धर्म-अध्यात्म

धर्म परिवर्तन को न्यौता देती यह दरकती संवेदनाएं

-निर्मल रानी

भारत रत्न मदर टेरेसा द्वारा अनाश्रित लोगों के आश्रय हेतु चलाए जाने वाली चेरिटेबल मदर्स होम संभवत: देश की ऐसी सबसे बड़ी धर्मार्थ परियोजना है जोकि अपेक्षित बुजुर्गों, बीमारों तथा असहाय लोगों के आश्रय का एक सुरक्षित केंद्र है। आमतौर पर यहां उन लोगों को आश्रय मिलता है जो अपने ही परिजनों द्वारा किसी भी कारण वश अपने घर व परिवार से निष्कासित कर दिए जाते हैं तथा उन्हें लावारिस व बेसहारा अवस्था में अपने जीवन के शेष दिन गुजारने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। उन्हें सहारा देने वाले ‘मदर्स होम’ पर तथा उसकी संचालिका रही भारत रत्न मदर टेरेसा पर देश की सांप्रदायिक शक्तियां यह आरोप लगाती रही हैं कि वह अपने इस धर्मार्थ आश्रय केंद्र की आड़ में धर्म परिवर्तन को बढ़ावा देती थीं।

मदर टेरेसा पर तथा उनकी चेरिटेबल संस्था पर उंगली उठाने वालों से क्या यह प्रश्न पूछना मुनासिब नहीं है कि क्या मदर टेरेसा ही उन बेसहारा व उपेक्षा के शिकार लोगों के परिजनों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करती थीं कि वे अपने जिगर के टुकड़ों को, अपने माता-पिता, भाई-बहन, बच्चों अथवा अन्य सगे संबंधियों को अपने घरों से बाहर निकाल कर सड़कों पर खुले आसमान के नीचे भटकने के लिए मजबूर कर दें? कुछ वर्ष पूर्व चंडीगढ़ स्थित पी जी आई के मुख्य द्वार के बाहर फुटपाथ पर एक बुजुर्ग व्यक्ति असहाय अवस्था में पड़ा हुआ कराह रहा था। पूछने पर पता चला कि वह पंजाब का रहने वाला है तथा उसका बेटा व बहु उसे इलाज हेतु पी जी आई लाए थे। दवा इलाज व तीमार दारी से तंग आकर यह परिवार अपने बुजुर्ग पिता को अस्पताल के बाहर ही लावारिस अवस्था में छोड़कर चला गया। अच्छी खासी जमीन-जायदाद की हैसियत रखने वाला वह बुजुर्ग स्वयं स्वाभिमानी सा प्रतीत हो रहा था। शायद इसीलिए उसने अपने घर वापस जाने की गुहार किसी से नहीं लगाई। इसके बजाए उसने वहीं बैठे-बैठे अपने जीवन के शेष दिन गुजारने का फैसला किया। अंत में न जाने उस बदनसीब बुजुर्ग का क्या हुआ और वह कहां गया।

यह ख़बर चंडीगढ़ के सभी प्रमुख समाचार पत्रों में भी प्रकाशित हुई थी। कई दिनों तक यह बदनसीब बुजुर्ग पीजीआई के बाहर पड़ा रहा। परंतु उसके पास न किसी जमाअत या संघ का कोई धर्मात्मा आया, न ही किसी परिषद् का कोई धर्मोपदेशक। हां इतना जरूर सुना गया है कि शमशान घाट में किसी लावारिस या गरीब व्यक्ति के मर जाने पर उसे चिता हेतु लकड़ी धर्मार्थ ख़ाते से अवश्य मुहैया करा दी जाती है। अब यदि ऐसी अवस्था में किसी बुजुर्ग को किसी भी धर्म या संप्रदाय से जुड़ा कोई धर्मार्थ मिशन उसे आश्रय देता है, उसे वह प्यार, सहारा तथा सुविधाएं उपलब्ध कराता है जोकि उसके अपने परिजनों का कर्तव्य था तो क्या उस बेसहारा व्यक्ति के हृदय में आश्रय देने वाली संस्था के प्रति सद्भाव उत्पन्न नहीं होगा? और यदि यही सद्भाव उसे अपनी पूजा पद्धति तथा धार्मिक सोच में कुछ परिवर्तन लाने हेतु बाध्य करे या वह स्वेच्छा से ही ऐसा करे तो आंखिर इसके लिए बुनियादी तौर पर पहली जिम्मेदारी किसकी है?

