता है. आर्थिक रूप से इस देश में ब्रह्मण, बनिया और जो समुदाय विभाजन के बाद भारत में आकर बसा, वह विगत ६० वर्षों में बेहद मज़बूत हुआ.राजनीति प़र उसकी पकड़ भी बराबर बनी रही और सर्वोच्च पदों प़र वो अपना वर्चस्व बने रखने में सफल रहा. दूसरी जातियां और समुदाय उस तेज़ी से नहीं पनप पाए जिस तेज़ी से उक्त जातियां पनपीं. कहने को बहुत कुछ है किन्तु अभी कहने का समय नहीं है. योजना के तहत जो कार्य हो रहा है, उसे होने देना चाहिए. यही अक्लमंदों की अक्लमंदी है

  37. मैंने प्रवक्ता के विचार भी पढ़े और सभी साथियों के भी, मुझे एक बात समझ में नहीं आई कि सब ये क्यों कह रहे हैं कि इस जाति आधारित जनगणना से देश जातियों में बाँट जायेगा। जहाँ तक मुझे पता है ये देश मनु के समय से ही जातियों और वर्गों में बटा है हर वर्ग ने जाति ने अपने अपने दायरे में खुद को प्रफुल्लित किया है। नेतायों ने इन्ही जातिगत भावनाओं को भुनाया बहुत सारी जातियों ने जाति-राजनीती के गठजोड़ में खूब चांदी कूटी, आरक्षण करवाए नौकरिया ली और जाति आधारित राजनीति की आज जब ये चरम पर पहुंच चुकी है तो सब इस पर चिंता जता रहे हैं। आज देश की हर सुविधा, नौकरी, दाखिले में २५ से ४० प्रतिशत तक जाति आधारित आरक्षण है जिसका जायज़ कम और नाजायज़ फायदा जायदा उठाया जा रहा है उसमें भी भाई भतीजावाद हावी है जिस देश के जन जन में की नीव में जाति है उसकी जनगणना अगर जाति आधारित हो जाएगी तो क्या तूफ़ान आ जायेगा. जनगणना में आर्थिक मूल्यांकन का कालम होता ही है जाति आधारित जनगणना से पता चलेगा के कोण सी जाति आर्थिक रूप से कितनी मज़बूत या कमज़ोर है और कौन सी जाति आरक्षण का नाजायज़ फायदा उठा रही है। अगर ईमानदार भावना से ये जाति आधारित जनगणना की जाती है और इसके परिणामो को सकारात्मक नज़रिए से प्रयोग किया जाता है तो ये काफी क्रांतिकारी नतीजे दे सकते हैं जैसे कि बाबा अम्बेडकर ने कहा था कि समय के साथ आरक्षण कम होते होते ख़तम होना चाहिए जाति-अर्थ आधारित जनगणना से पता चलेगा कि कौन सी जातियां आरक्षण कि वजेह से सुदृढ़ हुयी और कब उनकी आरक्षण कि ज़रूरत ख़तम हो गयी इसे चरणबद्ध ढंग से आरक्षण ख़तम करना होगा साथ ही उच्च कही जाती जातियों के आर्थिक रूप से कमज़ोर लोगो के लिए भी कुछ योजनाएं बन सकें तो बेहतर होगा। सिर्फ योजनाएं आरक्षण नही। जातिगत आरक्षण चाहे बैकवर्ड क्लास के लिए हो या फॉरवर्ड दोनों के लिए ही खतरनाक है। सो ये जातिगत जनगणना हो जाने से से देश का भला हो सकता है अगर राजनैतिक और राष्ट्रीय इच्छाशक्ति हो तो…

