डॉ. मयंक चतुर्वेदी
रहिमन पानी रखिए बिन पानी सब सून, पानी गए न ऊबरे मोती, मानुष, चून। पानी के महत्व को प्रतिपादित करते हुए भक्तिकाल में संत रहीम दास यह पंक्तियां आज से कई वर्ष पहले लिख गए हैं, जिसका अर्थ यही है कि पानी के बिना यह संसार सूना है। इसके बिना मनुष्य तो मनुष्य, जीव जगत और वनस्पति भी अपना उद्धार नहीं कर सकते हैं। जल से ही जीवन, सृष्टि एवं समष्टि की उत्पत्ति और जल प्लावन से ही प्रकृति का विनाश, यह बात हमारे प्राचीन श्रीमद्भागवत महापुराण जैसे कई ग्रथों में बताई गई है। जल से जीवन का प्रारंभ है तो जीवन के महाप्रलय के बाद अंत भी जल ही है। जीवन मरण और भरण-पोषण का आधार जल ही है।
अत: कहने का आशय यही है कि हमारी पृथ्वी की सेहत और इस पर बसने वाले जीवन के लिए पानी बिना किसी बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती, परन्तु यही जल जब विषाप्त हो जाता है, तो जीवन देने वाला नीर पूरी दुनिया के लिए मौत का कारण बनकर सामने आता है। इस वक्त हो यही रहा है कि विश्व की अस्सी प्रतिशत तमाम बीमारियां केवल इसीलिए हो रही हैं, क्योंकि पानी का उपयोग सही तरीके से नहीं किया जा रहा है। देश के अधिकांश भाग के पानी में प्रदूषण की समस्या उसमें फ्लोराइड तथा अन्य विषैले तत्वों की प्रधानता का पाया जाना इतना अधिक भयावह है कि वह जीवन के लिए घातक सिद्ध हो रहा है।
पिछले दिनों केंद्र सरकार की ओर से संपूर्ण देश में “जल साक्षरता अभियान” चलाने की घोषणा की गई है। यह विचार कोई बुरा नहीं है। जैसे देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है। नदियों को पवित्र बनाए जाने के लिए विचार और प्रयास आरंभ हुए हैं, औद्योगिक विकास के लिए नई नीति बनी है। यदि इसी कड़ी में भारत सरकार “जल साक्षरता अभियान” चलाना चाहती है, तो निश्चित ही उसकी यह एक अभिनव पहल है। लेकिन सवाल कई सारे हैं, जिनके उत्तर केंद्र और राज्य सरकारों को इस दिशा में ढूंढ़ने चाहिए। देश में इस समय पानी के विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था इतनी चरमराई हुई है कि उसके बारे में कुछ भी सार्थक संवाद किया जाना व्यर्थ प्रतीत होता है। एक तरफ राज्यों की राजधानियों के साथ बड़े-बड़े शहर हैं, जहां राजनैतिक दबाव के चलते अथाह पानी प्रतिदिन सिर्फ सप्लाई के वक्त ही बर्बाद चला जाता है तो दूसरी ओर भारत की वह तस्वीर है, जहां आदमी और जानवर दोनों ही बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं, फिर वनस्पतियों का क्या हाल यहां होता होगा, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जाडवेकर आज सही कह रहे हैं कि जल संरक्षण और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा के लिए लोक जागरुकता सबसे ज्यादा जरूरी है। जब तक इस विषय पर लोगों में जागरुकता नहीं आती, तब तक इस लक्ष्य को किसी भी अधिनियम अथवा कानून से सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। परन्तु क्या यह काम अल्पावधि में संभव है, जबकि राज्यों के आपसी हित-अहित जल के सही बंटवारे को लेकर बार-बार उजागर होते रहते हैं। केंद्र सरकार जनहित में नदियों को जोड़ने की परियोजना सामने लेकर आई, तभी से कई प्रदेशों में इसका विरोध आरंभ हो गया। एनडीए की अटल सरकार चली गई और उसके बाद दस सालों तक देश में संप्रग की मनमोहन सरकार चली, अब जब फिर से एनडीए की नमो सरकार केंद्र में आई है, तब भी जल बंटवारे और पानी से जुड़े राज्यों की आपसी कलह समाप्त नहीं हुई है।
