राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जयंती पर विशेष
प्रो. श्याम सुंदर भाटिया
अहिंसा के पथ-प्रदर्शक, सत्यनिष्ठ, समाज सुधारक और महात्मा के रूप में विश्वविख्यात बापू सबसे पहले सफल पत्रकार थे। बापू की पत्रकारिता भी उनके गांधीवादी सिद्धांतों की मानिंद है। बापू का स्पष्ट मानना था, पत्रकारिता की बुनियाद सत्यवादिता के मूल में निहित होती है। असत्य की तरफ उन्मुख होकर पत्रकारिता के उद्देश्यों को कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता है। बापू का यह दृष्टिकोण इस बात की पुष्टि करता है, उनकी पत्रकारिता और व्यावहारिक जीवन के सिद्धांतों में किसी तरह का दोहरापन नहीं रहा है। सवाल यह है, क्या आज की वैश्विक पत्रकारिता इन मापदंडों पर खरी उतर रही है। पत्रकारिता में बापू के योगदान की ऐतिहासिकता पर नज़र डालें तो उनकी पत्रकारिता का श्रीगणेश ही विरोध की निज अभिव्यक्ति से हुआ था। दक्षिण अफ्रीका में अख़बार को लिखे पत्र को बापू की पत्रकारिता का पहला कदम माना जा सकता है। बापू की प्रखर लेखनी का लोहा मानते हुए एक अंग्रेजी के लेखक ने तो यहां तक कहा, गांधी के संपादकीय लेखों के वाक्य- थॉट ऑफ द डे के तौर पर इस्तेमाल किए जा सकते हैं। ऐसी थी, बापू की लेखनी की ताकत। यह बापू की पत्रकारिता के अद्वितीय उदाहरण है। बापू की पत्रकारिता डगर में भाषाई दायरे कभी अवरोध नहीं बने। वह समय और अवसर के अनुकूल हिंदी/ऊर्दू/अंग्रेजी/गुजराती में लेखन कर लिया करते थे। दाएं हाथ से हिंदी/ऊर्दू लिखने वाले बापू बाएं हाथ से शानदार अंग्रेजी लिखते थे। सवाल यह है, हममें से कितने बापू की इन विशेषताओं का अनुसरण कर रहे हैं?
बापू की नज़र में पत्रकारिता का मकसद जन जागरण था। वह जनमानस की समस्याओं को मुख्यधारा की पत्रकारिता में रखने के प्रबल पक्षधर थे। दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के बाद गुलामी की परिस्थितियों से प्रबल बापू ने सत्य, अहिंसा के समानांतर पत्रकारिता और लेखनी को भी अपना हथियार बनाया। द इंडियन ओपिनियन, नवजीवन, यंग इंडिया, हरिजन में विचारों से ओत-प्रोत हजारों लेख लिखे। इनमें बापू के मूल्य, आदर्श, सिद्धांत साफ-साफ परिलक्षित होते हैं। बापू का साफ मानना रहा, पत्रकारिता का पहला उद्देश्य जनता की इच्छाओं और विचारों को अपनाना और उन्हें व्यक्त करना है। दूसरा उद्देश्य जनता में वांछनीय भावनाओं को जागृत करना और तीसरा उद्देश्य सार्वजनिक दोषों को निर्भीकता पूर्वक प्रकट करना है। वह मानते रहे, ज्ञान और विचारों को समीक्षात्मक टिप्पणियों के साथ शब्द, ध्वनि और चित्रों के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाना ही पत्रकारिता है। प्रश्न यह है, क्या हम बापू के सपनों की पत्रकारिता को सच में अमली-जामा पहना रहे हैं या नहीं? बापू पत्रकारिता को दो रूपों में विभाजित करते हैं- एक व्यावहारिक पत्रकारिता और दूसरी लोकसेवी। बापू की साफ मान्यता थी, पत्रकारिता को व्यवसाय बनाने से वह दूषित हो जाती है और लोकसेवा के लक्ष्य से भटक जाती है। बापू समाचार पत्रों की शक्ति सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभावों में पहचानते थे। उन्होंने अपनी आत्मकथा- सत्य के साथ मेरे प्रयोग में लिखा है- समाचार पत्र सेवाभाव से ही चलने चाहिए। समाचार पत्र एक जबर्दस्त शक्ति है, किन्तु जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गांव के गांव डुबो देता है, उसी प्रकार प्रलय का निरंकुश प्रवाह भी नाश करता है। यदि अंकुश कहर से आता है तो वह निरंकुशता से भी विषैला होता है।
21वीं सदी में पत्रकारिता और लोकतंत्र को गहरी चोट पहुंचाने वाली अनेक घटनाएं घटी हैं। सर्वाधिक नुकसान पहुंचाने वाली पेड न्यूज़ की कुप्रथा सामने आई है। फेक न्यूज़ का भी भयावह रूप किसी से छुपा नहीं है। फिर वही सवाल, क्या हम सत्यनिष्ठा से पत्रकारिता का धर्म निभा रहे हैं? बापू ने अंतिम समय तक पत्रकारिता को कभी किसी व्यक्ति विशेष या संगठन का मोहरा नहीं बनाया। क्या आज ऐसा है? वह अपने लिखे एक-एक शब्द पर मनन करते थे। सकारात्मक और नकारात्मक नतीजों के बारे में सोचते थे। सत्य की कसौटी पर खरा उतरने वाली भाषा का इस्तेमाल करते थे। बापू साथ ही पाठकों को यह अधिकार भी देते थे, वे समाचार पत्र पर पैनी नज़र रखें। कहीं कोई अनुचित या झूठी ख़बर तो नहीं छपी है। अविवेकपूर्ण भाषा का इस्तेमाल तो नहीं हुआ है। क्या आज पाठकों के पास बापू वाला अधिकार है? बापू का मानना था, संपादक पर पाठकों का चाबुक रहना चाहिए, जिसका उपयोग संपादक के बिगड़ने पर हो सके। कड़वा सच यह है, पत्रकारिता के तथ्यों को क्रॉस चेक करने वाला बापू का यह सिद्धांत बिसरा दिया गया है, लेकिन पाठकों को यह जिम्मेदारी उठानी ही होगी। बापू ने बार-बार पत्रकारों को भी उनके उत्तरदायित्व की याद दिलाई है। उन्होंने लिखा था, अगर सरकार को नाखुश करने वाला कुछ प्रकाशित हो भी गया है, तो भी संपादक को क्षमा नहीं मांगनी चाहिए। बापू की दृष्टि में संपादक का कद बड़ा था। बड़ा होना भी चाहिए। बापू का प्रसिद्ध कथन है, हम जो आज करते हैं, उस पर भविष्य निर्भर करता है। बापू ने हिंदी, गुजराती, तमिल और अंग्रेजी में प्रकाशित-इंडियन ओपिनियन को लेकर अपने बुलंद इरादे साफ कर दिए थे। बापू ने लिखा था, इंडियन ओपिनियन की जरूरत के बारे में हमारे मन में कोई संदेह नहीं है। भारतीय समाज दक्षिण अफ्रीका के राजकीय शरीर का निर्जीव अंग नहीं है, उसे जीवित अंग सिद्ध करने के लिए बहुभाषी यह समाचार पत्र निकाला गया है। आज भारतीय ही नहीं, बल्कि विश्व के समूचे पत्रकारिता जगत को जरूरत है, वह बापू के मूल्यों, आदर्शों और सिद्धांतों को पढ़ें, समझें और आत्मसात करें। अगर ऐसा कर लेंगे तो बापू को यह सच्ची श्रद्धांजलि होगी।