  38. प्रिय साथियो,
    ऐसा माना जाता है कि जब ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ यहाँ आई थी तब भारत के असंख्य गांव या कस्बे आपस में इतने जुड़े हुए नहीं थे. पर ब्रिटिश ने धीरे धीरे भारत को शारीरिक रूप से जोड़ कर एक बनाया और साथ ही अपना सरकारी तंत्र भी यहाँ लागू किया जिस के फलस्वरूप जो ‘जाति-प्रथा’ थी (जिस में सभी जातियां अपनी अपनी जगह बनाए कमोबेश शांतिपूर्वक रहती थी), वह ‘जाति-चेतना’ में बदल गई. ‘जाति- प्रथा’ से ‘जाति-चेतना’ तक पहुंचना स्वाभाविक था और ब्रिटिश की योजनागत मजबूरियों के तहत उसे अपने नौकरशाही तंत्र के लिए अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों की सूचियाँ भी बनानी पड़ी. कुल मिला कर देश क्यों कि शारीरिक रूप से जुड़ गया जिस में रेल, अखबार, डाक तंत्र आदि ने अपना भरपूर योगदान दिया तथा अनचाहे ही सामजिक स्तर पर भी जाति चेतना काफी तीक्ष्ण रूप धारण कर गई. इस में ब्रिटिश को कोसने की ज़रूरत नहीं क्यों कि जाति प्रथा के दौरान सभी जातियां शांतिपूर्वक तो रहती थी पर निम्न जातियों को अपनी ज़लालत भी स्थिति का अधिक अहसास नहीं था और वे ब्राह्मण वर्ग की लताड़ना प्रताड़ना सह कर ही शांतिपूर्वक रहती थी. ‘जाति-चेतना’ व अपने से ऊंची कहलाई जाने वाली जातियों के दुर्व्यवहार के विरुद्ध मन में आक्रोश महसूस करना शायद ज़रूरी भी था. बाबा साहेब के उद्गम से यह चेतना कई गुना बढ़ गई और दलित वर्ग स्वयं की उपस्थति महसूस करने लगा. बाबा साहेब ने दलित वर्ग को शिक्षा दी कि केवल सामाजिक स्तर पर मंदिरों में प्रवेश या ऊंचे लोगों के तालाब से पाने पीने की इजाज़त मिलना समाधान नहीं, वरन शिक्षा व नौकरी के राजनीतिक अधिकार मिलना और अधिक ज़रूरी है. एक समय ऐसा आया कि आज़ादी भी मिल गई और संविधान ने ‘समानता’ का सिद्धांत अपनाया जिस के अंतर्गत सभी जातियों के लोग बराबर माने जाने लगे. परन्तु संविधान की इस पवित्रता का राजनेताओं ने खूब दुरुपयोग किया. ब्रिटिश काल में ही बाबा साहेब को यह शिकायत रही की अछूतों की संख्या को जनगणना में जान बूझ कर कम दिखने की साज़िश हिंदू उच्च-जाति ने की. फिर आज़ादी के बाद मंडल आयोग ने भी बेहद पवित्र तरीके से ‘अन्य पिछड़े वर्गों’ को रेखांकित किया. पर हुआ यह् कि सर्वेक्षण के स्तर पर किया गया अच्छे से अच्छा काम वोटों की लोभी राजनीती के आगे बलि चढ़ गया. मंडल-आरक्षणों को ले कर जो जानलेवा राजनीति खेली गई जिस में नौजवानों को आत्मदाह तक के लिए उकसाया गया, वह हम सब से छुपी नहीं. शायद ‘जाति-जनगणना’ में भी यही होगा. जनगणना करने वालों का उद्देश्य पवित्र होगा कि हम अपनी सूरत को आईने में देख कर सोच सकें कि आगे क्या योजना बनाई जाए. परन्तु वास्तविक तस्वीर कुछ और ही होगी. देश के लोभी-लालची नेता उन आंकड़ों का दुरुपयोग कर के जातियों के बीच युद्ध बढ़ाएंगे ही, न कि घटाएंगे. अपना देश ‘जाति -प्रथा’ से चल कर ‘जाति चेतना’ से होता हुआ इन्हीं नेताओं की मेहरबानी से ‘जाति युद्ध’ तक पहुंचा है. इस लिए इस प्रकार की जनगणना का दुरुपयोग ही अधिक होगा व दुष्परिणाम ही अधिक निकलेंगे. यदि जातियों से जुड़े आंकड़े बनाने ही हैं, जो कि ज़रूरी भी लगते हैं, तो वे जनगणना का हिस्सा बन कर नहीं बल्कि किसी स्वतंत्र गैर-सरकारी सर्वेक्षण द्वारा अलग से किये जाएँ तो बेहतर. धन्यवाद – प्रेमचंद सहजवाला

  39. 1857 की क्रांति से भारत में राष्‍ट्रवाद की जो लहर चली थी, उसे रोकने के लिए अंग्रेजों ने जातीय जनगणना का सहारा लिया और इसकी शुरुआत 1871 में हुई। कांग्रेस के विरोध के कारण 1931 के बाद से जाति के आधार पर गिनती नहीं की गई। इसके पीछे कारण था कि इससे देश में जाति विभेद बढेगा।इस विचार को कांग्रेस भाजपा के नेताओं, कुछ विवेकशील मुस्लिमों सहित देश की मुख्या धारा के अनुसार राष्‍ट्रवाद की लहर को रोकने के प्रपंचों में एक है जातिगत जनगणना।संविधान की मूल
    भावना राष्ट्र को जातीय आधार पर नहीं देखती किन्तु सभी जगहें जाति की बात व आरक्षण उन जातिओं के नहीं; उनके मुट्टी भर प्रभावी लोगों, बाँट कर राज करने वाले नेताओं, उनकी शह पर कामचोर बेईमान संरक्षण पाते बाधाओं को कानून की धमक से दूरकर हरामखोरी करने वालों के ही कम आया है।केवल वही अपनी स्वार्थ बुद्धि से इसके पक्ष में जाति उत्थान की बात करते हैं, जो उनके(पिछड़ों के) नाम पर स्वयं मलाई खाते हैं।

  40. ………
    Believe me this is only a cunning strategy by RANGE SIYAR like RAJA who is now a pet of AMERICA so to divide the nation – the integrated BHARAT left out part of HINDUSTAN .

    Cast is for social custom recognition of each other and in known personal relations like marriage and other work what govt is to do to count the no EXPLAIN. The policy making work is to be done as per EVERY INDIAN as a whole not to count this to be and that to be. They are unable and they and unwillingness to do work for Indian common man but interested to rep a order and recognition by remote planed USA—- 9313450055.

