दीवाली के तीन दीये

ख्वाजा अहमद अब्बास

diwali-ke-teen-diyeउस स्त्री ने कहा, ”मैं यहां तुम लोगों के पास रहती हूं… मैं इन खेतों के पास रहती हूं, जहां लक्खू भैया के बाबा अनाज उगाया करते थे और मैं उस कारखाने में भी रहती हूं, जहां लक्खू भैया मशीनों से कपड़ा बुनते हैं। जहां इंसान अपनी मेहनत से अपनी जरूरतें पैदा करता है, मैं वहीं रहती हूं और दीवाली की रात को मैं हर उस घर पहुंच जाती हूं, जहां एक दीये में भी मुझे इंसानियत और सच्चा प्रेम झिलमिलाता हुआ दिखाई देता है।”

पहला दीया

दीवाली का यह दीया कोई मामूली दीया नहीं था। दीये की शक्ल का बहुत बड़ा बिजली का लैम्प था, जो सेठ लक्ष्मीदास के महल-रूपी घर के सामने के बरामदे में लगा हुआ था। बीच में यह दीयों का सम्राट दीया था और जैसे सूर्य के इर्द-गिर्द असंख्य सितारे हैं, उसी प्रकार इस एक दीये के चारों ओर, बल्कि ऊपर-नीचे भी हजारों बल्बों की झालरें झूल रही थीं। संगमरमर के हर सतून पर बिजली के तार की बेल चढ़ी हुई थी और उसमें पके हुए अंगूरों की तरह लाल, हरे, नीले, पीले बल्ब लगे हुए थे। सारे घर में कुछ नहीं तो दस हजार बिजली के ये दीये शाम से ही दीवाली की घोषणा कर रहे थे; देवी लक्ष्मी की प्रतीक्षा कर रहे थे।

किन्तु इन सबमें सबसे अधिक नुमायां वह एक ही दीया था। देवी का सम्राट जो अपने प्रकाश से शाम के धुंधलके को दोपहर की तरह प्रकाशमान किए हुए था। यह दीया सेठ लक्ष्मीदास अमेरिका से लाए थे, जब वह वहां अपनी कंपनी के लिए बिजली का सामान खरीदने गए थे। वास्तव में यह देवी का सम्राट उन्हें व्यक्तिगत कमीशन के रूप में भेंट किया गया था- माल सप्लाई वाली अमेरिकन इलेक्ट्रिक कंपनी की ओर से… और उसको देखते ही सेठ लक्ष्मीदास ने सोच लिया था कि अब की बार दीवाली पर यह अमेरिकन दीया ही देवी लक्ष्मी का स्वागत करेगा।

और आज शाम ही से वह दीया अपनी भड़कीली अमेरिकन शान से जल रहा था। उसके चारों ओर दस हजार और रोशनियां जगमगा रही थीं। सेठ लक्ष्मीदास का कहना था कि सब त्योहारों में दीवाली ही सबसे महत्वपूर्ण और उच्चतम त्योहार है। दीवाली की रात को जहां उसका स्वागत करने को रोशनियां होती हैं, वहां देवी लक्ष्मी आती है। सो, वह सदा इसका ख्याल रखते थे कि हर अन्य सेठ और व्यापारी के घर से अधिक रोशनियां लक्ष्मी महल में होनी चाहिए। उनका विश्वास था कि जितनी रोशनियां अधिक होंगी, उतनी ही अधिक लक्ष्मी देवी की कृपा भी होगी और शायद था भी वह सच! बीस-बाईस वर्ष पूर्व जब उनकी कपड़े की छोटी-सी दुकान थी, तब उनके घर में कड़वे तेल के सौ दीये जला करते थे। फिर जब महायुध्द हुआ और उनको फौजी कम्बल सप्लाई करने का ठेका मिल गया तो उनके नए घर पर एक हजार दीये जगमगाने लगे। फिर जब स्वतंत्रता आई और सेठ लक्ष्मीदास को एक बहुत-बड़े डेम बनाने के लिए मजदूर सप्लाई करने का ठेका मिल गया तो दीवाली की रात को उनके बंगले पर पांच हजार बिजली के बल्ब जगमगा उठे और इस वर्ष जबकि उन्होंने एक अमेरिकन कंपनी के साथ मिलकर कई करोड़ रुपए महीने की आय की आशा की थी, यदि इन्कम टैक्स अफसर कोई गड़बड़ न करें।

