आमचुनाव से ठीक पहले एक टीवी चैनल द्वारा अपने सिटंग आपरेशन में ओपिनियन पोल में गड़बड़झाला का खुलासा किए जाने के बाद चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों की विश्वसनीयता और पारदर्शिता को लेकर नए सिरे से बहस तेज हो गयी है। कांग्रेस, वामदल व आम आदमी पार्टी ने चुनाव आयोग से इस पर प्रतिबंध की मांग की है वही भारतीय जनता पार्टी प्रतिबंध के खिलाफ है। चुनाव आयोग का कहना है कि चूंकि वह 10 साल पहले ही ओपिनियन पोल्स पर रोक लगाने की सिफारिश कर चुका है लिहाजा अब सरकार को ही कार्रवार्इ करनी होगी। एक तरह से उसने गेंद सरकार के पाले में डाल दी है। देखना दिलचस्प होगा कि सरकार का रुख क्या रहता है। फिलहाल मीडिया पर उसकी भौंहे टेढ़ी है और उसे इजहार भी कर रही है। अभी चंद रोज पहले केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने इलेक्ट्रानिक चैनलों को कुचल देने की धमकी दी। कांग्रेस की तरह आम आदमी पार्टी भी मीडिया के खिलाफ है। उसके नेता अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि देश में ओपिनियन पोल स्कैम चल रहा है और उसकी एसआइटी से जांच होनी चाहिए। रोहतक की जनसभा में वे कुपित होकर मीडिया को ठीक करने की धमकी भी दी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी मीडिया पर लाल-पीले हो चुके हैं।
सवाल लाजिमी है कि आखिर राजनीतिक दलों की मीडिया से इतनी नफरत और खुन्नस क्यों? क्या सिर्फ इसलिए कि सभी सर्वेक्षणों में भारतीय जनता पार्टी और उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी आगे दिखाए जा रहे हैं? या इसलिए कि मीडिया केंद्र व राज्य सरकारों के घपले-घोटालों और नाकामियों को उजागर कर रही है? अगर ऐसा कुछ नहीं तो फिर उन्हें स्पष्ट करना चाहिए कि उनका दोहरा मापदंड क्यों है? क्या यह सच नहीं है कि कर्नाटक विधान सभा चुनाव से पूर्व कांग्रेस ने चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों को वैज्ञानिक और तथ्यपूर्ण कहा और दिल्ली विधानसभा चुनाव से पूर्व खुद आम आदमी पार्टी ने सर्वेक्षण करा उसमें अपने को सबसे आगे दिखाया? यह कहां तक उचित है कि जब सर्वेक्षण के नतीजे उनके पक्ष में आए तो वे ओपिनियन पोल को वैज्ञानिक और पारदर्शी कहें और जब विपरित आए तो उस पर इल्जाम थोपें। बेशक इससे किसी को इंकार नहीं कि ओपिनियन पोल पूर्णत: वैज्ञानिक नहीं है और उनमें सुधार की जरुरत है। हो सकता है कि कुछ ओपिनियन पोल एजेसियां कारपोरेट और राजनीतिक दलों के प्रभाव में हो? यह भी सही है कि कुछ राजनीतिक दलों के अपने चैनल व अखबार हैं और वे ओपिनियन पोल के जरिए अपने पक्ष में हवा बनाते हैं। लेकिन इस निष्कर्ष पर पहुंचना कि सभी ओपिनियन पोल एजेंसियां भ्रष्ट हैं और पैसे लेकर काम करती हैं, सही नहीं है। यह भी सही नहीं है कि ओपिनियन पोल के जरिए देश के लोगों को गुमराह किया जा सकता है। अगर ऐसा होता तो चुनावी निष्कर्ष ओपिनियन पोल के इतर नहीं आते।
