डॉ. अम्बेडकर का मत परिवर्तन और बौद्ध धर्म

6
715

14 अक्तूबर पर विशेष 

वर्तमान भारत में जब-जब भगवान बुद्ध को स्मरण किया जाता है, तब-तब स्वाभाविक रूप से बाबा साहब डा0 भीमराव अम्बेडकर का भी नाम लिया जाता है। क्योंकि स्वतंत्रता के बाद बहुत बड़ी संख्या में एक साथ डा0 अम्बेडकर के नेतृत्व में ही मत परिवर्तन हुआ था। 14 अक्तूबर, 1956 को नागपुर में यह दीक्षा सम्पन्न हुई।

दीक्षा विधि की विस्तृत योजना तैयार करने वाले उनके सहकारी वामनराव गोडबोले के अनुसार बाबा साहब ने सुबह से ही तैयारी की। उन्होंने दिल्ली से मंगाया सफेद लम्बा कोट, सफेद रेशमी कुरता और कोयम्बटूर से मंगायी सफेद धोती पहनी। पैर में बिना फीते वाला जूता पहना। इस प्रक्रिया में उनकी पत्नी डा0 सविता अम्बेडकर (माईसाहब) और रत्ताू ने उनकी सहायता की। इसके बाद वे विशेष रूप से बनाये गये दीक्षा स्थान पर गये।

बाबा साहब श्याम होटल में ठहरे थे। वहां से निकलने से पहले अपने सहयोगी गोडबोले को उन्होंने कहा कि आज जो कुछ होने जा रहा है, यह मेरे पिताजी के कारण ही संभव हो पा रहा है। वे बहुत धार्मिक व्यक्ति थे। उन्होंने ही मेरा धार्मिक मानस बनाया है। इसलिए दीक्षा से पूर्व सबको उन्हें श्रध्दांजलि देनी चाहिए। गोडबोले की सूचना पर सबने दो मिनट मौन खड़े होकर स्व0 रामजी सकपाल को श्रध्दांजलि दी।

दीक्षा विधि प्रारम्भ होने पर सर्वप्रथम उन्होंने और माई साहब ने मत परिवर्तन किया। उन्होंने तत्कालीन भारत के वयोवृद्ध भन्ते चंद्रमणि से बौद्ध मत का अनुग्रह पाली भाषा में लिया। बाबासाहब हिन्दू और बौद्ध मत को एक वृक्ष की दो शाखा मानते थे। उनके मन में हिन्दू धर्म के प्रति कितना प्रेम था, यह इस बात से प्रकट होता है कि जब उन्होंने यह कहा कि आज से मैं हिन्दू धर्म का परित्याग करता हूं, तो उनके नेत्र और कंठ भर आये। यह कार्यक्रम 15 मिनट में पूरा हो गया। इसके बाद महाबोधि सोयायटी ऑफ इंडिया के सचिव श्री वली सिन्हा ने उन दोनों को भगवान बुद्ध की धर्मचक्र प्रवर्तक की मुद्रा भेंट की, जो सारनाथ की मूर्ति की प्रतिकृति थी।

इसके बाद बाबा साहब ने जनता को सम्बोधित करते हुए कहा कि अब आपमें से जो भी बौद्ध धर्म ग्रहण करना चाहें, वे हाथ जोड़कर खड़े हो जाएं। लगभग पचास-साठ हजार लोग खड़े हो गये। मंचस्थ लोग भी इसी मुद्रा में खड़े हुए। बाबा साहब ने उन्हें 22 शपथ दिलाईं, जो उन्होंने स्वयं तैयार की थीं। इस प्रकार दो घंटे में यह पूरा कार्यक्रम सम्पन्न हो गया।