  41. इस बात का उत्तर एक वाक्य में कि ”जाति आधारित जनगणना नहीं होनी चाहिए.”

    वर्तमान राजनीतिक पार्टियां वही कर रहीं है जो १८५७ के बाद अंग्रेजों ने किया था. अब समय आ गया है कि जनता जागरूक हो.

    रूपसिंह चन्देल

  42. जनगणना हो रही है यह बहुत बढ़िया बात है, लेकिन इसमें जाती कान्हा से बिच में आ गई.| एक तरफ तो आप कह रहे है की सभी भाई भाई है, हम भारतीय है हम सब एक है| तो फिर एक बनकर ही रहना चाहिए |
    अभी धीरे धीरे देश से यह जाती रुपि जहर दूर हो रहा है,सभी बड़े छोटे एक ही संत बैठकर भोजन कर रहे है| तो फिर क्यों सरकार इस जहर को समाज में घोलना चाहती है| क्यों हम भारतीयों को एक दुसरे से अलग कर रही है | जब सर्कार हम सबको एक जुट नहीं रख सकती है तो हमें अलग करने का भी कोई अधिकार नहीं है|
    यह सरकार की वोट बैंक निति है |
    अभी तक तो मजहब के नाम पर हिन्दुस्तानी लड़ाई किया करते थे और अब जाती के नाम पर भी शुरू हो जायेंगे |
    सुरेन्द्र ठाकुर दिल्ली

  43. जातिगत जनगणना बिलकुल नहीं होनी चहिये, क्योंकि ऐसा करना देश के संविधान के खिलाफ होगा.
    इससे देश की प्रगति नहीं, दुर्गति होगी.
    जनगणना का मकसद देश की आर्थिक समस्याओं को समझना और उनको सुलझाना है. इस लिए धार्मिक या जातिगत गणना का देश की उन्नति के लिए कुछ भी ज़रूरी नहीं है. ज़रूरी है यह पता लगाना कि जनता के कौन से वर्ग हैं जिन्हें विशेष सहायता की ज़रूरत है.

  44. हिन्दुस्तान की फ़िज़ा में सबसे ज़्यादा ज़हर तो ‘मज़हब’ के नाम पर घोला जा रहा है…सबसे ज़्यादा दंगे ‘मज़हब’ के नाम पर ही हुए हैं…मुल्क का बंटवारा भी ‘मज़हब’ के नाम पर ही हुआ है… अब कश्मीर भी ‘मज़हब’ के नाम पर ही हिन्दुस्तान से अलग अपना वजूद क़ायम रखना चाहता है…

  45. Just like “Unity in diversity”. This is self contradictory ! On one hand Indian Constitution says no to Caste and on the other hand every thing is based on caste in the Government. This has actually helped the “forces that be” to shred this Country which was intact for thousands of years atleast spiritually. There are lakhs of familes which got effected by this Caste based goodies by the successive governments. These crores of people are from the so called upper caste, Brahmins, Kshatriya and Vasiya! Especially Brahmins. This is much worst then the holocaust. This Caste based discrimination by the Government of India needs to stop now. We in the Constitution have “SC and ST atrocities act” but do we have a “Prevention of Atrocities against Archakas and Pandits”? No we don’t. Its always sc, st, bc and minority!!!! what about the minority in Hindu? Due to the moronic policies of GoI lead by Congress mostly, this Country has become an insecure place to stay.
    Give resource to everyone in the Country but why the appeasement? 60+ years of injustice in the name of Caste reservations is enough, its time for a truly secular times ahead. Caste and Religion are at best kept inside the home. Say NO TO CASTE CENSUS!

  46. मेरे मत में ‘जनगणना ‘होनी चाहिए न कि जातिगणना .
    जाति गणना के इन आंकड़ों का दुरूपयोग ही होने की संभावना अधिक है.

  47. सामना और पांचजन्य के बाद प्रवक्ता में ही इतना राष्ट्रवादी विश्लेषण पढ़ने को मिलता है.प्रवक्ता की भी चिंता यही है की जातिवार जनगणना से राष्ट्र बिखर जाएगा, समाज बिखर जाएगा, मेरा सीधा सा सवाल इन विद्वानों से है की तुम्हारा समाज एक कब था और अगर जिसे तुम कहते हो और जिसके बिखर जाने का डर तुम्हे है तो वह तुम ब्राहमणों के लिए शेष बड़े समुदाय के शोषण के बाला परा था. साफ क्यों नहीं कहते की डर अपनी सत्ता जाने का है, सामाजिक बर्चाश्व टूटने का है. वैसे भी राष्ट्र-राज्य एक कल्पित समुदाय मात्र है जिसे भगवा झंडे से एक नहीं किया जा सकता. वह एक होगा समानता से, न्याय से.

