राजनीति

सही नब्ज़ पकड़ी डॉ. ने…..

बिलकुल आपका काम हो गया डॉ. रमन

– पंकज झा

सामान्यतया नेताओं के बयान या साक्षात्कार आदि इस तरह के नहीं होते कि पढ़ कर ऐसा लगे कि कुछ पढ़ा हो आपने. मूलतः वह मेडिकल स्टोर के लिए लिखी गयी डॉ. की पर्ची की तरह ही होता है. एक ही लिखावट, वही भाषा, वही राजनीतिक शब्दावली. कंप्यूटर का सामान्य जानकार भी यह मानने पर विवश हो सकता है कि शायद नेताजी के कंप्यूटर में कुछ बयान सुरक्षित हैं जिसका सन्दर्भ और दिनांक बदल-बदल कर काम चलाया जा रहा होगा. राजनीति में ऐसे मौलिक चिंतन के अभाव वाले ज़माने में छत्तीसगढ़ के एक अखबार में हाल में प्रकाशित मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह का साक्षात्कार उल्लेखनीय है. इस मुलाक़ात में डॉ. रमन ने कहा “ जब बड़े लोग दुखी होकर कहते हैं कि मजदूर सबसे ज्यादा सुखी है तो मैं समझता हूं कि मेरा काम हो गया .” अगर वास्तव में किसी नेता की भावना ऐसी हो तथा सही अर्थों में वह ऐसा ही सोचता हो तो चाटुकार हो जाने के आरोप का ख़तरा उठा कर भी कहा जा सकता है….. शाबास, अनन्य साधुवाद. देश या समाज को ऐसे ही नेताओं की ज़रूरत है.

भाजपा आज जिस वैचारिक धरातल पर खड़ा होने का दावा करती है उसके आधार ही हैं रमन के वह शब्द. पंडित दीनदयाल के समाज के सबसे अंतिम व्यक्ति की चिंता करने का आह्वान ही तो उस वाक्य में परावर्तित हुआ है. ना केवल डॉ. रमन बल्कि देश और समाज को यह समझ लेना चाहिए कि उसका ‘काम’ केवल तभी पूरा हो सकता है जब समाज में सबसे ज्यादा सम्मान श्रमवीरों का हो. समाज भले ही सभ्य होने का कितना भी दावा कर ले, लेकिन उसको अपने सभ्यता का मानदंड इसी को बनाना चाहिए कि वहां श्रम कितना महत्त्वपूर्ण और कीमती है. यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि एक स्वस्थ अर्थव्यवस्था का भी आशय यही हो जहां ‘श्रम’ को प्राप्त करने में प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पडे. विकल्प कथित मालिकों के पास नहीं बल्कि मजदूरों के पास हो. ‘मजदूरों’ में से कुछ को चुन लेने की आज़ादी नहीं बल्कि उपलब्ध ‘कामों’ में से अपने लायक चुन लेने की आजादी मजदूरों के पास हो.

अखबार में यह साक्षात्कार ऐसे समय में आया है जब सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर में छत्तीसगढ को प्रथम आंका गया है. प्रदेश ने सारे विकसित राज्यों को पीछे छोड़ते हुए लगातार विकास का यह दर कायम रखा है. तो ऐसे में किसी मुख्यमंत्री के लिए सीधा और सरल रास्ता यह होता कि वह इस आंकड़े को ले-ले कर झूमे. उसको प्रचारित करने में सरकारी सिपहसालारों को जम कर लगा दे. पेज का पेज विज्ञापन जारी कर उस आंकड़े को ओढने-बिछाने-पहनने में सम्बंधित विभागों को लगा दे. लेकिन अगर मुख्यमंत्री को विकास के इन आंकड़ों से ज्यादा किसी गांव के व्यक्ति द्वारा कहे गए शब्दों की चर्चा करना ज्यादा उचित लगा तो यह कहा जा सकता है कि डॉ. ने ‘नब्ज़’ ठीक पकड़ी है. शायद मुख्यमंत्री को यह पता है कि आंकड़े कभी गीदम के किसी गांव के सुकालू के पेट और पीठ की दूरी नहीं मापा करते, ना ही वह मनेंद्रग़ढ़ के किसी नेताम या फिर सिमगा के किसी देवांगन के चूल्हे की गरमाई ही तापते हैं. आंकड़े कभी यह भी नहीं बताते कि जो संसाधन आपने इकट्ठे कर लिए हैं उसका आनुपातिक एवं समान बँटवारा भी हुआ है या नहीं. आंकड़े तो ये बता देंगे कि शादी के लिए अगर 22 वर्ष की लड़की की ज़रूरत हो तो 11-11 के दो से काम चला लें. तो केंद्र सरकार के सांख्यिकी में नंबर वन होना छत्तीसगढ़ के लिए प्रसन्नता की बात है लेकिन असली प्रसन्नता तो मजदूरों को प्राप्त करने के लिए व्यवसाइयों, गौटियों द्वारा की गयी चिरौरी को देखना ही हो सकता है.