बाबा साहब को आशा थी कि केवल हिन्दू ही उनके साथ मत परिवर्तन करेंगे; पर कुछ मुसलमान और ईसाइयों ने भी बौद्ध मत ग्रहण किया। जब बाबा साहब के ध्यान में यह आया, तो उन्होंने कहा कि हमें अपनी प्रतिज्ञाओं में कुछ बदल करना होगा, क्योंकि उनमें हिन्दू देवी-देवताओं और अवतारों को न मानने की ही बात कही थी। यदि मुस्लिम और ईसाई बौद्ध बनना चाहते हैं, तो उन्हें मोहम्मद और ईसा को अवतार मानने की धारणा छोड़नी होगी। यद्यपि यह काम नहीं हो पाया, क्योंकि इस समारोह के डेढ़ माह बाद छह दिसम्बर, 1956 को बाबा साहब का देहांत हो गया।

यह धर्म परिवर्तन था या मत परिवर्तन, यह बहस का विषय हो सकता है; पर डा0 अम्बेडकर ने इसे धर्म परिवर्तन ही कहा है। उन्होंने स्वीकार किया है कि सबसे पहले 13 अक्तूबर 1935 को येवला में जब उन्होंने धर्म परिवर्तन की घोषणा की, तो उनसे अनेक लोगों ने सम्पर्क किया। इनमें सिख पंथ के लोग थे, तो आगा खां व निजाम जैसे मुस्लिम व ईसाई मजहब वाले भी।

निजाम हैदराबाद ने पत्र लिखकर उन्हें प्रचुर धन सम्पदा का प्रलोभन तथा मुसलमान बनने वालों की शैक्षिक व आर्थिक आवश्यकताओं की यथासंभव पूर्ति की बात कही, तो ईसाइयों ने भी ऐसे ही आश्वासन दिये; पर डा0 अम्बेडकर का स्पष्ट विचार था कि इस्लाम और ईसाई विदेशी मजहब हैं। इनमें जाने से अस्पृश्य लोग अराष्ट्रीय हो जाएंगे। यदि वे मुसलमान होते, तो मुस्लिमों की संख्या भारत में दोगुनी हो जाती तथा देश में उनका वर्चस्व बढ़ जाता। यदि वे ईसाई बनते, तो उनकी संख्या पांच-छह करोड़ हो जाने से ब्रिटिश सत्ताा की पकड़ मजबूत हो जाती। इस कारण बाबा साहब इन मजहबों में जाने के विरुद्ध थे।

दूसरी ओर वे भारत भूमि में जन्मे तथा यहां की संस्कृति में रचे बसे सिख पंथ के समर्थक थे। एक समय तो उन्होंने अपने समर्थकों सहित सिख बनने का निर्णय कर ही लिया था। अप्रैल 1936 में अमृतसर के गुरुद्वारे में एक सभा हुई, जिसमें डा0 अम्बेडकर सिख वेश में उपस्थित थे। 18 जून, 1936 को बाबासाहब की हिन्दू महासभा के एक बड़े नेता डा0 मुंजे से भेंट हुई। इसके बाद डा0 मुंजे 22 जून को मुंबई गये, जहां उन्होंने बाबासाहब के इस निर्णय को हिन्दू समाज का समर्थन दिलाने का प्रयास किया।

इससे हिन्दू सभा के नेता बैरिस्टर जयकर, सेठ जुगलकिशोर बिड़ला, विजय राघवाचारियर, राजा नरेन्द्रनाथ तथा शंकराचार्य जैसे लोग उनके समर्थन में आये; पर किसी कारण से यह योजना स्थगित हो गयी। आगे चलकर डा0 अम्बेडकर के ध्यान में आया कि सिख पंथ भी जातिभेद से पीड़ित है। अत: उन्होंने सिख बनने का विचार त्याग दिया।