2004 में अधिकांश ओपिनियम पोल में राजग को सत्ता में वापसी करते हुए दिखाया गया लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यूपीए सरकार बनाने में कामयाब रही। दक्षिण राज्यों के चुनाव में अक्सर ओपिनियन पोल गलत साबित होते हैं। ऐसे में इन पर प्रतिबंध की मांग उचित नहीं है। फिर इस आधार पर तो लेख, संपादकीय, ब्लाग लिखने पर भी रोक लगाने की मांग की जा सकती है। क्या यह उचित होगा? पिछले दिनों चुनाव आयोग ने सरकार को ओपीनीयन पोल पर रोक लगाने का प्रस्ताव दिया था। तब सरकार ने आयोग से कहा कि वह किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले सभी राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श करे। आयोग ने सभी राश्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त दलों को अपने विचार देने को कहा। लेकिन किसी ने विचार देना जरुरी नहीं समझा। उचित होगा कि सभी राजनीतिक दल अपने विचारों से चुनाव आयोग को अवगत कराएं। इससे चुनाव आयोग को किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में आसानी होगी। लेकिन यह समझना जरुरी है कि जनमत सर्वेक्षणों पर रोक लगाने मात्र से चुनाव की शुचिता स्थापित होने वाली नहीं, जब तक कि चुनाव आयोग और उच्चतम न्यायालय द्वारा चुनावी सुधार से जुड़े फैसलों पर राजनीतिक दलों द्वारा अमल नहीं किया जाता है। लेकिन आश्चर्य है कि कोर्इ भी दल इसके लिए तैयार नहीं हैं। उचित होगा कि कांग्रेस ओपिनियन पोल पर रोक लगाने की मांग से पहले अपने बही खातों और चुनावी चंदों के स्रोतों को सार्वजनिक करे। उचित यह भी होगा कि आम आदमी पार्टी जो सभी राजनीतिक दलों से पारदर्शिता की अपेक्षा करती है वह भी विदेशों से मिले चंदे के स्रोतो को देश के सामने रखे। लेकिन आश्चर्य कि इस पर दोनों दलों का रुख नकारात्मक है। विडंबना यह भी है कि एक ओर राजनीतिक दल ओपिनियन पोल से जुड़ी एजेंसियों को भ्रष्ट बता उस पर सवाल खड़ा करते हैं और दूसरी ओर उन्हीं से अपने उम्मीदवारों के बारे में सर्वे कराते हैं। आखिर क्यों? क्या यह उनके दोहरे मापदंड को उजागर नहीं करता है? उचित होगा कि राजनीतिक दल ओपिनियन पोल के निष्कर्ष को जीत-हार के फ्रेम में रखकर देखने के बजाए उसे समाज-राजनीति को समझने-जानने का एक शोधपरक जरिया समझें। इससे शासन-प्रशासन और उसकी नीतियों को लेकर जनता की राय सामने आती है।
कांग्रेस के इस आरोप में दम नहीं कि सर्वे करने वाली सभी एजेंसियां निष्पक्ष नहीं हैं और वे पैसे लेकर भाजपा के पक्ष में लहर तैयार कर रही हैं। कांग्रेस के पास भी पैसे की कमी नहीं है। जब वह हजारों करोड़ रुपए प्रचार में झोंक सकती है तो वह अपने पक्ष में सर्वे भी करा सकती है। सच तो यह है कि अगर सर्वे एजेंसियां बिकती तो उनका बोली लगाने वालों में कांग्रेस सबसे आगे रहती। आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने भी मीडिया पर तंज करते हुए नरेंद्र मोदी से पूछा है कि वह और उनकी पार्टी ने किस चैनल और ओपिनियन पोल एजेंसी को पैसे बांटे हैं। यह सवाल अनुचित ही