पिछले दिनों इसी प्रकार की एक रिपोर्ट देखने को मिली जिससे पता चला कि बैंगलोर होकर गुजरने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर पड़ने वाले जंगलों के बीच के कुछ किलोमीटर के क्षेत्र में देश के विभिन्न इलांकों से आकर तमाम लोग अपने परिवार के उन जिगर के टुकड़ों को छोड़ आते हैं जो शारीरिक या मानसिक रोगों से ग्रस्त होते हैं। इनमें बच्चे, युवा व महिलाएं भी शामिल होती हैं। जरा कल्पना कीजिए सुनसान सड़क, कभी अंधेरी रात तो कभी बारिश। पूरी तरह लावारिस व्यक्ति, न रोटी, न पानी, न किसी प्रकार का सहारा। हां यदि ‘शुभचिंतक’ के रूप में कभी कोई आते भी हैं तो वे हमारे ही समाज के वह दरिंदे जोकि उन शारीरिक व मानसिक रूप से विक्षिप्त महिलाओं के साथ बलात्कार कर अपनी वासना की भूख मिटाकर उन्हें फिर वहीं छोड़ देते हैं। उन्हें यह लोग एड्स अथवा गर्भवती होने जैसा ‘वरदान’ तो जरूर दे देते हैं।

परंतु वे न तो इनकी पेट की भूख मिटाते हैं, न ही इन्हें पैसा या आश्रय देने की कोशिश करते हैं। इनके परिवार के लोग इन्हें ऐसे दर्दनाक व भयावह माहौल का सामना करने के लिए जंगलों में छोड़ कर अपने घर वापस आकर चैन की नींद सोते हैं। तथा सुबह-शाम अपने-अपने अल्लाह अथवा इष्ट देव को याद करने, उसे खुश करने तथा उसपर धूप बत्ती, आरती व भजन आदि का शानदार पाखंड पूर्ववत रचने में व्यस्त हो जाते हैं। है कोई किसी संघ, परिषद् या जमाअत का फायर ब्रांड धर्म उपदेशक जिसे इन बेसहारा लोगों की सुध लेने की फिक्र हो?

जी हां यहां भी एक ईसाई समाज सेविका ने अपना एक आश्रय होम केवल इन्हीं हमारे व आपके परिवार के उपेक्षित सदस्यों की सहायता, उपचार तथा संरक्षण हेतु शुरु कर दिया है। कल इस होम पर भी धर्म परिवर्तन कराए जाने का आरोप लगाया जाना निश्चित है। परंतु यह धर्म परिवर्तन न हो इसके लिए देश का कोई मिशन, कोई संस्था, किसी भी संप्रदाय का कोई धर्मगुरु ऐसा नहीं है जो हमारे समाज को यह सद्बुद्धि दे सके कि वे अपने परिवार के ऐसे मजबूर, विक्षिप्त, विकलांग, मंदबुद्धि तथा असहाय लोगों को इस प्रकार लावारिस छोड़ने की कोशिश कदापि न करें। वैसे कलयुग के इस दौर में हमारा यह सोचना भी कभी-कभी अप्रासंगिक सा प्रतीत होता है। कारण यह है कि जिन धर्म उपदेशकों, धार्मिक प्रवचन कर्ताओं,धार्मिक ठेकेदारों तथा धर्माधिकारियों से हम इस प्रकार की सद्बुध्दि बांटने की उम्मीद रखते हैं। प्राय: आजकल वही तथाकथित धर्म के ठेकेदार स्वयं ही किसी न किसी संगीन आरोप से घिरे दिखाई दे जाते हैं। ऐसे में इनसे सामाजिक व पारिवारिक सद्भावना की शिक्षा बांटने की उम्मीद करना ही बेमानी सा प्रतीत होता है।