अब बाबासाहब ने जातिभेद से मुक्त बौद्ध मत की ओर ध्यान दिया। 1935 से 1956 तक की उनकी यात्रा इसी ओर संकेत करती है। उन्होंने इटली के भिक्खु सालाडोर सहित अनेक बौद्ध भिक्खुओं से चर्चा की। रैशनलिस्ट एसोसिएशन, मद्रास के कार्यक्रम में उन्होेंने 1944 में ‘बौद्ध धर्म और ब्राह्मण धर्म’ विषय पर भाषण दिया। 1948 में अपने प्रसिद्ध एवं बहुचर्चित ग्रंथ ‘हू वर शूद्राज’ में उन्होेंने भगवान बुद्ध को भी शूद्र बताया। जनवरी 1950 में उन्होंने बुद्ध जयंती सार्वजनिक रूप से मनायी। 1950 में महाबोधि सोसायटी के मुखपत्र में उन्होंने बौद्ध धर्म के बारे में अपने विचार व्यक्त किये। 5 मई, 1950 को ‘जनता’ समाचार पत्र में उन्होंने बौद्ध धर्म के प्रति अपने झुकाव को अधिकृत रूप से घोषित किया।

इसी मास में श्रीलंका में आयोजित बौद्ध धर्म परिषद में वे निरीक्षक के नाते उपस्थित रहे तथा वहां के अस्पृश्यों को बौद्ध मत ग्रहण करने का आह्नान किया। जुलाई 1950 में वरली में बुद्ध मंदिर के उद्धाटन के समय उन्होंने अपना शेष जीवन भगवान बुद्ध की सेवा में समर्पित करने की घोषणा की। 1954 में विश्व बौद्ध परिषद के तृतीय अधिवेशन में में रंगून (बर्मा) गये। वहां उन्होंने श्रीलंका और बर्मा के अपने अनुभव के आधार पर बौद्ध धर्म में ऊपरी तामझाम और समारोहप्रियता की आलोचना की। उन्होंने इस पर होने वाले व्यय को धर्मप्रचार पर करने को कहा।

1955 में उन्होंने मुंबई में ‘भारतीय बौद्धजन सभा’ की स्थापना की। दीक्षा लेने के बाद इस संस्था का नाम ‘भारतीय बौद्ध महासभा’ हो गया। मार्च 1956 में अश्वघोष रचित ‘बुद्ध चरित’ पर आधारित उनका ‘दि बुद्ध एंड हिज धम्म’ नामक ग्रंथ प्रकाशित हुआ। मई 1956 में बी.बी.सी लंदन से उनका बौद्ध धर्म पर व्याख्यान प्रसारित हुआ। स्पष्ट है कि वे धीरे-धीरे इस ओर आकृष्ट हो रहे थे।

बाबा साहब ने बौद्ध मत को तत्कालीन प्रचलित परम्पराओं के बदले उसके संशोधित रूप में स्वीकार किया। ‘दि बुद्ध एंड हिज द्दम्म’ तथा 1951 से 1956 के उनके भाषणों से यह प्रकट होता है। भगवान बुद्ध ने महापरिनिर्वाण्ा से पूर्व अपने शिष्य आनंद को अपनी बुध्दि और सत्य की शरण में जाने को कहा था। बाबा साहब ने भी धर्मान्तरण से काफी समय पूर्व अपने अनुयायियों को कहा था कि मैं आपसे बौद्ध धर्म में आने का आग्रह तो करता हूं; पर इससे आपस में फूट नहीं पड़नी चाहिए। जो इसमें आना चाहें, वे केवल भावना के वश होकर नहीं, अपितु विचारपूर्वक इसे ग्रहण करें।

बाबा साहब ने बौद्ध धर्म में प्रचलित चमत्कार व कथाओं को नहीं माना। 29 वर्ष की अवस्था में सिध्दार्थ के गृहत्याग के बारे में कहा जाता है कि एक वृद्ध, एक बीमार और एक मृतक को देखकर उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। बाबा साहब का मत था कि इस अवस्था तक यह संभव नहीं कि उन्होंने कभी वृद्ध, बीमार या मृतक को न देखा हो। इसी प्रकार उन्होंने चार आर्य सत्यों को बौद्ध धर्म की मूल मान्यताओं के विपरीत बताते हुए कहा है कि ये भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित नहीं हैं। यदि जन्म, मृत्यु, पुनर्जन्म सब दुख है, तो फिर मनुष्य की आशा नष्ट हो जाती है और व्यक्ति निराशावादी बनता है। इसलिए अपने ग्रंथ में उन्होंने इन चारों का उल्लेख नहीं किया।