मोटे तौर पर किसी भी अर्थव्यवस्था के दो संभाव्य मॉडल हो सकते हैं. अपनी समझ के लिए हम इसे ‘पानी’ और ‘आग’ का मॉडल कह सकते हैं. पानी का स्वभाव होता है ऊपर से नीचे की ओर प्रवाहित होना और आग का स्वभाव होता है नीचे से ऊपर की ओर धधकना. देखा जाय तो अभी तक अधिकांश अर्थव्यवस्थाओं में पानी का मॉडल ही इस्तेमाल किया जाता रहा है कि संसाधनों को ऊपर से नीचे की ओर ले जाया जाय. अर्थवेत्ताओं ने इस मॉडल को उचित भी ठहराया और कहा कि अगर ऊपर में सम्पन्नता आयेगी तो स्वाभाविक ही धन का प्रवाह नीचे की ओर जाएगा. इसको ‘थ्योरी ऑफ परकोलेशन’ यानी ‘रिसने का सिद्धांत’ कहा गया. लेकिन शायद उन्हें मानव मन की गुत्थियों का पता नहीं था. अगर वह मानवीय दृष्टिकोण से विचार करने की कोशिश करते तो उन्हें पता चलता कि ‘असंतोष’ व्यक्ति का स्वाभाविक गुण होता है. पानी को नीचे की ओर रिसने से रोकने के लिए बड़े-बड़े बांधों की आविष्कार भी व्यक्ति ने कर रखा है और भले ही वह डूब मरे लेकिन पानी को तरसते लोगों तक दो बूँद पहचाना सामान्य मानव की फितरत नहीं होती. तो नीति निर्धारकों के लिए अर्थव्यवस्था का यही मॉडल उपयुक्त होगा जिसमें संसाधन नीचे से ऊपर की ओर जाए. आप चाहे तो इसे ”अर्थव्यवस्था का आध्यात्मिक मॉडल” भी कह सकते हैं. योग के जानकार यह जानते हैं कि ऊर्जा को नीचे से ऊपर की ओर, मूलाधार से सहस्त्रार की ओर ले जाना कठिन तो है लेकिन आध्यात्मिक उन्नति या सस्टेनेबल विकास का वही साश्वत मार्ग है. तो अगर सरल शब्दों में कहें तो हर तरह के विकास का पहला लाभार्थी सबसे अंतिम व्यक्ति हो, इस तरह का शीर्षासन जब आप अर्थव्यवस्था को करायेंगे तभी आप विकास के सच्चे साधक या समाज के सच्चे नेता कहे जायेंगे. अगर डॉ. रमन सिंह इमानदारी के साथ ऐसा कर रहे हों या करने की सोच रहे हों तो निश्चय ही इस नवाचार से प्रदेश को एक नयी पहचान यहां के गांव के गरीब और किसान, मजदूर को एक अच्छी व्यवस्था मिलेगी इसमें कोई संदेह नहीं है.