इस बार तो उन्होंने अपने लक्ष्मी महल में ऐसी रोशनी की थी कि एक बार तो देवी लक्ष्मी की आंखें भी चकाचौंध हो जातीं। इतनी सारी रोशनियां और विशेष रूप से अमेरिकन देवी के सम्राट को देखकर तो देवी भी प्रसन्न हो जाएं तो कौन जानता है, अगली दीवाली तक सेठ जी पांच-छह और कारखाने और दो-चार बैंक खरीदने के काबिल हो जाएं।

हां, तो दीवाली की रात थी और सेठ साहब इलेक्ट्रिक इंजीनियर को निर्देश दे रहे थे कि बिजली के कनेक्शन और फ्यूज आदि का विशेष ध्यान रखे, क्योंकि किसी की भूल से एक सैकेंड के लिए भी बिजली फेल होकर अंधेरा हो गया, तो खतरा है कि देवी लक्ष्मी अप्रसन्न होकर इस घर से सदा के लिए चली जाएं। इसलिए इलेक्ट्रिक इंजीनियर ने एक जनरेटर भी लगाया हुआ था, ताकि पावर के करंट में कोई गड़बड़ी हो तो जनरेटर से बनाई हुई बिजली काम आए।

एकाएक सेठ साहब को ऐसा अनुभव हुआ कि जैसे महल भर में लगे हुए सारे बिजली के बल्बों का प्रकाश और तेज हो गया हो। ”देवी लक्ष्मी आ गई।” उन्होंने प्रसन्न होकर कहा, लेकिन इंजीनियर ने समझाया कि करंट के घटने-बढ़ने से कभी-कभी ऐसा होता है कि प्रकाश अधिक या कम हो जाता है।

”तो फिर तुम्हारी डयूटी यह है कि देखते रहो कि प्रकाश अधिक होता रहे, एक पल के लिए भी कम न हो।”

यह कहकर सेठ साहब बरामदे की संगमरमर की सीढ़ियां उतरकर बाग की ओर आ रहे थे, जहां हर पेड़ की टहनियों में जगमगाते हुए फल झूल रहे थे कि उन्होंने एक स्त्री को सड़क पर खड़ा देखा…

स्त्री गांव से आई लगती थी। उसके शरीर पर मैला घाघरा था, जिसका रंग कभी लाल रहा होगा। उसी रंग की चोली थी और सिर पर ओेढ़नी थी। वह भी मोटे लाल खद्दर की, लेकिन छपी हुई। अपने सिर पर वह मैले-कुचैले चिथड़े में लिपटी हुई एक गठरी उठाए हुई थी। उसके कपड़े न केवल मैले थे, बल्कि फटे-पुराने पैबंद भी लगे थे।

‘कोई गरीब भिखारिन होगी।’ सेठ लक्ष्मीदास ने सोचा।

”क्यों माई, क्या चाहिए?” उन्होंने सीढ़ियां उतरते हुए पूछा और निकट जाने पर उन्होंने देखा कि स्त्री गरीब ही सही, लेकिन जवान और रंगत सांवली होने पर भी सुन्दर है।

”एक रात कहीं ठहरने का ठिकाना चाहिए सेठ जी। बड़ी दूर से आई हूं।”