नहीं बलिक इस बात का भी संकेत है ओपिनियन पोल पर उनकी प्रतिबंध की मांग सिर्फ इसलिए है कि सर्वेक्षणों में उनकी हालत खस्ता है और भारतीय जनता पार्टी मजबूत। दरअसल कांग्रेस, वामदल और आम आदमी पार्टी को भान हो चुका है कि आमचुनाव में उन्हें करारी शिकस्त मिलने जा रही है। लिहाजा उसकी कोशिश अब सर्वे को पक्षपातपूर्ण बता यह साबित करना है कि देश में मोदी की कोर्इ लहर नहीं है और मीडिया पैसे लेकर उनके पक्ष में हवा बना रही है। ऐसे में भाजपा का कहना अनुचित नहीं है कि चूकि सर्वे के नतीजे कांग्रेस के खिलाफ हैं इसलिए वह उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रही है। अगर यह सच है तो कांग्रेस का रवैया लोकतंत्र से खेलने जैसा है। प्रतिबंध की मांग करने वाले राजनीतिक दलों को समझना होगा कि ओपिनियन पोल एजेसियों की अपनी साख होती है। कोर्इ भी एजेंसी प्रायोजित सर्वे कर अपनी साख से खिलवाड़ करना नहीं चाहेगी। फिर भी ऐसा करती है तो चुनाव बाद उसकी पोल खुलेगी और उसकी विश्वसनीयता को धक्का पहुंचेगा। कोर्इ प्रोफसनल एजेंसी ऐसा क्यों करना चाहेगी? लेकिन कांग्रेस और आम आदमी पार्टी समवेत स्वर में सर्वे एजेंसियों को बदनाम करने पर उतारु हैं। यह लोकतंत्र और अभिव्यकित की स्वतंत्रता पर कुठाराघात है। उचित होगा कि सर्वें एजेंसियों पर प्रतिबंध थोपने के बजाए उन पर अपने निष्कर्ष को और अधिक वैज्ञानिक, पारदर्शी और जवाबदेह बनाने का दबाव बनाया जाए। सर्वे एजेंसियों को भी चाहिए कि वे सैंपल इकठठा करने के वैज्ञानिक आधार को और अधिक मजबूत करें। चूंकि भारत एक विविधतापूर्ण देश है ऐसे में एक थ्योरी और एक पैमाने से स्पष्ट रुझान हासिल करना संभव नहीं है। कर्इ बार देखा भी गया कि सर्वे कुछ कहते हैं और नतीजे कुछ आते हैं। अगर सर्वे वैज्ञानिक और पारदर्शी हो तो गलतियों की संभावना कम रहेगी। लेकिन चूंकि भारत चुनाव विष्लेशण में अभी पूरी तरह परिपक्व नहीं है लिहाजा सर्वे और जनता के निष्कर्शों में अंतर आना स्वाभाविक है। लेकिन इस आधार उस पर ओपिनियन पोल पर प्रतिबंध कैसे लगाया जा सकता है? भारत एक लोकतांत्रिक देश है और सभी को लिखने-बोलने और अपने विचार व्यक्त करने की आजादी है। मीडिया को इस आजादी से वंचित नहीं किया जा सकता। ओपिनियन पोल पर प्रतिबंध की मांग अभिव्यकित की स्वतंत्रता पर प्रहार है।
सब दल अपने पक्ष को देखते हुए बात रखते हैं.अभी मीडिया जब कांग्रेस की हालत को कामजोर बता रहा है, तब कांग्रेस को याद नहीं आई , दस saal से सत्ता में रहे तब कुछ नहीं किया,चुनाव सुधारों की बात पर हमेशा मुख मोड़ती रही , आज जब उसके खिलाफ पोल दिखाया जा रहा है.वास्तव में यह मीडिया की स्वंत्रता पर रोक है. यदि यह पोल पैसे लेकर कराये जा रहे हैं तो यह गलत ही है, लेकिन दलों के dwara भी चुनाव में क्या क्या गलतबयानी की जाती है, ऐसे झूठे वादे किये जाते हैं,जो कभी पुरे नहीं किये जाते.क्या उनसे जनता को बरगलाया नहीं जाता.?यह सब बातें चुनाव के समय पर ही याद क्यों आती है?