
मैं अपने जीवनकाल में कई प्रकार की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के समाजों से प्रभावित होता रहा हूँ। पूर्वी भारत के झारखण्ड राज्य का देवघर नामक तीर्थस्थान मेरा गृह नगर है। स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद उच्च शिक्षा, के लिए घर छूटा तो फिर आजीविका के क्रम में बिहार, बंगाल और असम में रहने के अवसर मिलते रहे। अन्त में, सेवानिवृत्ति के पश्चात् उत्तर भारत के चण्डीगढ़ में रह रहा हूँ। फिर भी अपनी जड़ों से विच्छिन्न नहीं हुआ हूँ। आज इस पूरे अनुभव संसार का निरीक्षण करता हूँ तो समझ में आता है कि कई संस्कृतियों ने मुझे गढ़ा है। देवघर( वैद्यनाथ धाम) पूर्वी भारत का एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान है। हमारा परिवार पंडा समाज का था। तीर्थस्थानों के पंडे तीर्थयात्रियों के लिए पुजारी सह गाइड की भूमिका का निर्वहन करते हैं। मन्दिर और पवित्र पोखर शिवगंगा के बीच के विस्तार में हमारा समाज बसा हुआ था। आजीविका के लिए वे यजमानों पर ही निर्भरशील होते हैं। इसलिए वे आर्थिक रुप से स्थानीय समुदायों से मुक्त रहते हैं. बल्कि स्थानीय अर्थतन्त्र में उनकी भूमिका मुख्य हो जाती है। अन्य समुदायों के ऊपर आर्थिक निर्भरता नहीं रहने के कारण हम उनसे घनिष्ठ रुप से नहीं जुड़ पाए थे। नतीजा होता है कि यह समुदाय अपने आपमें सिमटा हुआ रुप ग्रहण कर लेता है। हमारे समाज के विश्वास और आचारसंहिता तयशुदा थे। अपनी पहचान के प्रति काफी संवेदनशील थे हम। इसका प्रतिफलन हुआ कि यहाँ के विभिन्न समुदायों की बोलियाँ एक नहीं हैं। बोलियों का फर्क संकेत है कि शहर के बासिन्दों के पूर्वज विभिन्न स्थानों से आकर बसे हैं और उनका आपस में घुलमिल पाना सम्भव नहीं हो पाया है। आधुनिक शिक्षा तथा राष्ट्रीय चेतना के असर में हमारे समुदाय की एकजुटता और जड़ता में दरारें पैदा होने लगी थीं और आधुनिकता के साथ द्वन्द्व प्रखर होते जाने के संकेत स्पष्ट हो रहे थे। स्कूली शिक्षा समाप्त होने के बाद उच्च शिक्षा और फिर आजीविका के लिए मुझे अपने नगर, राज्य और अंचल के बाहर कई जगहों के साथ परिचित होने के अवसर मिले। सीवान में स्थिर होने के पहले मुझे थोड़ी थोड़ी अवधि के लिए कई जगह बदल करने की जरूरत पड़ी थी।ये जगहें क्रमशः उत्तर बिहार के कृषि प्रधान अंचल , पश्चिमी बंगाल के (कोयला खान अंचल) और असम के चाय बागान अंचल में अवस्थित थीं। तीसरी जगह सिलचर (दक्षिणी असम) की मेरी चेतना के विकास में प्रभावी भूमिका है। सिलचर, दक्षिण असम की बराक घाटी में अवस्थित कछार जिला का मुख्यालय है। यह असम राज्य का बंगाली बहुल अंचल है। हम जनवरी 1961 – सितम्बर 1962) कुल बीस महीने ही वहाँ रहे, फिर भी एक मनुष्य के रुप में मेरे स्वरुप के निर्धारण में यहाँ के तजुर्बों की निर्णायक भूमिका है। वह शहर और वह अंचल हमारे लिए पूरी तरह से अजाना था। हमने तो केवल इस भरोसे पर वहाँ के कॉलेज की नियुक्ति को स्वीकार किया था कि हमारी जानकारी के मुताबिक वहाँ के लोग बांग्ला भाषी थे। यद्यपि वहाँ जाने के बाद पता चला कि उनकी बोली हमारी साधुभाषा से एकदम अलग थी इसलिए उनकी बातें समझना हमारे लिए सहज नहीं था। मैं जब वहाँ गया था उस समय राज्य में असमिया और बांग्ला भाषियों के बीच तनाव का माहौल था। सन 1960 में ब्रह्मपुत्र घाटी में असमिया भाषियों के द्वारा बांगाली खेदा आन्दोलन चलाया गया था। राज्य के बांग्ला भाषियों के बीच असुरक्षा की भावना फैली हुई थी। बराक घाटी में बांग्ला को राज्य में दूसरी राज्य भाषा की माँग के पक्ष में भावना सुलग रही थी। संयोग ऐसा बना कि मुझे वहाँ लोगों से काफी स्नेह , स्वीकृति और सम्मान मिला। वे लोग विभिन्न पेशों से थे और उनमें से अधिकतर देश का विभाजन होने के नतीजे में पूर्वी पाकिस्तान से विस्थापित थे। अन्तर्राष्ट्रीय सीमा के इस ओर स्वीकृति महसूस करने के लिए अभी भी संघर्ष कर रहे थे।