हां, इन दिनों इतना अवश्य हुआ है कि फिर से एनडीए शासन आने से नदियों को जोड़ने की दिशा में तेजी से विचार और कार्य पुन: प्रारंभ कर दिया गया है। आज इस दिशा में काम करने के लिए मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे कुछ राज्य पर्यावरण परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आगे आए हैं और उसके सार्थक परिणाम भी सहज दिखने लगे हैं। नदी जोड़ो की इस योजना को प्रमुखता से आगे बढ़ाए जाने से होगा यह कि देश के हर कोने तक जल आपूर्ति की सुचारू व्यवस्था बनाने में हम सफल हो जायेंगे। इसके लिए जो भी कदम आवश्यक हैं, भले ही फिर विरोध के स्वर कितने भी ऊंचे क्यों ना हों, उन्हें नकारते हुए केंद्र को इस दिशा में निरंतर आगे बढ़ते रहना होगा।
जिन राज्यों में ‘राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना ‘ (एनपीपी) के तहत अंतरराज्यीय नदियों को जोड़ने के लिए चिन्हित किए गए 30 संपर्कों में से राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी (एनडब्ल्यूडीए) द्वारा तीन संपर्कों पर विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार करने की प्रक्रिया चल रही है, उसका काम शीघ्र पूरा किया जाना भी बहुत जरूरी हो गया है। जिससे कि देश को इससे 35 मिलियन हेक्टेयर अंतिरिक्त सिंचाई क्षमता व 34 हजार मेगावाट पनबिजली का उत्पादन का लाभ मिलना शुरू हो जाए। वहीं, जिन भी राज्यों में जैसे तमिलनाडु-केरल ने पाम्बा अछानकोविल वायपर लिंक परियोजना का विरोध है, ओडिशा सरकार महानदी-गोदावरी लिंक परियोजना पर सहमत नहीं हो पा रही है। कर्नाटक-तमिलनाडु राज्यों के बीच कावेरी नदी के जल को लेकर लंबे समय से चला आ रहा विवाद इत्यादि विभिन्न राज्यों के बीच जल संबंधी जो तमाम विवाद हैं, पहले उनको हल करने के लिए सरकार को अपने सख्त और लचीले कदम उठाने चाहिए। इसके लिए केंद्र की सरकार उसी प्रकार राज्य सरकारों को समझाए और राजी करे, जिस प्रकार उसने वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लेकर सभी राज्यों को मनाने में सफलता हासिल की है, वह सभी को यह बात प्रमुखता से बताए कि इससे देश की जनसंख्या का भविष्य में कितना अधिक भला होनेवाला है।
वस्तुत: हमें आज इस बात की बेहद जरूरत है कि हम नदियों को जोड़ने की अवधारणा पर तेजी के काम करें, क्योंकि भारत को प्रकृति ने जितना जल उपयोग के लिए दिया है, अभी वह उसका एक तिहाई भी अपने लिए उपयोग नहीं कर पा रहा है। इस संबंध में हमें जल के भण्डारण को भी जानना चाहिए। विश्व का 70 प्रतिशत भू-भाग जल से आपूरित है, जिसमें पीने योग्य जल मात्र 3 प्रतिशत ही है। मीठे जल का 52 प्रतिशत झीलों और तालाबों का 38 प्रतिशत, मृदनाम 8 प्रतिशत, वाष्प 1 प्रतिशत, नदियों और 1 प्रतिशत वनस्पतियों में निहित है। इसमें भारत की स्थिति देखें तो आजादी के बाद से लगातार हमारी मीठे जल को लेकर जरूरत कई गुना बढ़ चुकी है। सन् 1947 में देश में मीठे जल की उपलब्धता 6 हजार घन मीटर थी, वह वक्त के साथ इतनी तेजी से घटी है कि आगामी 10 वर्षों में इसके 16 हजार घन मीटर हो जाने की संभावना जाताई जा रही है। भारत विज्ञान की तमाम सफलताओं के बाद भी अभी तक वर्षा जल का मात्र 15 प्रतिशत ही उपयोग कर पा रहा है, शेष बहकर नदियों के माध्यम से समुद्र में चला जाता है, जबकि आगामी वर्षों में देश में जल की माँग 50 प्रतिशत और बढ़ जाने की संभावना व्यक्त की जा रही है।