”न, बाबा, माफ करो।” वह जल्दी से बोले। मन-ही-मन उन्होंने सोच लिया था कि एक अज्ञात जवान स्त्री रातभर के लिए घर में रखने का क्या परिणाम होगा। हो सकता है, रातोंरात घर में से रुपया-पैसा या गहना-सोना चुराकर भाग जाए। हो सकता है कि उसे ब्लैकमेल करके रुपया वसूल करे। सेठ जी का लड़का जवान था। वह कहीं इस अज्ञात स्त्री के चक्कर में न आ जाए। फिर भी उन्होंने सोचा कि दीवाली की रात है, किसी भिखारिन को दुत्कारना भी नहीं चाहिए।

”भूखी हो, तो खाना खिलवाए देता हूं। लड्डू, पूरी, जो जी चाहे खाओ।”

”मैं भिखारिन नहीं हूं, सेठ जी!”

उसने अपने सिर पर धरी हुई गठरी की ओर इशारा करते हुए उत्तार दिया, ”मेरे पास खाने को बहुत कुछ है। मकई की रोटी है, चने का साग, गांव का असली घी है, दूध है। आपके सारे घर को पेट भरकर खिला सकती हूं। मुझे तो रातभर ठहरने का ठिकाना चाहिए।”

उसकी हाजिर-जवाबी से सेठ जी और घबरा गए। उन्होंने सोचा, गांव की एक मामूली स्त्री की हिम्मत नहीं हो सकती कि यों सवाल-जवाब करे। कहीं यह स्त्री इन्कम टैक्स वालों की सी.आई.डी. तो नहीं है?

”न बाबा, माफ करो। हमारे घर में जगह नहीं है। कोई दूसरा घर देखो।”

”तो फिर दूसरा घर ही देखना पड़ेगा, सेठ जी!” यह कहकर वह स्त्री अपनी गठरी संभालती हुई चली गई।

सेठ जी मुड़कर सीढ़ियां चढ़ते हुए वापस बरामदे में जा रहे थे कि उन्होंने अनुभव किया कि अमेरिकन दीये का प्रकाश कुछ पीला पड़ता जा रहा है, यह पावर का करंट फिर नीचे जा रहा है और फिर चिल्लाकर कहा, ”इंजीनियर, जनरेटर तैयार रखो। दीये बुझने न पाएं।”

इलेक्ट्रिक इंजीनियर भागता हुआ आया और उसने कहा, ”सेठ जी, करंट बिलकुल ठीक आ रहा है। वैसे जनरेटर भी तैयार है। आप बिलकुल न घबराइए।”

”घबराऊं कैसे नहीं?” सेठ जी का दिल न जाने क्यों एक अजीब-सी बेचैनी से धड़क रहा था, ”जानते नहीं, दीवाली की रात है? एक पल को भी अंधेरा हो गया और वही देवी के आने का समय हुआ तो देवी रूठकर कहीं और चली गई तो… तो…?”

दूसरा दीया

इन्कम टैक्स अफसर लक्ष्मीकान्त तेल की बोतल लेकर अपने फ्लैट की बालकनी में निकले तो उन्होंने देखा कि सामने सेठ लक्ष्मीदास का महल बिजली की रोशनियों से जगमगा रहा है।

‘हां, क्यों न हो?’ उसने सोचा, करोड़ों रुपए ब्लैक का जो मौजूद है। दस हजार क्या, बिजली के दस लाख बल्ब लगा सकता है।

फिर उसने देखा कि उसकी अपनी बालकनी की मुंडेर पर जो सौ दीये उसने सजा रखे थे, उनमें से एक दीये की लौ धीमी हुई जा रही है। उसने घबराकर सोचा, ‘कहीं दीया बुझ न जाए, शगुन ही बुरा न हो जाए।’ और जल्दी से उसने बोतल का तेल दीये में उलट दिया। दीया-सलाई से लौ भी ऊपर की, तो उसे ऐसा लगा कि न केवल उस दीये का, बल्कि सौ-के-सौ दीयों का प्रकाश एकदम से तेज हो गया हो।

”धन्य हो देवी!” उसने दीवार पर लक्ष्मी की तस्वीर के आगे प्रणाम करते हुए कहा, ”इस वर्ष तो तुम्हारी बड़ी क़ृपा रही है।”

फिर उसने कुर्सी पर आराम से बैठकर अपना जासूसी उपन्यास उठाया, जो समाप्ति के निकट था और उसका हीरो उस समय डाकुओं की सुनहरी टोली के पंजे में फंसा हुआ था।

दरवाजे की घंटी बजी तो रसोई में से बीवी चिल्लाई, ”अजी ओ…जरा देखो तो कौन है?”