मैंने उनकी वंचनाओं और नई भूमि में स्वीकृति हासिल करने के उनके संघर्ष के बारे में जाना। वतन से निष्कासन की पीड़ा क्या होती है, इसे जाना। उन्हें अपनी मातृभाषा (बांग्ला) और बंगाली पहचान के खोने की आशंका थी। असुरक्षा का गहराता बोध उन्हें घेरे हुए था। 19 मई 1961 को बांग्ला भाषा को राज्य की द्वितीय राज्य-भाषा की स्वीकृति की माँग के समर्थन में हड़ताल की गई।. पुलिस की गोली से ग्यारह तरुण आन्दोलनकारी मारे गए. फिर तो आन्दोलन ने ऐतिहासिक रुप ले लिया था। इस आन्दोलन का प्रत्यक्षदर्शी होना एक विरल उपलब्धि थी मेरे लिए। इन सब के बावजूद देश की मुख्य भूमि में आने की इच्छा के कारण बिहार के कॉलेज में नियुक्ति मिलने पर हम सीवान आ गए। गंगा के मैदानीअंचल में अवस्थित सीवान, हिन्दी हृदय क्षेत्र बनाम गो-वलय की गंगा-जमुनी सभ्यता का प्रतीकात्मक सैम्पल है। पुराने लोग इसे अलीगंज सीवान के नाम से जानते हैं। हमारा कॉलेज डी.ए.वी.कॉलेज दाढ़ी बाबा के नाम से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता के द्वारा स्थानीय आर्य समाज के द्वारा स्थापित और संचालितहुआ करता था। खास बात थी कि स्थानीय मुसलमानों और गैर आर्य समाजी हिन्दुओं का भी भरपूर सहयोग दाढ़ी बाबा को उपलब्ध था। समाज के हिन्दु मुसलमान आपस में समन्वयित से थे। वे सभी एक ही प्रकार की भोजपुरी बोलते थे। अपनी मातृभाषा भोजपुरी के साथ उनका लगाव बहुत ही गहरा था। शहर के करीब करीब हर मोहल्ले में हिन्दु मुसलमानों के घर और आवास था। मुसलमान डॉक्टर के क्लिनिक का कम्पाउण्डर हिन्दु और हिन्दु डॉक्टर का कम्पाउण्डर मुसलमान होना आम बात थी। उसी तरह हिन्दु मुसलमान दूकानो में मालिक और सेल्समैन हुआ करते थे। हिन्दु- मुसलमान की साम्प्रदायिकता की बातें भी हुआ करती थीं। त्योहारों के मौक़ों पर साम्प्रदायिक तनाव का इतिहास था यहाँ। इसकी गवाही झगड़ौवा पीपर और बड़ी मस्जिद से जुड़ी कहानियाँ देती थीं। एक अनोखी बात वहाँ की थी कि जन्माष्टमी में कृष्ण बजरंगबली की पूजा होती थी, कृष्ण की चर्चा भी नहीं होती कृष्णाष्टमी के पर्व में। विसर्जन के लिए जुलूस में बजरंगबली के अखाड़े निकाले जाते। मुहर्रम के अखाड़ों की तर्ज पर। कई बार ऐसा लगा कि दंगा होगा, पर कभी भी नहीं हुआ। बिहार के दूसरे शहरों और ग्रामांचलों में दंगे होते, तब भी सीवान में नहीं।ऐसे अवसरों में ही झगड़ौवा पीपर और बड़ी मस्जिद जैसे कुछ स्थल चिह्नित हुए थे।