एक अच्छे एवं कामयाब शासन के बावजूद प्रदेश में चुनौतियों का अंबार है. आज भी प्रदेश की चर्चा बिना नक्सलवाद के पूरी नहीं होती. लेकिन यह भी सच है कि नकारात्मकता की हद तक सोचने वाले लोग भी यह नहीं कहेंगे कि देश में लोकतंत्र को कोई खतरा है. ज़ाहिर है इसका अर्थ यह हुआ कि सब इस बात के प्रति आश्वस्त हैं कि अंततः देश-प्रदेश से नक्सलियों का सफाया हो कर ही रहेगा. लेकिन सबसे बड़ी, अमूर्त लेकिन खतरनाक चुनौती है देश-प्रदेश में ‘असमानता’ के राक्षस से निपटना. काफी हद तक नक्सल समेत अधिकांश समस्यायों का जिम्मेदार आप आय के असमान वितरण को भी मान सकते हैं. पूरे देश में जिस तरह संसाधनों का असमान बंटवारा हो रहा है, तेज़ी से विकसित यह प्रदेश भी उससे अछूता नहीं बल्कि ज्यादा ही पीड़ित है. यहां भी गरीबों की हालत भले ही थोड़े सुधर रहे हों लेकिन जिस अनुपात में अमीर, ज्यादा अमीर होते जा रहे हैं उस तरह से गरीबों की गरीबी कम नहीं हो रही है. इस समस्या के भौतिक कम मगर मानवीय पहलू ज्यादा है. यह आर्थिक कम लेकिन सामाजिक समस्या ज्यादा साबित हो रहा है और होने वाला है. आज हम भले ही अपने सकल घरेलु उत्पाद पर गर्व करें, लेकिन पढ़ कर आपको ताज्जुब होगा कि प्रदेश के बजट के 3-4 गुने ज्यादे पैसे का केवल एक मकान मुंबई में अम्बानी का बन रहा है. इस तरह के घातक असमानता का निवारण या उसका प्रभाव कम करने के लिए प्रयास करना किसी भी नेतृत्व की प्राथमिकता होनी चाहिए.

इस मामले में राज्य द्वारा सुचारू रूप से संचालित चावल योजना की चर्चा उचित होगी. वास्तव में समाज के गरीब-गुरुबों को सम्मान से जीने, अपनी मौलिक ज़रूरतों के लिए महाजनों की चिरौरी से मुक्त कर सरकार ने वास्तव में ऐतिहासिक काम किया है. जिन लोगों को भी इस योजना से तकलीफ हो रही है उन्हें यह समझना होगा कि सदियों से ‘मांग और आपूर्ति’ का संतुलन, काम कराने वालों के पक्ष में रहा है. और इस असंतुलन का उपयोग कर उन्होंने जम कर मजदूरों का शोषण भी किया है. लेकिन आज अगर यह संतुलन थोड़ा सा मजदूरों के पक्ष में जाते दीखता है तो उहें इस ‘प्रतिस्पर्द्धा’ का सामना करना चाहिये. विकल्प चुनने की आज़ादी अगर श्रमजीवियों को मिली है तो उन्हें इसका आनद एवं उत्सव मनाने का हक है. जो भी लोग इस योजना के कारण मजदूरों के आलसी हो जाने की बात करते हैं उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि अगर करोडो-अरबों कमा लेने के बाद धन्ना सेठों के बच्चे आलसी होने के बदले ज्यादे तृष्णा के साथ ज्यादे से ज्यादे कमाने की फिराक में लग जाते हैं तो भला केवल चावल मिल जाने पर कोई आलसी कैसे हो जायेगा? अगर चावल के कारण ये लोग काम करना छोड़ देते तो क्या अभी भी धान की बंपर फसल या सकल घरेलू उत्पाद में रिकार्ड वृद्धि संभव हो पाता? बस बात इतनी है कि बदली हुई परिस्थिति में अपने खेत या कारखानों में काम कराने के लिए आपको मजदूरों की थोड़ी चिरौरी करनी पड़ेगी और यही जनता के शासन की सफलता का सबसे बड़ा सबूत भी होगा.

पुनः यह कहना होगा कि अगर डॉ. रमन ने अपने लिए सुविधाजनक आंकड़ों के बजाय आदिवासियों की मुस्कान को, मजदूरों के सुखी होने को, भूटान की तरह नागरिकों के प्रसन्नता को विकास का वास्तविक सूचकांक, उसे ही शासन की सार्थकता समझने की कोशिश की है तो सही अर्थों में उन्होंने अपने पार्टी और देश के मनीषी पंडित दीनदयाल उपाध्याय को सही सन्दर्भों में पढ़ने, समझने, शिरोधार्य एवं अंगीकार करने की कोशिश की है. एकात्म मानववाद किसी अबूझ एवं भारी भरकम शब्दों के ज़खीरे को नहीं, बल्कि इन्ही सीधी-सच्ची-सरल, भावनाओं-विचारों-प्रवृत्तियों को कहते हैं.