    • aap ne bilkul sahi vichar diya hai desh me jab bhi kisi nichle jaati ki mudda aata hai rastrawd aazadi savindhan sab samne aa jaate hai lekin jab pujipati samprdayi k log pure desh ko khokhla kar rahe to muddo ko hindu rastrwad muslim aatankwad se jodkar dhyan nahi dete
      bhrastachar ko bhool jaate hai ucch jatiwad ko bhool jaate hai

  48. जाति को जाने के लिए कहनें से पहले हमें अपनें नामों से उपनामों को हटाना होगा। हम अपनें लिए केवल इतना भर नहीं कर सकते और देश की सामजिक स्थिति को चुनौती देनें की बात करते हैं? कितने लोग है जो ऐसा करनें के लिए तैयार है? हमारे शादी-ब्याह रीति-रिवाज़ और संस्कृति जिसकी दुहाई देत हम थकते नहीं है, क्या हम उन्हें छोड़ पाए हैं? जन्म से मृत्यु तक के सारे धार्मिक आडंबर हम आज भी निभाते है, और वे सभी हर जाति के लिए अलग-अलग है ये भी जानते हैं। क्या हम उनसे आज तक विमुख हो पाए है? अख़बारों में शादी के विज्ञापन से लेकर मीडिया की नौकरी तक में जाति अहम भूमिका निभाती है। लेकिन जब समाज के किसी भी कमज़ोर वर्ग को उपर उठानें की बात होती है तो देश बटा सा लगता है, सामाजिक समरसता का नया ताना-बाना बुना जाता है, अख़बारों में बड़े-बड़े पत्रकार आरक्षण के खिलाफ एक मुहिम छेड़नें लगते है, टेलीविजन के एंकर अपनें चौरसिया-पचौरी-आजवाणी-दत्त-वाजपेयी उपनामों की जगह कुमार लगानें लगते है या कि आर्थिक आधार(जिसकी वो सराहना करते है) के उपनाम लगाते है, जैसे दीपक करोड़पति, पंकज लखपति, किशोर दसलखपति, पुण्य प्रसून हज़ारपति, बरखा करोड़पति…इत्यादि? आरक्षण की बात आती है तो हम कहते है कि हम जाति के आधार पर भेद के खिलाफ है, हम जाति के आधार पर किसी भी प्रकार का भेद (केवल, शिक्षा और नौकरी में) नहीं रखना चाहते। क्यों? बाकि तो जैसे सभी जगह हम अपनें सभी संबंध बनाते समय केवल किसी की आर्थिक स्थिति को देखकर ही उससे संबंध बनाते है, हां शायद बनाते है लेकिन वो केवल व्यापारिक होता है, समाजिक नहीं। सामजिक संबंध बनाते समय हमारा ध्यान सीधा किसी की जाति पर जाता है। हम नहीं सोचते की उसकी शिक्षा या आर्थिक स्तर क्या है, क्योंकि हम जानते हैं कि हम जिस समाज में रह रहे है उसमें जाति सामजिक संबंध स्थापित करनें का मुख्य आधार रही है और ये स्थिति जस की तस बनीं हुई है। फिर हम तुर्रा देते है कि ओबीसी को आरक्षण नहीं मिलना चाहिए, जाति आधारित आरक्षण नहीं होना चाहिए, किस आधार पर आरक्षण हो रहा है, जनसंख्या का आंकड़ा नहीं है? क्रीमी लेयर को बाहर करो, यूनाईटेड स्टूडेंट्स, यूथ फॉर इक्वैलिटी पता नहीं क्या-क्या…।
    अब जब बात देश में जनसंख्या की जातिगत गणना की बात आई तो किसी संगठन ने नहीं कहा कि हां ये सही है, हमनें तो ये भी मांग किसी 2005 में। पता तो चले कि देश की निम्न और कमज़ोर समझे जानें वाली जाति की क्या संख्या और स्थिति है। हज़ारों सालों से सेवा करवानें वाला वर्ग आज भी किस रूप में समाज के उसी वर्ग से उसके लोकतांत्रिक अधिकार छीन रहा है। डरते क्यों हो दोस्तों, बात तो आपकी ही रखी गई है, खुद को डाक्टर बता कर अपनें काम को ना करनें वाले पहले मरीज़ों की संख्या पर सवाल उठाते थे की कोई बीमार ही नहीं है तो इलाज किसका करें? अब जब पीड़ितों की गिनती हो रही है तो खुद की पोल खुलनें का डर लग रहा है…? वाह

  49. मेरी निजी अवधारणा रही है कि भारत में रहने वाला हर एक भारतीय है.जाति, धर्म,संप्रदाय हर एक का निजी मामला हो सकता है लेकिन उसकी राष्ट्रीयता सर्वोपरि है इसलिए राष्ट्र को निजी मामले में हस्तक्षेप से बचना चाहिए.सम्राट अशोक, बादशाह अकबर के बाद जिस अखंड भारत की भौगोलिक सीमा में आज हम हैं, उसे अक्षुण्ण रखना राष्ट्र का परम धर्म होना चाहिए.विश्वास जीतना बहुत कठिन है लेकिन तोड़्ना बहुत आसान है, ऐसा हमारे बुजुर्गों ने कहा है.