”मंगू से कहो न, देखे कौन है?” उसने उपन्यास से नजर उठाए बिना उत्तार दिया।

”मंगू को मैंने बाजार भेजा है मिठाई लाने।” रसोई में से आवाज आई।

”तो गंगा को भेजो न।” गंगा उनके यहां सुबह-शाम बर्तन मांजने आती थी।

”गंगा मुरदार तो आज छुट्टी मना रही है। कहती थी, बाई हमारी भी आज दीवाली है। आज हम काम नहीं करेंगे। सो मैंने भी चुड़ैल को खड़े-खड़े निकाल दिया।”

घंटी एक बार फिर बजी।

”अच्छा, अब तुम ही उठ जाओ न… अवश्य सेठ जी के यहां से मिठाई आई होगी।”

”क्या केवल मिठाई ही आई है या कुछ और?” उसने उठते हुए पूछा।

पर जब उसने दरवाजा खोला, तो सेठ जी का नौकर नहीं था, वहां एक स्त्री खड़ी थी। स्त्री शक्ल से गंवार लगती थी। कपड़े भी फटे-पुराने थे। सिर पर एक मैले-से चिथड़े में लिपटी हुई एक गठरी थी, पर थी जवान और सुन्दर। लक्ष्मीकान्त ने मन-ही-मन सोचा, ‘जवानी और सुन्दरता पर भी इन्कम टैक्स लगाना चाहिए।’

पर ऊंची आवाज में उसने पूछा, ”क्यों? क्या चाहिए?”

”बाबूजी! बड़ी दूर से आई हूं। घर लौटने का समय नहीं रहा। एक रात को ठहरने का ठिकाना मिल जाए तो बड़ी कृपा होगी। मैं कहीं कोने में पड़ी रहूंगी।”

लक्ष्मीकान्त ने एक बार फिर उस स्त्री की जवानी का निरीक्षण किया। फिर मुड़कर कनखियों से रसोई की ओर देखा, जहां उसकी बीवी बैठी पूरियां तल रही थी। लाजो मोटी थी। उसके मुंह पर चेचक के निशान थे, पर वह दहेज में दस हजार नकद लाई थी। उसके सब रिश्तेदारों ने बधाई देकर कहा था, ”लक्ष्मीकान्त, सचमुच तेरे घर में तो लक्ष्मी आई है।”

लक्ष्मीकान्त ने अपनी बीवी को देखा। उसके हाथ में पूरियां बेलने का लकड़ी का बेलन था और फिर हल्की-सी ठंडी सांस लेकर उस अज्ञात स्त्री को सम्बोधित हुआ, ”आई कहां से हो?”

”बड़ी दूर से आई हूं बाबूजी, पर इस समय तो सेठ लक्ष्मीदास के यहां से आई हूं।”

”क्यों, सेठ जी ने तुम्हें निकाल दिया!”

”हां बाबूजी, यही समझो, निकाल ही दिया।”

”और वहां से तुम सीधी यहां चली आईं।”

”हां बाबूजी।”

लक्ष्मीकान्त ने कितने ही जासूसी उपन्यास पढ़े थे और उसे मालूम था कि अगर कोई पूंजीपति किसी को तबाह करना चाहता है तो उसका हथियार कोई ऐसी स्त्री भी हो सकती है।

‘तो सेठ जी ने मुझे यह दीवाली की भेंट भेजी है?’ यह सोचते हुए उसने दांत भींचकर कहा, ”इस गठरी में क्या है?”