अब, प्रश्न यह है कि सरकार क्या करे? इसका उत्तर भी यहीं निहित है। ऐसे में सरकार के सामने इसे लेकर यह जरूरी हो जाता है कि वह अपनी इस प्रकार की नीति बनाए, जिसमें एक तरफ पानी को लेकर जनजागरण का जल साक्षरता अभियान चलाने में उसे सफलता हासिल हो सके, तो दूसरी ओर वह समुद्र में व्यर्थ बह जाने वाले नीर का अपने लिए अधिकतम उपयोग करने में सफल हो जाए। यहां केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जाडवेकर और उनके विभाग को “जल साक्षरता अभियान” की शुरूआत करते वक्त इसकी सफलता को लेकर यह अच्छे से ध्यान में रखना जरूरी होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार स्वच्छता अभियान का आरंभ अपने मौखिक संदेश और व्यवहारिक कर्म के माध्यम से किया, वैसा ही कुछ इस अभियान के साथ हो, क्योंकि बड़े पद पर बैठे व्यक्ति का अनुसरण नीचे के पदों पर आसीन लोगों और आम जन के बीच किया जाता है। हम देख भी रहे हैं कि आज से 5 माह पूर्व जब प्रधानमंत्री का एक कदम स्वच्छता की ओर अभियान आरंभ हुआ, तभी से मोदी की प्रेरणा से घर-घर में इसे लेकर सामान्य जाग्रति आना शुरू हो गई। आज स्थिति यह हो गई है कि बच्चे भी अपने मां-बाप को कचरा इधर-उधर फैंके जाने पर टोकने लगे हैं।
अपने “जल साक्षरता अभियान” चलाने के साथ केंद्र सरकार को चाहिए कि वह इस दिशा में जरूरत पड़ने पर कुछ कदम सख्ती से उठाए। जैसे देशभर में प्रत्येक घर के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग जरूरी करना, जहां-जहां भी बड़े नाले हैं और उनका विकास के नाम पर जो पक्कीकरण इन दिनों पंचायत-नगरीय निकायों, राज्य सरकारों द्वारा किया जा रहा है, उसे रुकवाना, जिससे कि जल का अधिकांश भाग छन-छन कर जमीन के अंदर पहुंच सके। आबादी के स्थान में जहां कहीं नीची खाली पड़ी जमीन हो, वहां तालाब बनाने के प्रयास करना, जिससे कि मानसूनी वर्षा का जल एकत्रित होकर जमीन के तल तक पहुंच सके।
केंद्र प्रदेश सरकारों के माध्यम से यह सुनिश्चित करे कि नगरों और महानगरों में घरों की नालियों का जो गंदा पानी निकलता है, उसे गढ्ढे बनाकर एकत्र किया जाए और फिर उससे शहरभर में लगे पेड़-पौधों की सिंचाई की जानी चाहिए, ऐसा करने से प्रतिदिन कई टेंक साफ पेयजल की बचत की जानी संभव होगी। स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद ली जाकर लोगों को स्वैच्छा से जल मीटर लगाने के लिए प्रेरित किए जाए तथा यह संदेश फैलाया जाए कि जिसके यहां भी व्यर्थ पानी बहता पाया गया तो उस पर भारी जुर्माना होगा।
गंगा, कावेरी, नर्मदा और यमुना जैसी सदानीरा बड़ी-छोटी नदियों को जिन किसी भी माध्यमों से गंदा किया जा रहा है, उन्हें तत्काल प्रभाव से रोकने के लिए कदम उठाए जाने होंगे। आज बड़े-बड़े उद्योगपति अपनी फैक्टरियों का करोड़ों टन कचरा रोज इन नदियों में विकास के नाम पर बहा रहे हैं, जो कि स्थानीय और दूरदराज के लोगों के लिए जहां-जहां से ये नदियां होकर गुजरती हैं, उनकी बीमारी का कारण बन रहे हैं। सरकार को उन पर भारी जुर्माना ठोकना होगा, और इन उद्योगों से कहना होगा कि आप अपने यहां के गंदे पानी को बिना टीटमेंट किए सीधे नदियों में नहीं छोड़ सकते। हालांकि इसे लेकर नियम बने हुए हैं किंतु उनका पालन नहीं हो रहा है, जो नियमों का पालन नहीं कर रहे उनके प्रति कठोर कार्रवाही सरकार को करनी होगी।
बड़ी नदियों के जल का शोधन करके पेयजल के रूप में प्रयोग किया जा सके, इसके लिए राज्य शासन-प्रशासन को केंद्र की ओर से निर्देश दिए जा सकते हैं। वहीं जंगलों का कटान होने के कारण वाष्पीकरण चक्र बिगड़ गया है, जिसके कारण देश में वर्षा नहीं होने और भूमिगत जल में निरंतर कमी आ रही है, इसलिए भूमिगत जल को बढ़ाने के लिए जरूरी है कि वृक्षारोपण लगातार किया जाए और जो वृक्ष लगाए गए हैं, उनकी मॉनीटरिंग व्यवस्था सुनिश्चित होना चाहिए, जिससे पता चलता रहे कि सही मायनों में कितने वृक्ष जीवित बच सके हैं।