  50. jaati aadharit jangananaa ki aavshykata aaraksan se sambandhit he, vastav me aaraksan to garib, vanchito ke liye savidhan dwara di gayi suvidha he, to isme jati ka kya role h…!!! hamare netao ko chahiye ki ab aaraksan aarthik aadhar par dene ki pahal kare,, koi to esa neta aage bad kar bole ki aaraksan aarthik aadhar par ho… lekin ham jante he ki neta esa karenge nani kyoki…. phir rajniti kese karenge…… ha ha ha

  51. परम्परागत जाती को छोड़कर सरकारी जातियों का निर्माण किया गया अनुसूचित जाती , जनजाति , पिछड़ी जाती . ये कैसा संविधान और कैसा प्रजातंत्र . भीडतंत्र है यह

  52. Yedi Jati ke certificate Bante jaatein mein koi burai nahin hai to jaati aadharit janganna mein kya problem hai. Lekin yeh desh ke liye ghatak hone ja raha hai.
    ismein pratyek jaati ka apna swabhimaan jaagrit hoga jo sambhale nahin sambhlega.

  53. परिवार, गोत्र, जात, समाज, पंथ, देश और दुनिया.
    – पंकज झा.
    दो रात के बाद मात्र एक दिन का होना या दो दिन के बाद मात्र एक रात को होते रहना, यह दोनों प्रकृति की निरपवाद सच्चाई है. निर्भर यह आप पर करता है आपका नज़रिया क्या है. आप इन दोनों सच्चाइयों में से किसे अपना मानते हैं या मानना चाहते हैं. जैसे आधे गिलास पानी को आधा भरा हुआ या आधा खाली मानना दोनों मानव मात्र का नैसर्गिक अधिकार है. आपको जो पसंद वो चुन सकते हैं. लेकिन एक पत्रकार की मार्मिक मृत्यु के बहाने नकारात्मक नज़रिया को मानने तथा उसे लोगों तक संक्रमित करने वाले पेशेवरों की आजकल बहार आई हुई है. अभी तक इलेक्ट्रोनिक मीडिया को टीआरपी कबारने के लिए उचित ही कठघरे में खड़ा किया जाता रहा है. लेकिन इस घटना के बाद तो वेब पत्रकारों की बल्ले-बल्ले हो गयी है. मात्र एक इस ‘बलिदान’ ने ही न जाने कितने हिन्दी साईट की ‘एलेक्सा रेटिंग’ सुधार दी. मामला नया लेकिन तरीका वही पुराना. बस अपने हिसाब से अपना दुश्मन और दोषी चुन लो और तमाम शाब्दिक मर्यादाओं को तिलांजलि दे कर बखिया उधेरने में पिल पडो . आम के आम गुठलियों के दाम. बिना किसी मोल चर्चित हो गए, भड़ास निकाल दी सो अलग और उपर से बोनस में अपने ही मां-बहन से लेकर जात-गोत्र-मज़हब-समाज-देश और दुनिया को गाली देने की ‘सुविधा’ अलग से. गाली भी ऐसे-ऐसे जिसे पढ़ या सुन कर आप पानी-पानी हो जाए. ‘कितनी आसानी से मशहूर किया है खुद को, अपने से बड़े शख्श को गाली देकर.’

    किसी भी ‘भविष्य’ के मौत हो जाने पर दुखी होना मानव-पना है. अगर आपकी अध्यात्म में आस्था हो तो सही ही आप दूसरों की अनुभूतियों के सहचर होना चाहेंगे, किसी की भी वेदना से खुद को ‘सम’ करना चाहेंगे. लेकिन इस जनगणना के बाद शायद डेढ़ अरब संख्या को पार कर लेने वाले अपने देश में जाने और ना जाने कितनी ऐसी घटनाएं इस एक माह में हो गयी होगी. कितनी ललनाएं विभिन्न उपरोक्त बहानों के कारण मौत के घाट उतार दी गयी होगी. लेकिन क्या उन सबको अपने हाल पर छोड़ देना संवेदनहीनता नहीं है. केवल इसलिए कि उपरोक्त घटना दिल्ली के गोरे लोगों से संबंधित है, बाकी किसी पीड़ितों की खोज खबर ना ली जाय? व्यावसायिक दृष्टिकोण से यह सही हो सकता है लेकिन मानवीय या पेशेवर नैतिकता का तकाजा क्या है? सवाल केवल आलोच्य घटना का ही नहीं है. शीर्षक में वर्णित सभी बातों के प्रति अभी ख़बरों की फसल लहलहा रही है. एक इसी तरह की घटना में तो ‘कातिल भाई’ गिरफ्तार भी हो गया था. उससे ‘अपराध’ भी उगलवा लिया गया था. लाशें भी बरामद कर ली गयी थी. और बाद में ‘मृत जोड़ा’ अपने ज़िंदा रहने देने की अनुमति लेने थाने में हाज़िर हो गया. तबतक तो पता नहीं उस हत्यारे भाई की कलमवीरों ने कितनी लानत-मलानत की. एक और इसी तरह की खबर अभी इलाहाबाद से आ रही है. लेकिन इन सभी ख़बरों पर इंटरनेट के वीर मलाईदार तबके ने किसी भी तरह का नोटिस लेने की ज़हमत नहीं उठायी. तो ज़रूरत इस बात की है कि इन सभी ख़बरों का सम्यक विश्लेषण करते हुए हम एक बहु-जनोपयोगी रास्ते के बारे में सोच कर एक बीच का रास्ता निकालें.