”इसमें मकई की रोटी है, बाबूजी। चने का साग है और गांव का असली घी है और दूध है, दही है।”

”बस, बस रहने दो।” उसे विश्वास था कि यह सब बकवास है। जासूसी उपन्यासों के अनुसार इस गठरी में गहना होगा। निशान लगे हुए नोट होंगे। रात को यह गठरी इस घर में छोड़कर यह स्त्री चम्पत हो जाएगी और जब सेठ उसको पकड़वाने की धमकी देगा तो बिना कुछ लिये-दिये उसके इन्कम टैक्स रिटर्न पास होंगे।

”जाओ, दूसरा घर देखो।” उसने स्त्री की जवानी का अंतिम बार जायजा लेने के बाद एक और ठंडी सांस भरी और दरवाजा बन्द कर दिया।

”कौन था?” लाजो रसोई से चिल्लाई।

”कोई नहीं।”

”कोई नहीं था, तो इतनी देर किससे बातें कर रहे थे?”

”मेरा दिमाग मत खाओ। कोई भिखारिन थी।”

”भिखारिन थी! तब ही इतनी देर तक मीठी-मीठी बातें कर रहे थे। मैं तुम्हें खूब…”

एक बार फिर घंटी बजी।

”जाओ, लगता है, फिर तुम्हारी भिखारिन आई है।” बीवी ने हुक्म दिया। लक्ष्मीकान्त ने दरवाजा खोला तो सफेद वर्दी पहने एक ड्राइवर हाथ में मिठाई का बड़ा-सा सुनहरी डिब्बा लिये खड़ा था।

”सेठ लक्ष्मीदास ने दीवाली की मिठाई भेजी है।”

लक्ष्मीकान्त डिब्बा लेकर अन्दर आया तो लाजो ने जल्दी से डिब्बा ले लिया और ड्राइवर से चिल्लाकर बोली, ”अच्छा भाई, सेठ जी से हमारा नमस्ते कहना और दीवाली की बधाई।”

दरवाजा बन्द करके लक्ष्मीकान्त कमरे प्रवेश कर ही रहा था कि बीवी ने फिर डांटा, ”अरे यहां खड़े मेरा मुंह क्या देख रहे हो? जल्दी से दीयों में तेल डालो। उनका प्रकाश कम होता जा रहा है।”

तीसरा दीया

दीया केवल एक था, जो झोपड़ी के सामने टिमटिमा रहा था। दीये में तेल भी बहुत कम था।

अन्दर खाट पर लक्खू पड़ा था। उसका नाम कभी लक्ष्मीचन्द होता था। जब वह अपने गांव से चलकर शहर आया था, तब मिल और झोपड़ियों की बस्ती में उसे लक्खू ही कहते थे। गरीब मजदूर को और विशेष रूप से जब वह बेकार हो, भला कौन लक्ष्मीचन्द कह सकता था। उसकी बीवी गंगा एक कोने में बने हुए चूल्हे पर भात पका रही थी और सोचती जा रही थी कि बच्चों को भात के साथ क्या खाने को दूं? दो रुपए घर में थे। उसकी वह लक्खू की दवा ले लाई थी। मालकिन ने खड़े-खड़े निकाल दिया था। केवल इसलिए कि उसने दीवाली की छुट्टी मांगी थी। पन्द्रह दिन की पगार बाकी थी, वह भी नहीं दी। कह दिया था, ”दीवाली के बाद आना; आज के दिन हम लक्ष्मी को घर से बाहर नहीं निकालते।” इतने में उसके दोनों बच्चे घर से भागते हुए आए। बड़ा सात साल का था लक्ष्मण, और छोटी चार बरस की थी मीना।

लक्ष्मण बोला, ”मां, मां, सेठ जी के महल में इत्तो दीये जल रहे हैं कि लगता है, रात नहीं दिन है और एक दीया तो इत्ताा बड़ा है कि सब उसे देवी का सम्राट बोलते हैं।”

और मीना ने भिनककर कहा, ”मां, भूख लगी है।”

पर लक्ष्मण ने उसे डांट दिया, ”मां, हमारे यहां एक ही दीया क्यों जल रहा है?”