परंतु इन सब के बावजूद अभी भी हमारे इसी देश व समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो बिना किसी स्वार्थ अथवा पूर्वाग्रह के तथा बिना किसी धर्म प्रचार जैसे मिशन को संचालित करने के पूर्णतया निस्वार्थ रूप से ऐसे बेसहारा लोगों की सेवा के लिए स्वयं को समर्पित किए हुए हैं। उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में एक छोटा सा गांव है जहां कुछ निराली प्रवृति के ऐसे लोग रहते हैं जो रचनात्मक रूप से तो पूरी तरह धार्मिक व सामाजिक हैं। परंतु इन चीजों क़ा न तो वे ढोंग करते हैं न ही ढोल पीटते हैं। इस आलेख में जिस प्रकार बैंगलोर के समीप के हाईवे का जिक्र किया गया है ठीक उसी प्रकार मिर्जापुर में भी इसी प्रकार के तमाम लोग अपने परिवार के विक्षिप्त सदस्यों को जाकर छोड आते हैं। यहां पूरा गांव ऐसे बेसहारा विक्षिप्त लोगों की सेवा में हर समय स्वयं को समर्पित रखता है। उनके रहने, खाने-पीने, दवा इलाज, मनोरंजन तथा उनके नख़रे व क्रोध आदि को सहने का पूरा प्रबंध गांववासियों द्वारा सहर्ष व स्वेच्छा से किया जाता है। इस गांव की भी चर्चा चूंकि बैंगलोर की ही तरह काफी क्षेत्रों में फैल चुकी है इसलिए यहां भी विक्षिप्त लोग अपने परिजनों द्वारा निरंतर पहुंचाए जाते रहते हैं।

दिलचस्प बात तो यह है कि बैंगलोर का धर्मार्थ होम तथा मिर्जापुर का उक्त गांव दोनों ही जगहों से कांफी विक्षिप्त लोग ठीक व स्वस्थ भी हो जाते हैं। परंतु इसके बावजूद तमाम परिजन या तो उन्हें वापस अपने घर लाना ही नहीं चाहते या फिर वहां के प्रेम व सद्भाव पूर्ण वातावरण में वे इतना घुलमिल जाते हैं कि ठीक हो जाने पर यह लोग स्वयं अपने तथाकथित परिवार में वापस आने की ख्वाहिश ही नहीं रखते। जाहिर है दु:ख, संकट व बीमारी के समय में जो लोग अपने ख़ून के सगे रिश्तों को लावारिस व बेसहारा छोड़कर चले जाते हैं उन्हें आख़िर अपने परिवार का सदस्य या अपना ख़ून कैसे कहा जा सकता है? वास्तव में उनका असली परिवार तो वही है जहां रहकर उन्हें अपनापन मिला, संरक्षण मिला, सुरक्षा मिली तथा स्वास्थय लाभ मिला। उनके वास्तविक रिश्तेदार भी वही लोग हैं जो उसके प्रति सहानुभूति तथा दयाभाव रखते हैं। ऐसे कई मानसिक व शारीरिक विक्षिप्त लोगों के स्वास्थय लाभ के बाद बेशक उनके मुंह से उनके परिवार व परिवार की बिसरी यादों के किस्से सुनने को जरूर मिलते हैं। परंतु साथ ही साथ उनके मायूस चेहरे यह भी सांफ बयान करते हैं कि उनके साथ उनके अपने ख़ून ने ही धोखा किया है, दंगा किया है, अधर्म किया है। तथा साथ ही साथ उनके चेहरे यह भी बयान करते हैं कि उन्हें सहारा देने वाले मिशन तथा इसे संचालित करने वाला परिवार ही उनका अपना सच्चा परिवार व वही सगे रिश्तेदार हैं। ऐसे में स्वास्थय लाभ प्राप्त होने के बाद या उस दौरान उसे स्वयं ही यह सोचना व तय करना है कि वह किस धर्म की परंपराओं पर अमल करे। उनका जिन्होंने उसे ठोकर मारकर घर से निकाल दिया या फिर उनका जिन्होंने अवतार का रूप धारण कर उन्हें संरक्षण, सुरक्षा व स्वास्थय लाभ देकर नया जीवन दिया।