जन्माष्टमी, दुर्गा पूजा, मुहर्रम और चलीसा के मौकों पर इन स्थलों पर खूब उत्तेजना भरी चहल पहल रहती। मेरी मित्रमंडली थी। कॉलेज के सहकर्मियों के अलावे शहर के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े मित्र भी काफी घनिष्ठ सरोकार रखते थे। हम पारिवारिक माहौल की तरह साथ रहा करते। हम सीवान में तैंतीस सालों से अधिक समय तक रहे। इसी अवधि में शहर के चरित्र में व्यापक बदला हुआ.। डॉ राजेन्द्र प्रसाद . मौलाना मज़हरुल हक और श्री ब्रजकिशोर प्रसाद के परिचय से जाने जाने वाली जगह का परिचय अपराधी राजनेता मो. शहाबुद्दीन के नाम से जाना जाता है। शहर और जिले भर में आपराधिक वारदात का माहौल बना। शहर की संस्थाओं में राज्य के राजनेता-अपराधियों की दखलंदाज़ी ने हमारे लिए अस्वस्तिकर हालात पैदा किए। विकास के कितने आयाम होते हैं। हमारे सीवान का समय के साथ विकास हुआ। हम तो पाँव से शहर के एक छोर से दूसरे छोर तकआधे घंटे में टहल लेते थे। अब शहर की सीमा का विस्तार हो गया है। तब हमें लोग नाम से जानते थे, अब सब अनाम हो गए हैं। हमारी जीवन-यात्रा का आखिरी पड़ाव चण्डीगढ़ था। चण्डीगढ़ अपने आपमें अनूठा शहर, इसे कितने ही नामों से दुलारा जाता है। नेहरु का सपना, सिटी ब्यूटीफ़ुल जैसे नाम अक्सर इसकी पहचान कराते हैं। यह शहर परिकल्पित रुप से बसाया हुआ शहर है। मैं यहाँ अपने परिचय से नहीं, अपने बेटे-बहू के परिचय से रहा. पीजीआई और सीएसआईओ के परिसर में रहा। पीजीआई के प्रोफेसरों के आवासीय परिसर में रहना एक अलग तरह की जानकारियों से रुबरु करानेवाला था। वे लोग सब के सब समाज के सफल माने जानेवाले वर्ग के हैं । उनका समाज अन्य वर्गों से अलग थलग था।इनके बच्चे जिन स्कूलों में पढ़ते हैं, वहाँ कमजोर वर्ग के बच्चे नहीं पढ़ते। समाज के बारे में इनकी धारणा एक मजे के एक्रोनिम से परिचय हुआ। CCC( Cross cultural couple) . यह उन जोड़ों को बताता है जिसमें पति-पत्नी अलग अलग सांस्कृतिक समाजों से आते हैं। जाहिर है, यहाँ ऐसे जोडे अनेक थे। इसलिए नगर के सामान्य जनजीवन से घनिष्ठ परिचय नहीं हो पाया। इन संस्थानों के परिसर के समाज के माध्यम से ही मैंने चण्डीगढ़ को जाना है। बीच के कुछ समय के लिए सिनियर सिटिजेन डे केयर सेण्टर में अड्डेबाजी का सुयोग मिला था। तभी यहाँ के सामान्य नागरिकों के साथ मित्रता का अवसर मिला था।मैंने उन्हें समझने की कोशिश की,उनसे समझना चाहा कि आम पंजाबी और आम सिख में क्या फर्क है। इतनी बात इस शहर के बारे में समझ सका कि इसे सम्पन्न और सफल लोगों को ध्यान में रख कर बसाया गया है। समाज के दूसरे तबक़ों के लोग अनुषंगिक रुप से शहर के बासिन्दे हो गए । चंडीगढ़ का चरित्र पंजाबी तौर तरीके से पहचान पाता है। यह बात अनोखी लगी कि इन लोगों को मुसलमानों के बारे में जानकारी मुख्यतः संवाद माध्यमों और बड़ों से सुनी कहानियों से ही मिली हुई है। सुबह की सैर के सिलसिले में उस सुबह मैं स्थानीय मेडिकल कॉलेज के बगल से गुजर रहा था। इस क्षेत्र के एक सामान्य दृश्य पर ध्यान गया। इस क्षेत्र में अस्पतालों के बाहर मरीज़ों के परिजनों के लिए लंगर नियमित रुप से लगा करते हैं। इसलिए राहगीर सामान्यतः इन पर ध्यान नहीं देते। लेकिन उस दिन मैं अवलोकन करने लग गया। हर व्यक्ति को दो रोटियाँ और पत्ते से बनी कटोरी में दाल दी जा रही थी। एक दरी बिछाई हुई थी. उसपर लोग बैठ कर खा रहे थे। परोसनेवाले मध्यवर्गीय युवा थे, शायद कॉलेज के छात्र रहे हों वे। कुछ लड़के जूठे बर्तन धो रहे थे। वे पूछ पूछकर परोसन भी दे रहे थे I एक विशेष बात मैंने लक्ष्य किया. परेसनेवाले .लड़के खुद भी वही रोटियाँ और दाल खा रहे थे। इससे जाहिर होता था कि खाद्य सामग्री की गुणवत्ता उच्च कोटि की थी। मैं सोचने लगा। समाज सेवा की यह प्रतिबद्धता पंजाबियों का लाक्षणिक गुण है या सिखों का? क्या पंजाबियों ने यह विशिष्टता सिख मत के द्वारा ग्रहण किया?