”इसलिए बेटा कि हम गरीब हैं। तेल के पैसे नहीं कि और दीये जला सकें।”

और खांसते हुए लक्खू ने खाट पर से आवाज दी, ”अरी तो फिर यह दीया भी बुझा दे। इस झोपड़ी में अंधेरा ही ठीक है।”

”हाय राम!” गंगा जल्दी से बोली, ”दीवाली की रात को दीया बुझा दूं? अंधेरे में देवी लक्ष्मी नहीं आएंगी।”

लक्खू इतनी जोर से चिल्लाया कि फिर खांसी का दौरा पड़ गया, पर खांसते-खांसते भी वह बोलता गया, ”देवी सेठ लक्ष्मीदास के महल में जाएगी, लक्ष्मीचन्द के घर नहीं आएगी… न बुझा दीया… थोड़ी देर में तेल खत्म हो जाएगा, तो आपसे-आप ही बुझ जाएगा।”

लक्ष्मण जो खिड़की में से झांक रहा था, चिल्लाया, ”बाबा… बाबा, देखो दीये की लौ आपसे-आप ऊंची होती जा रही है।”

”पागल हुआ है बे!” लक्खू उसे डांट ही रहा था कि यह देखकर आश्चर्य में रह गया कि बाहर रखे हुए दीेये का प्रकाश अब झोपड़ी में भी फैलता जा रहा है।

दरवाजा खोला तो दीये के प्रकाश में देखा कि एक स्त्री वहां खड़ी है।

”क्या है बहन?”

”एक रात कहीं ठहरने का ठिकाना चाहिए। बड़ी दूर से आई हूं।”

”तो अन्दर आओ न!”

वह स्त्री दरवाजे में से अन्दर आई तो उसके साथ ही दीये का प्रकाश भी अन्दर आ गया।

लक्खू ने कहा, ”हमारे पास तो बस यही झोपड़ी है। होगी तो तकलीफ, पर इतनी रात गए और कहां जाओगी। खाट भी एक ही है, पर मैं अपना बिस्तर जमीन पर कर लूंगा।”

स्त्री जमीन पर बड़े आराम से फसकड़ा मारकर बैठ गई थी, ”नहीं भाई, तुम बीमार हो। तुम खाट पर सोओ। मैं तो धरती ही से निकली हूं, धरती ही से मुझे सुख-आराम मिलता है।”

गंगा ने कहा, ”लगता है, शहर में पहली बार आई हो! कहो, दीवाली की रोशनियां देखीं?”

”हां!” स्त्री ने थकी हुई-सी ठंडी सांस भरते हुए कहा, ”दीवाली की रोशनियां भी देखीं, दीवाली का अंधेरा भी देखा।”

गंगा उसका मतलब न समझी। लक्खू भी खाट पर पड़ा सोचता रहा। यह स्त्री तो कोई बड़ी ही अनोखी बातें करती है और उसने सहसा महसूस किया कि जैसे उसकी छाती पर से खांसी का बोझ आप-से-आप उतर गया हो। वह जो सात दिन से खाट पर पड़ा था, बिना सहारे के उठकर बैठ गया और बोला, ”गंगा, आज तो मुझे भी भूख लगी है। निकाल खाना, मेहमान के लिए भी।”

गंगा ने हांडी चूल्हे पर से उतारते हुए लज्जित होकर कहा, ”भात तो है, पर साथ खाने के लिए कुछ नहीं है। न जाने तुम सूखा भात भी खा सकोगी, बहन?”