    कुछ अन्य ख़बरों पर गौर करें. एक से एक चर्चित एवं ऐतिहासिक महत्व के फैसले देने में विख्यात इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने हाल के एक फैसले में कहा है कि बिना मज़हब बदले किसी हिंदू लड़की के साथ मुस्लिम की शादी गैरकानूनी है. शायद अब ऐसे किसी लड़के पर आपराधिक मामला चलाया जाएगा. यानी ‘मैं ईद मनाता हूं और मेरी बीबी दिवाली’ इस फैशन को नाजायज़ कहा जाएगा. इसी तरह भारत सरकार ने तमाम दबावों के बाद यह तय किया है कि जनगणना में ‘साधू’ की जात भी पूछी जायेगी. ज्ञान के तलवार के अलावा जाति के म्यान को भी ‘पडन’ नहीं रहने दिया जाएगा. फिर हरियाणा के खाप पंचायतों ने यह तय किया है कि उनकी परम्पराओं को समर्थन नहीं देने वाले समूहों, नेताओं का बहिष्कार किया जाएगा. उनकी इस धमकी के बाद कांग्रेस सांसदों सहित सभी नेताओं वोट खोने के डर से समर्थन का तांता लग गया है. एक बड़े किसान नेता टिकैत ने तो पिछले दिनों ‘आनर किलिंग’ को ही जायज़ ठहराने की बेजा कोशिश की थी. तो आप कोई भी बात माने या नहीं माने, एक हद तक अपना संविधान आपको इसकी स्वतंत्रता देता है. लेकिन अपनी बात को थोपने या हर तरह के असंसदीय शब्दों का इस्तेमाल करते हुए अपने को सबसे बड़ा बुद्धिजीवी मानने की कोशिश की तो भर्त्सना की ही जानी चाहिए. अभी तक संविधान में सौ के करीब संशोधन हो चुका है. तो अगर जनभावना यह हो कि कुछ और संशोधन कर विभिन्न समाज के मान्य परम्पाराओं का विधि-निषेध किया जाय तो इसमें क्या आपत्ति है? अगर हिंदू क़ानून के इतर हर संप्रदायों में उनकी मान्यताओं को ही ‘क़ानून’ बना दिया गया हो तो क्यू नहीं बदली परिस्थितियों में ‘खाप’ जैसे पंचायतों के विचारों पर भी गौर किया जाय. उनके तुगलकी फैसलों का, क़ानून हाथ में लेने का ज़रूर भर्त्सना किया जाना चाहिए. दोषियों को दण्डित भी किया जाना चाहिए, परन्तु हम लोकतंत्र की सबसे छोटी लेकिन सबसे मज़बूत इकाई ‘पंचायत’ की एकदम से उपेक्षा भी तो नहीं कर सकते हैं. अगर लोकतंत्र के हत्यारे नक्सलियों तक से बातचीत के बारे में केंद्र सोच सकता है तो मध्य मार्ग अपना कर उन पंचायतों की बात क्यू नहीं सुनी जानी चाहिए?

    मोटे तौर पर हर तरह के रीति-रिवाज़ या क़ानून लोगों के लिए ही होता है. समाज व्यक्ति के लिए होता है ना कि व्यक्ति समाज के लिए. लेकिन यह ज़रूर है कि अगर कोई ज्यादा समस्या नहीं हो तो निश्चय ही समाज की मान्य परंपराओं का आदर किया जाना चाहिए. इससे भी महत्वपूर्ण बात ये कि अगर बाकी हर पंथ एवं सम्प्रदाय के लिए उनकी परंपराओं को मानने की इजाज़त हो तो हिंदू समाज के अंतर्गत आने वाले समूहों के मांग पर तो कम से कम गौर किया ही जाना चाहिए. सीधी सी बात है किसी भी तरह का अतिवाद चाहे वह सरकार द्वारा किया जाय या समूहों द्वारा, आतंक की पहली सीढी हुआ करता है. कई बार केवल बात सुन भर लेने से कई समस्या हल हो जाती है. जबकि इसके उलट जबरदस्ती किसी समाज को लांछित करने से नए तरह का आतंकवाद पैदा होता है. अगर अभी तक हर तरह के तुष्टिकरण के द्वारा भी असंतोष को दबाया गया हो तो सरकारों से यह अपेक्षा कि ‘खाप’ की बात भी सुने. गोत्र आदि के बारे में उत्तर भारत के मान्य परम्पराओं को भी इस तरह नज़र अंदाज़ ना करें. फैसला क्या ले यह अलग बात है, लेकिन कूद कर नतीजे पर पहुच जाना तथा समूहों के विचार को जबरन दबाना नए तरह की समस्या पैदा करता है. ढेर सारे असंतोष और आतंक से कराहते इस देश में ‘खाप’ समूहों की ताकत के प्रति संवेदनशील रवैया अपनाना बाजिब होगा.जहां तक युवक-युवतियों का सवाल है तो उन्हें भी यह सोचना होगा कि जितना वह अपने परिवार के करीब होंगे उतना ही समाज, देश और दुनिया के प्रति भी जिम्मेदार हो सकते हैं. अतः अगर कोई आपवादिक कारण नहीं हो तो मूलतः केवल एडवेंचर के लिए ही सभी रीति-रिवाजों को ठेंगा नहीं दिखाएँ. ढकोसलों को ढोना या अन्धविश्वाश को प्रश्रय देना निश्चय ही उचित नहीं है लेकिन याद रखें….सभी रिवाज़ ‘ढकोसला’ ही नहीं हुआ करते. मोटे तौर पर परिवार, गोत्र, जात, समाज, पंथ, देश और दुनिया एक दुसरे के समानुपाती ही हुआ करते हैं. एक स्वस्थ समाज में इन सभी में कोई बैर नहीं है. आप उतना ही भारत मां के करीब हो सकते हैं जितनी श्रद्धा आपको अपने मां में होगी.जब भी इन सभी चीज़ों के बीच द्वंद की स्थित आये तो ‘तुलसी’ कू याद कर लेना श्रेयष्कर होगा. उन्होंने मानस में कहा है प्रथम मुनिन्ह जेहि कीरति गाई, तेहि मागु चलत सुगम मोहि भाई.
    ————————–