बाबा साहब बौद्ध धर्म की वर्तमान संघ व्यवस्था के भी समर्थक नहीं थे। इसलिए उन्होंने दीक्षा के समय ‘संघ शरणं गच्छामि’ नहीं कहा। विश्व में बौद्ध मत में हीनयान और महायान नामक दो पंथ मुख्यत: प्रचलित हैं। बाबा साहब ने इन दोनों को यथारूप में स्वीकार नहीं किया। इस विषय में श्री माडखोलकर ने उनसे पूछा कि तब क्या आपके पंथ को भीमयान कहें ? बाबा साहब ने हंसते हुए कहा कि चाहे तो आप इसे नवयान कहें; पर मैं इसे भीमयान कहकर स्वयं को भगवान के बराबर खड़ा नहीं कर सकता। मैं तो एक छोटा आदमी हूं। मैंने संसार को नया विचार नहीं दिया। हां, भगवान द्वारा प्रवर्तित धर्मचक्र जो पिछले हजार साल से इस देश में रुका हुआ था, मैंने केवल उसे पुन: प्रवर्तित किया है।

बाबा साहब का मत था कि बौद्ध धर्म अंतरराष्ट्रीय होने के बाद भी हर देश में स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार उसमें कुछ प्रथाएं जुड़ गयी हैं। ऐसी प्रथाएं सारे विश्व में एक समान हों, यह आवश्यक नहीं। उदाहरणार्थ तिब्बत में किसी व्यक्ति के मरने पर लामा उसके शव के टुकड़े कर उन्हें मसलकर गोले बनाकर ऊपर फेंकते हैं, जिससे गिद्ध उन्हें खा जाएं; पर भारत में यह परम्परा चलाना संभव नहीं है। बाबा साहब ने बौद्ध धर्म में दीक्षा विधि प्रारम्भ की, जबकि इसका प्रतिपादन भी भगवान बुद्ध ने नहीं किया तथा यह बौद्धधर्मी अन्य देशों में प्रचलित नहीं है।

उनका मत था कि एक समय पूरा भारत बौद्धधर्मी हो गया था; पर जब शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता पुनर्स्थापित की, तो सारे बौद्ध फिर हिन्दू बन गये। बाबा साहब के अनुसार बौद्ध धर्म में कोई दीक्षा विधि न होने के कारण बौद्ध बने लोगों ने हिन्दू देवी-देवता, पर्व, त्यौहार आदि को मानना नहीं छोड़ा। हिन्दुओं ने भी बुद्ध को विष्णु का नौवां अवतार मान कर अपने धर्म में समाविष्ट कर लिया।

उनका कहना था यदि ऐसा न किया, तो हो सकता है कि हिन्दू मुझे विष्णु का 11वां अवतार कह कर हमारे लोगों को फिर हिन्दू बना देंगे। इसलिए उन्होंने दीक्षा विधि की कठोर प्रतिज्ञाओं में हिन्दू देवी-देवताओं को न मानने को प्रमुखता से समाविष्ट किया। वे बौद्ध विद्वान, प्रवचनकार और शास्त्रार्थ करने वाले तैयार करना चाहते थे; पर समयाभाव के कारण यह संभव नहीं हो पाया।