”तुम मेरी चिन्ता मत करो।” स्त्री ने अपनी गठरी रखते हुए जवाब दिया, ”मेरे पास सब-कुछ है। वास्तव में यह मैं तुम्हारे लिए ही लाई थी।”

”हमारे लिए! पर तुम तो हमेें जानती ही नहीं थीं।”

”मैं तुम्हें बहुत अच्छी तरह जानती हूं बहन। लक्खू भाई को भी, लक्ष्मण और मीना को भी।” यह कहकर उसने गठरी खोली तो खाने की खुशबू सूंघकर बच्चे उसके पास आ गए।

”इसमें क्या है?” लक्खू ने खाट से उतरकर चूल्हे के पास बैठते हुए कहा।

स्त्री ने एक-एक चीज निकालकर उनके सामने रख दी, ”यह है मकई की रोटियां मक्खन लगी हुईं, यह है चने का साग, यह है गांव का असली घी, यह है दीवाली की मिठाई, असल खोये के पेड़े, यह है दही और इस लुटिया में बच्चों के लिए गाय का दूध। शहर की तरह पानी मिला नहीं है।”

और यह सुनकर सब हंस पड़े, पर इतना खाना देखकर लक्खू की आंखों में खुशी के आंसू आ गए। रोटी का निवाला बनाते हुए बोला, ”यह सब हो तो फिर आदमी को और क्या चाहिए?”

वे खाना खाते जा रहे थे और उस अज्ञात स्त्री की ओर कनखियों से देखते जा रहे थे, जो न जाने कहां से उनके लिए यह सारी नेमतें लेकर आ गई थी।

खाना खाकर वे सब आराम से बैठे। तब गंगा ने कहा, ”बहन, आज तुम्हारी बदौलत हमारी दीवाली हो गई।”

और लक्खू हंसकर बोला, ”नहीं तो दीवाला-ही-दीवाला था। तुम्हारा धन्यवाद कैसे करें, बहन? हमें तो तुम्हारी पूजा करनी चाहिए।”

और स्त्री ने कहा, ”धन्यवाद तो मुझे तुम्हारा करना चाहिए। मैं इस सारे शहर में फिरी, पर किसी ने मुझे रातभर के लिए सहारा नहीं दिया, सिवाय तुम्हारे। सब महलों के, सब बंगलों के दरवाजे बन्द थे। मेरे लिए खुला था तो केवल तुम्हारी झोपड़ी का दरवाजा। अब मैं हर बरस तुम्हारे यहां आया करूंगी दीवाली पर।”

गंगा ने कहा, ”बहन, तुम कल सवेरे चली जाओगी, तो हम तुम्हें याद कैसे करेंगे? हमें तो यह भी नहीं मालूम, तुम कौन हो? कहां से आई हो?”

और उसका जवाब सुनकर वे सब बड़ी गहरी सोच में पड़ गए। उस स्त्री ने कहा, ”मैं यहां तुम लोगों के पास रहती हूं… मैं इन खेतों के पास रहती हूं, जहां लक्खू भैया के बाबा अनाज उगाया करते थे और मैं उस कारखाने में भी रहती हूं, जहां लक्खू भैया मशीनों से कपड़ा बुनते हैं। जहां इंसान अपनी मेहनत से अपनी जरूरतें पैदा करता है, मैं वहीं रहती हूं और दीवाली की रात को मैं हर उस घर पहुंच जाती हूं, जहां एक दीये में भी मुझे इंसानियत और सच्चा प्रेम झिलमिलाता हुआ दिखाई देता है।”

थोड़ी देर झोपड़ी में सन्नाटा रहा। अब उस इकलौते नन्हे दीये का प्रकाश इतना तेज हो गया था कि झोपड़ी का कोना-कोना जगमगा उठा था और दूर सेठ लक्ष्मीदास के महल में अंधेरा छा गया था। शायद करंट और जनरेटर दोनों फेल हो गए थे और बाबू लक्ष्मीकान्त की बालकनी के सारे दीये भी तेल खत्म होने पर बुझ गए थे।

”देवी!” गंगा ने डरते-डरते पूछा, ”तुम्हारा नाम क्या है?”

और उस स्त्री ने मुस्कराकर जवाब दिया, ”लक्ष्मी!”

– अनुवाद: सुरजीत

(भारतीय पक्ष)

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