कविता

मौत का अपमान

एक दुधमुंहे शिशु का शव

कारूणिक आर्तनाद के बीच

सुर्ख लाल कपड़े में लिपटा

अपने घर से निकला।

जिसे कलेजे पर पत्थर रख

उसकी जननी ने लोगों को सौंपा।

उस परिवार में छाया रहा मातमी शोक

जिसमें घर की दीवारें तक नम थी।

ये सुबह उनके परिवार पर

बिजली बनकर टूटी।

बुझ गया उनके कुल का दीपक

जिसके कारूणिक रुदन का कोलाहल

झकझोर देता है इंसानियत को

मौत की खामोशी से टकराकर

हवा रोक देती है हर चलते इंसान को।

शुभ मुहूर्त की चौखट पर

दस्तक देने कोई हाथ निबाला लिये

ऐसे में मुंह तक नहीं जाता

शांत हो जाती है तब

हर चूल्हे की आग

जिसने मौत की करतूत

देखी सुनी व सूंघी होगी।

इस तरह के अन्जाने खेल खेलने पर

सभी कोसते हैं ईश्वर को

सदियों से यही

जीवन को विदाई

और मौत को अलविदा

करने की चर्चा रही है।

किन्तु हे मौत

आज हमने झुठला दी है

तेरी इस चर्चा को

और अपनाई है

तेरे अपमान की ये नई नीति

जिससे शरमाकर तू

गढ़ जायेगी मानवता पर।

मानवता से हमें क्या लेना-देना

बहुत रोते आये है उसके लिये

जितना रोये है

उतनी ही मानवता

आँसू बनकर बही है।

अब हमारी आँखों में

एक बूद आँसू भी

मानवता के लिये नहीं रह गया है

आँसुओं की जगह अब आँखों में

हैवानियत का लावा रह गया है

इसलिये मौत

तेरे अपमान की ये नई नीति

हम ने सामूहिक रूप से

मिलकर अपनाई है

जिसमें उस जननी के

कलेजे के टुकड़े को

सुर्ख लाल कपड़े में

श्मशान जाते देखा

तब इस शोकाकुल वातावरण में

हम बगल बाजू के कमरे में

तेरा जश्न मना रहे थे।

शादी की औपचारिकता

रस्मों के बीच

हँसी ठ्टठाकर मिठाइयां खा रहे थे।

शादी तो वैसे हो चुकी थी

लेकिन यह अनौपचारिकता थी।

मिठाईयों के आगे

हे मौत

हम तुझे भूल चुके थे

इसलिए खून भरे

शोकाकुल वातावरण में

हम खुशी से

जिंदगी का जश्न मना रहे थे।

हे मौत

क्या इंसानियत का रक्त करती

यह रक्तिम परिणति की

पुनरावृत्ति हम कभी

अपने घर कर सकेंगे

क्या हमारी आँखों में

इस हैवानियत के दौर पर

मंथन करते आत्मवंचना हेतु

कोई समय होगा।

हे मौत

शायद तेरे अपमान की पीव 

यह ढिठाई

मैं फिर कभी

न कर सकूँगा।

आत्‍माराम यादव पीव