  54. uf!aisa hee hotaa rahaa to Ambedkar ke annihilation of caste ka kya hoga ?
    hum kab tak apne jhoond ke bheetar rahkar sochte rahenge ,independently sochne waale citizen hum kab banenge?
    apne hi jaati ke powerful hissa jaate ke aankdon se khelkar kab tak kamzor hisse ko madhyayug me latkaaye rakhenge.
    aur bhi kai sawaal hain.kabhi vistaar se.
    Manoj Kumar Jha,Darbhanga

  55. (१) नेतृत्व के निर्णयों के फल सारे देशको बंधनकारक होते हैं, और भोगने पडते हैं, जैसे एक पिता के निर्णय उसकी संतानका भविष्य सुधारते-बिगाडते हैं। ठीक उसी प्रकार नेतृत्वके निर्णयभी देशको आगे या पीछे ले जानेमें कारणभूत होते हैं।
    उदाहरणार्थ: आज यदि एक विशेष नागरिक समूह कश्मीरसे निष्कासित हुआ है, या, हिंदीको राष्ट्रभाषाका सम्मान प्राप्त नहीं है, या ४० हजार वर्ग मील भूमिपर चीन अधिकार कर बैठा है, या पाकीस्तान और बंगला देश भी बने हुए है,. जहां पर सिख, हिंदू, इसाइ इत्यादि समूहोंपर अत्याचार और अन्याय का समाचार प्रतिदिन आते रहता है। आतंक भी वही फैला रहा है।—–
    तो निश्चित रूपसे कहीं न कहीं हमारे नेतृत्वने ५०-६० वर्ष पहले, जो गलत निर्णय लिए थे, वही कारण है। नहीं तो और कारण क्या है? आप बताएं?
    किसीको दोष नहीं दे, पर इतिहासका पाठ ना सीखे, इतने मूरख भी ना बने।
    नेतृत्व का मौलिक संबंध “नेत्र” से है। अर्थ है, जो दूरकी (और पासकी भी) देख सकता है, और उसे देखते हुए देशकी जनताका दिशा दर्शन कर सकता है, वही वास्तविक नेता है। सही निर्णय लेकर राष्ट्रको उस निर्णयके पीछे प्रेरितभी करता है, वही नेतृत्व है, वही नेता है।
    आजके बौने,(शरीरसे अर्थ अभिप्रेत नहीं) अल्पदृष्टा, निकट दर्शी नेतृत्वसे, क्या दूरगामी दृष्टिकी अपेक्षा की जा सकती है?
    जाति आधारित जन गणना हमें और दुर्बल बनाएगी। आगे इसका गलत उपयोग होनेकी पूरी संभावना है। इसका विरोधही होना चाहिए।

  56. The census is the way to collect data about the citizents of India. The data if it vast, it is better. It would help to gauge the economic well being, educational levels, human resource development. This is also an assesment of national wealth in terms of working hands available to built the Nation and at the same time Nation’s responsibility to reach up to those people where it could not so far.
    The politicians who are demanding to add caste factor into this national exercise with fore mentioned objectives are trying to count their VOTES by dividing the society on the basis of caste, religion and language. The great Indain nation has already suffered many divisions on the basis of religion (Pakistan) and language (formation of new states in independent India, divide in North & South politics). The division on the basis of classes turned into Mandal Commision divided our political system on the basis of Backward and Forward Classes, which turned into castes be it backward or forward.
    Please do not divide India further. Let there be some Indains left in INDIA, instead of Hindus, Muslims,Sikhs,Christians etc. Let there be some Indians who are not from Reserved castes,backward castes and Non reserved castes.

  57. जाति सामाजिक एकता की राह में सबसे बडी बाधा है। परन्‍तु अजीब विडंबना यह भी तो है कि जो कल्पना संविधान रचयिता डॉ. बाबासाहब अंबेडकर ने की थी। वह केवल कल्‍पना ही रही यथार्थ में तो सबने इसका उलटा ही किया, उपर से जब जातियों को लडडू बट रहे हों तो फिर जिस जाति को जितने लडडू मिलने चाहियें उतने ही मिलने चाहिये, उनका फ्राड कैसे पकडा जायेगा?