यहां यह प्रश्न स्वाभाविक है कि बाबा साहब के इस कार्य से देश और हिन्दू धर्म को क्या लाभ हुआ ? इसके उत्तार में यही कहा जा सकता है कि बौद्ध मत भारत की मिट्टी से उपजा होने के कारण बौद्ध लोगों की निष्ठा कभी देश से बाहर नहीं हो सकती, जबकि मुस्लिम और ईसाई मजहब के साथ ऐसा नहीं है। इसलिए बाबा साहब का देश और हिन्दू समाज पर बहुत बड़ा उपकार है। उन्होंने समाज के निर्धन, निर्बल और वंचित वर्ग के लिए एक ‘सेफ्टी वाल्व’ बना दिया, इसके न होने पर उनमें से अनेक लोग धन, शिक्षा या नौकरी आदि के लालच में मुस्लिम या ईसाई बन सकते थे।

इस मत परिवर्तन से हिन्दू समाज के कई बड़े नेताओं ने अपने व्यवहार में परिवर्तन किया। बाबासाहब द्वारा धर्मान्तरण की घोषणा के बाद मैसूर शासन ने राजाज्ञा द्वारा अस्पृश्यों को दशहरा दरबार में आने की अनुमति दी। त्रावणकोर शासन ने भी अपने अधिकार के 30,000 मंदिरों को सबके लिए खोल दिया। इससे हिन्दू समाजोत्थान का एक नया पर्व प्रारम्भ हुआ।

बाबा साहब के इस क्रांतिकारी कदम का आगे आने वाले समय पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इसलिए उनके एक प्रमुख जीवनीकार धनंजय कीर ने कहा है कि हिन्दू समाज का पहला पुनर्जीवन उपनिषदों ने, दूसरा भगवान बुद्ध ने, तीसरा रामानुज, चक्रधर, कबीर, रामानंद, नानक, चैतन्य, ज्ञानदेव जैसे संतों ने, चौथा राजा राममोहन राय, महात्मा फुले, दयानंद सरस्वती, न्यायमूर्ति रानाडे, विवेकानंद, सावरकर, गांधी आदि ने किया। इसी कड़ी में वे पांचवे पुनर्जीवन और पुनर्गठन का श्रेय डा0 अम्बेडकर को देते हैं। उनके इस मत से असहमत नहीं हुआ जा सकता।

6 COMMENTS

  1. मेरी राय में धर्मपरिवर्तन पलायनवादी रास्ता है और जितना मैं जान पाया हूँ, हिन्दू धर्म जितना उदार अन्य कोई धर्म है ही नहीं, जो नास्तिक तक को भी हिन्दू मानता है|
    ………………………………….

    डॉ. भीमराव अम्बेड़कर द्वारा इस्लाम के बजाय बौद्ध धर्म को कुबूल किये जाने को भी हिन्दू धर्म की महानता की तरह पेश किये जाने के लिये लिखे गये लेख या लेख पर की गयी टिप्पणियों को पढने के बाद मेरे मन में जो बात बार-बार उठ रही है, वह यह है कि यदि हिन्दू धर्म इतना ही महान है तो फिर बाबा साहेब ने हिन्दू धर्म को त्यागा ही क्यों? हालांकि मैं व्यक्तिगत रूप से बाबा साहेब के धर्मपरिवर्तन करने के विचार या कृत्य से कतई भी सहमत नहीं हूँ| मेरी राय में धर्मपरिवर्तन पलायनवादी रास्ता है और जितना मैं जान पाया हूँ, हिन्दू धर्म जितना उदार अन्य कोई धर्म है ही नहीं, जो नास्तिक तक को भी हिन्दू मानता है| जिसके बारे में श्री संजय जी ने भी अपनी टिप्पणी में उल्लेख किया है|

    अत: मेरे विचार से इस विषय पर चर्चा करने के लिये सबसे बड़ा सवाल तो ये होना चाहिए की बाबा साहेब जो देश के विधि मंत्री के पद तक पहुंचे, उन्हें भी क्यों हिन्दू धर्म त्यागकर अन्य किसी भी धर्म में जाने के लिए सोचना या विवश होना पड़ा! और अन्तत: धर्म परिवर्तित हुए| लगता नहीं की हिन्दू धर्म में पैदा होने वाला कोई साधारण व्यक्ति, साधारण हालातों में अपने धर्म को बदलने या छोड़ने के बारे में सोचता होगा?