    देशहित में वाकई यह गलत था लेकिन अब जातियों की राजनिति इतनी‍ बिगड चुकी अब यही इन्‍साफ होगा कि जाति की गणना की जाये, इस बारे में मैं ‘जद’ से सहमत

  58. इस बारे मे जैसी भारतीयो की शुतुर्मुर्ग वाली द्रश्ती है वही यहा सामने नज़र आ रही है!” सत्यता को झुतलाना”! जहा देश की पूरी सामाजिकता, रोज की लाईफ़, सरकारी प्रबन्धन, राजनीति जाति आधारित है, जिस देश मे कोई भी फ़ार्म भरो जाति का खाना भरना ही है, वहा इस तरह की बाते? जातिगत जनगर्ना सच को स्वीकार कर आगे बरना है! यह अब कुच फ़ायदा ही देगी नुकसान तो जो होना था वो पहले ही हो चुका.

  59. हमारे देश की सबसे बड़ी विशेषता है अनेकता में एकता !इसीलिए अंग्रेज कभी भी हमें बाँट नही पाए ,लेकिन आखिर में उन्होंने फूट डालो और राज़ करो का सहारा लिया!आज हमारे नेता फिर उसी रास्ते पर चल रहे है!देश में फिर जाति आधारित जनगणना की बात उठाई जा रही है!पूरे विश्व में कहीं भी जाति को इतना महत्त्व नही दिया जाता,जितना की हमारे देश में!हर जाति का एक अलग संगठन बना है….जैसे ब्रह्मण समाज,अग्रवाल समाज,प्रजापत समाज आदि!ये समाज अपनी अपनी जाति के विकास के लिए प्रयत्न करते है …ठीक है पर क्या समाज को इस तरह बांटे बिना विकास नही हो सकता? जनगणना को जातीय आधार पर करना बिलकुल उचित नही होगा!इससे पहले से ही विभिन्न वर्गों में विभाजित समाज में और दूरियां बढ़ेगी! आज अलग अलग जातियों को लेकर जिस तरह से पंचायतें हो रही है और आरक्षण को लेकर राजनीती हो रही है,वो इस निर्णय से और बढ़ेगी ये सब हमारे एकीकृत समाज के लिए घातक होगा!
    राष्ट्रीयता की भावना के विकास के लिए समाज को जातिविहीन करना ही होगा! जनगणना में जाति को शामिल करने से और भी बहुत सी विसंगतियां पैदा हो जाएगी!नेता लोग और खाम्प पंचायतें जातिगत जनगणना का दुरूपयोग करेंगे! देश में पहले ही जाति को लेकर आरक्षण की मांग हो रही है,जो और बढ़ेगी! आज जरूरत इस बात की है क़ि हम समाज की भलाई के लिए इसे जातियों में ना बांटे!विकासशील देश इतना विकास इसी लिए कर पाए क्यूंकि वहां जातिगत राजनीती नहीं है!तो फिर हम क्यूँ अभी भी विभिन्न वर्गों में बँटे रहना चाहते है? !सबको समानता का अधिकार भी सबको समान मानने से ही मिलेगा,विभाजित करने से नही!! जाति आधारित जनगणना किसी भी सूरत में उचित नही है!!

  60. जनगणना एवं जाति गणना में अंतर स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है |
    यदि भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है तो जनगणना होनी चाहिए | या फिर
    अपना संविधान बदल देना चाहिए |
    डॉ. ग़ुलाम मुर्तजा शरीफ
    अमेरिका

  61. मैं जातिगत जनगणना का विरोधी हूँ. हाँ, जहां तक कल्याणकारी योजनाओं के लिए जरूरतमंद लोगों की वास्तविक संख्या जानने की बात है तो इसके लिए वर्गगत जनगणना करवाई जा सकती है. यानि कि सामान्य, ओबीसी, एस सी, एस टी, विकलांग आदि के आधार पर. मुझे ये समझ नहीं आता कि ब्राह्मण, राजपूत, यादव, कुर्मी और चमार जैसे जातिगत नामों के आधार पर जनगणना करके किस तरह की कल्याणकारी योजनाएं बनाना चाह रहे हैं ये. इससे तो बस जाती के नाम पर राजनीति करने वालों का कल्याण होगा.

  62. जातिगत जनगणना पर नेताओं का विचार कि जहाँ तक बात है, तो ये… जहाँ खाने को मिलेगा वही जायेंगे. सोचना हर भारतीय जनता को है कि एह एक मौका है इन…नेताओं को सबक सिखाने का, देश कि निति जाति पर नहीं बल्कि अमीरी और गरीबी के आधार पर होनी चाहिए जो सामान रूप से अमीरी और गरीबी के आधार पर कल्याणकारी योजना बनाई जाये चाहे किसी भी भारतीय कि कोई भी जाति, मत या पंथ हो, जनगणना या योजना का कार्यान्वयन का आधार अमीरी और गरीबी होनी चाहिए !
    और अगर देश इन नेताओं के मंसूबों को समझना चाहते है तो हाँ! जातिगत जनगणना होनी चाहिए !
    लेकिन दो धर्म ही आप्शन में होने चाहिए १. हिन्दू , २. मुश्लिम
    रत्नेश त्रिपाठी

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