    इस विषय में यदि वास्तव में ही हम संजीदा हैं तो हमें उदारता पूर्वक दुराग्रही पूर्वजों के अपराधों (पितृदोषों) या उनकी गलतियों या भूलों को धर्म या संस्कृति के चोले में ढकने के बजाय, खुले हृदत से स्वीकारना और सुधारना होगा, जिससे आगे कोई हिन्दू ‘‘जाकिर’’ या ‘‘मसीह’’ बनने को विवश नहीं हो या बरगलाया नहीं जा सके!

    लेख में या लेख पर की गयी टिप्पणियों में इस बारे में कुछ भी नहीं लिखा जाना सच्चाई को ढकना या हिन्दू धर्म की अन्यायपूर्ण/असंगत/बुरी/गलत बातों (हर धर्म में कुछ न कुछ गलत है, जिसके लिये धर्म नहीं तो धर्म रक्षक या धर्म प्रवर्तक कोई न कोई जिम्मेदार होता ही है) को अस्वीकार करना ही तो है! इस कमजेारी का लाभ उठाकर के दुराग्रही और दुष्ट षड़यन्त्रकारियों द्वारा हिन्दू समाज के भोले-भाले या हिन्दू समाज द्वारा हजारों वर्षों से दमित या शोषित या अछूत या तिरष्कृत या अभावग्रस्त या विपन्न या असन्तुष्ट लोगों को धर्म बदलने को लुभाया और बरगलाया जाता रहा है! हो सकता है कि धर्मपरिवर्तन के और भी कारण रहे हों! अभी तक का मेरा अनुभव इतना ही है!

    मेरी नज़र में तो धर्म बदलना आत्महत्या जैसा ही एक जघन्य और घिनौना कृत्य है! मानव मनोविज्ञान की दृष्टि से देखा जाये तो इसके लिए उत्प्रेरक कारण ही अधिक जिम्मेदार होते हैं! जिनको खुलकर सामने लाने और उत्तरदायी ठहराने के साथ-साथ स्थायी समाधानकारी प्रयासों की सख्त जरूरत है!

    कृपया सकारात्मक और समाधानकारी सोच के साथ चर्चा को आगे बढाने में योगदान करें|

    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

  2. मेरी अंतिम टिपण्णी संजय जी की टिपण्णी के सन्दर्भ में थी| अम्बेडकर जी के विषय में नहीं|

  3. हिन्दू धर्मं में ६ दर्शन हैं; नास्तिकता से लेकर एकेश्वर तक संसार भर का हर दर्शन है| समय समय पर नए आन्दोलन भी जैसे आर्य समाज, प्रार्थना समाज, ब्राह्मोसमाज भी पनपते रहे हैं| फिर अस्पृश्यता निवारणार्थ, महिलाओं के उद्धारार्थ इत्यादि असंख्य आन्दोलन भी चलते रहें है| जब इतनी सुविधाएं जिस धर्म में उपलब्ध हो, तो उससे अलग होना निरी मुर्खता ही कही जाएगी| क्या दयानंद सरस्वती के आर्य समाज में, या सिख धरममें सम्मिलित नहीं हुआ जा सकता था?
    क्या==> “यः तर्केण अनुसंधते स धर्मो वेदते नेतरः”
    सूना हुआ है?

  4. जय श्री राम भाइयों
    कल मै पिस टीवी में जाकिर नायक का प्रोग्राम देख रहा था , वहां दस मिनट के अन्दर दो लड़कों को हिन्दू से मुस्लमान बनते दिखाया गया , उन दोनों ने इस्लाम को होशो हवाश में अपनाया , मुझे बड़ा आश्चर्य हुवा कि हिन्दू में कुछ लोग ऐसे भी है जो इस्लाम कुबूल करना चाहते हैं , वो पहले से इस्लाम और कुरान के बारे में जानकारी रखते थे और केवल इस्लाम ग्रहण करने के लिए ही इस प्रोग्राम आये थे , मुझे लगा कि इनके जैसा कोई मुर्ख है नहीं , इनके सवाल सुनके तो ऐसा ही लगा….
    पहला लड़का कहता है कि उसे एक ब्राम्हण ने कहा कि ३३ कोटि देवता है , इसलिए वो जानना चाहता है कि कितने देवता है , जाकिर ने कहा कि देवता एक है और वेदों का हवाला देते हुए कहा कि देवता एक ही माना गया है तथा उसकी कोई प्रतिमा नहीं होती . उस पंडित को नहीं मालूम . फिर कहा कि क्या आप खुदा को मानते है , मूर्ति पूजा गलत मानते है उस लड़के ने हामी भरा . इस तरह फिर कुछ आयत पढ़कर वह मुस्लिम हो गया . ऐसा मुर्ख है.
    दूसरा लड़का बोला कि उसके पडोसी पंडित ने पूछने को कहा है कि हर कम सीधे हाथ से क्यों किया जाता है , जबकि दिल तो बाएं तरफ होता है , जाकिर ने बोला कि विज्ञानं ने माना है कि दिमाग का बाया भाग , शारीर के दायें भाग को नियंत्रित तथा दायाँ भाग , बाएं भाग को नियंत्रित करता है और कुछ क्या क्या बोला और कहा कि अच्छे कम सीधे हाथ से करते है बस इतनी सी बात के बाद वो संतुष्ट हो गया और इस्लाम ग्रहण कर लिया , वो लड़का कहता है कि उसके घर में माँ जब पूजा करती है तो सर नहीं झुकता क्योकि वो खुदा को मानता है , माँ के डांटने पर भी वो नहीं मानता , सोचिये इस लड़के के बारे में जो अपने माँ बाप को मुर्ख समझता है , और अपने पूर्वजों का अपमान करता है ,
    अब सोचने वाली बात ये है कि जब उसे एक इश्वर को ही मानना था तो भारत का कोई और धर्मं अपना लेता , या नास्तिक हो जाता . ज्यादा ही धर्मं को जानना था तो धर्मं गुरुओ के पास जाता , इन्टरनेट पर सर्च कर लेता , अरे कुछ अच्छा सा आध्यात्मिक सवाल पूछ लेता .
    इस तरह के लोग ही जो मुर्ख होते है अपने धर्मं को छोड़कर अन्य को अपनाते हैं. अपने मात्री धर्म कि खोज खबर तो ले नहीं सकते , चले आते है धर्म बदलने …..वो भी इस्लाम , जिसकी आज इतनी आलोचना हो रही हो .
    उन लडको ने कसम भी खायी कि औरो को भी इस्लाम में लाने का प्रयत्न करेंगे , अपने पुरे गाव को इस्लाम बना एंगे …
    इस प्रकार लगता है कि जाकिर मूर्खो को इस्लाम दे कर जनसँख्या बढ़ाना चाहते है और भारत को इस्लामिक देश में बदलना चाहते हैं
    आप लोगो कि क्या प्रतिक्रिया है ……

  5. आंबेडकर जी का निर्णय राष्ट्र हित व धर्म हित दोनों में थी

  6. डॉ. अम्बेडकर जी की राष्ट्र निष्ठा उनके निर्णय में झलकती है| उनके प्रति आदर अनुभवता हूँ|
    केवल एक प्रश्न की ओर, ऐतिहासिक घटना ओं के सन्दर्भ में, ध्यान गए बिना नहीं रहता|
    वह यह है, की हिन्दू समाज की परस्पर सहकार आधारित परम्पराएं जहां नहीं थी वहां बुद्ध धर्म आधारित व्यवस्था टिक नहीं पायी थी| जैसे अफगानिस्तान से बुद्ध धर्मियोंका लुप्त होना| यह एक ऐतिहासिक सत्य है|

Leave a Reply to dr. madhusudan Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here