केवल जल साक्षरता नहीं तो केन्द्रीय और राज्यों की सरकारें जल संरक्षण को अनिवार्य विषय बना कर प्राथमिक से लेकर उच्च स्तर तक नई पीढ़ी को पढ़वाने का कानून बनाने की दिशा में आगे आयें। यह कुछ सार्थक कदम है, जिन्हें सरकार “जल साक्षरता अभियान” की सफलता के लिए प्राथमिक तौर पर अपना सकती है। वास्तव में यदि सही मायनों में सरकार इन्हें अपना लेती है, तब जरूर कहा जा सकेगा कि उसके आरंभ किए गए “जल साक्षरता अभियान” के संपूर्ण देश में सफल हो जाने की संभावना है, अन्यथा तो यह देश में चलाए गए कई अभियानों की तरह ही एक कर्मकाण्ड बन कर रह जाएगा।
: डॉ. मयंक चतुर्वेदी
रहिमन पानी रखिए बिन पानी सब सून, पानी गए न ऊबरे मोती, मानुष, चून। पानी के महत्व को प्रतिपादित करते हुए भक्तिकाल में संत रहीम दास यह पंक्तियां आज से कई वर्ष पहले लिख गए हैं, जिसका अर्थ यही है कि पानी के बिना यह संसार सूना है। इसके बिना मनुष्य तो मनुष्य, जीव जगत और वनस्पति भी अपना उद्धार नहीं कर सकते हैं। जल से ही जीवन, सृष्टि एवं समष्टि की उत्पत्ति और जल प्लावन से ही प्रकृति का विनाश, यह बात हमारे प्राचीन श्रीमद्भागवत महापुराण जैसे कई ग्रथों में बताई गई है। जल से जीवन का प्रारंभ है तो जीवन के महाप्रलय के बाद अंत भी जल ही है। जीवन मरण और भरण-पोषण का आधार जल ही है।
अत: कहने का आशय यही है कि हमारी पृथ्वी की सेहत और इस पर बसने वाले जीवन के लिए पानी बिना किसी बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती, परन्तु यही जल जब विषाप्त हो जाता है, तो जीवन देने वाला नीर पूरी दुनिया के लिए मौत का कारण बनकर सामने आता है। इस वक्त हो यही रहा है कि विश्व की अस्सी प्रतिशत तमाम बीमारियां केवल इसीलिए हो रही हैं, क्योंकि पानी का उपयोग सही तरीके से नहीं किया जा रहा है। देश के अधिकांश भाग के पानी में प्रदूषण की समस्या उसमें फ्लोराइड तथा अन्य विषैले तत्वों की प्रधानता का पाया जाना इतना अधिक भयावह है कि वह जीवन के लिए घातक सिद्ध हो रहा है।
पिछले दिनों केंद्र सरकार की ओर से संपूर्ण देश में “जल साक्षरता अभियान” चलाने की घोषणा की गई है। यह विचार कोई बुरा नहीं है। जैसे देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है। नदियों को पवित्र बनाए जाने के लिए विचार और प्रयास आरंभ हुए हैं, औद्योगिक विकास के लिए नई नीति बनी है। यदि इसी कड़ी में भारत सरकार “जल साक्षरता अभियान” चलाना चाहती है, तो निश्चित ही उसकी यह एक अभिनव पहल है। लेकिन सवाल कई सारे हैं, जिनके उत्तर केंद्र और राज्य सरकारों को इस दिशा में ढूंढ़ने चाहिए। देश में इस समय पानी के विकेन्द्रीकरण की व्यवस्था इतनी चरमराई हुई है कि उसके बारे में कुछ भी सार्थक संवाद किया जाना व्यर्थ प्रतीत होता है। एक तरफ राज्यों की राजधानियों के साथ बड़े-बड़े शहर हैं, जहां राजनैतिक दबाव के चलते अथाह पानी प्रतिदिन सिर्फ सप्लाई के वक्त ही बर्बाद चला जाता है तो दूसरी ओर भारत की वह तस्वीर है, जहां आदमी और जानवर दोनों ही बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं, फिर वनस्पतियों का क्या हाल यहां होता होगा, सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जाडवेकर आज सही कह रहे हैं कि जल संरक्षण और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा के लिए लोक जागरुकता सबसे ज्यादा जरूरी है। जब तक इस विषय पर लोगों में जागरुकता नहीं आती, तब तक इस लक्ष्य को किसी भी अधिनियम अथवा कानून से सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। परन्तु क्या यह काम अल्पावधि में संभव है, जबकि राज्यों के आपसी हित-अहित जल के सही बंटवारे को लेकर बार-बार उजागर होते रहते हैं। केंद्र सरकार जनहित में नदियों को जोड़ने की परियोजना सामने लेकर आई, तभी से कई प्रदेशों में इसका विरोध आरंभ हो गया। एनडीए की अटल सरकार चली गई और उसके बाद दस सालों तक देश में संप्रग की मनमोहन सरकार चली, अब जब फिर से एनडीए की नमो सरकार केंद्र में आई है, तब भी जल बंटवारे और पानी से जुड़े राज्यों की आपसी कलह समाप्त नहीं हुई है।
हां, इन दिनों इतना अवश्य हुआ है कि फिर से एनडीए शासन आने से नदियों को जोड़ने की दिशा में तेजी से विचार और कार्य पुन: प्रारंभ कर दिया गया है। आज इस दिशा में काम करने के लिए मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे कुछ राज्य पर्यावरण परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आगे आए हैं और उसके सार्थक परिणाम भी सहज दिखने लगे हैं। नदी जोड़ो की इस योजना को प्रमुखता से आगे बढ़ाए जाने से होगा यह कि देश के हर कोने तक जल आपूर्ति की सुचारू व्यवस्था बनाने में हम सफल हो जायेंगे। इसके लिए जो भी कदम आवश्यक हैं, भले ही फिर विरोध के स्वर कितने भी ऊंचे क्यों ना हों, उन्हें नकारते हुए केंद्र को इस दिशा में निरंतर आगे बढ़ते रहना होगा।
जिन राज्यों में ‘राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना ‘ (एनपीपी) के तहत अंतरराज्यीय नदियों को जोड़ने के लिए चिन्हित किए गए 30 संपर्कों में से राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी (एनडब्ल्यूडीए) द्वारा तीन संपर्कों पर विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार करने की प्रक्रिया चल रही है, उसका काम शीघ्र पूरा किया जाना भी बहुत जरूरी हो गया है। जिससे कि देश को इससे 35 मिलियन हेक्टेयर अंतिरिक्त सिंचाई क्षमता व 34 हजार मेगावाट पनबिजली का उत्पादन का लाभ मिलना शुरू हो जाए। वहीं, जिन भी राज्यों में जैसे तमिलनाडु-केरल ने पाम्बा अछानकोविल वायपर लिंक परियोजना का विरोध है, ओडिशा सरकार महानदी-गोदावरी लिंक परियोजना पर सहमत नहीं हो पा रही है। कर्नाटक-तमिलनाडु राज्यों के बीच कावेरी नदी के जल को लेकर लंबे समय से चला आ रहा विवाद इत्यादि विभिन्न राज्यों के बीच जल संबंधी जो तमाम विवाद हैं, पहले उनको हल करने के लिए सरकार को अपने सख्त और लचीले कदम उठाने चाहिए। इसके लिए केंद्र की सरकार उसी प्रकार राज्य सरकारों को समझाए और राजी करे, जिस प्रकार उसने वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को लेकर सभी राज्यों को मनाने में सफलता हासिल की है, वह सभी को यह बात प्रमुखता से बताए कि इससे देश की जनसंख्या का भविष्य में कितना अधिक भला होनेवाला है।
वस्तुत: हमें आज इस बात की बेहद जरूरत है कि हम नदियों को जोड़ने की अवधारणा पर तेजी के काम करें, क्योंकि भारत को प्रकृति ने जितना जल उपयोग के लिए दिया है, अभी वह उसका एक तिहाई भी अपने लिए उपयोग नहीं कर पा रहा है। इस संबंध में हमें जल के भण्डारण को भी जानना चाहिए। विश्व का 70 प्रतिशत भू-भाग जल से आपूरित है, जिसमें पीने योग्य जल मात्र 3 प्रतिशत ही है। मीठे जल का 52 प्रतिशत झीलों और तालाबों का 38 प्रतिशत, मृदनाम 8 प्रतिशत, वाष्प 1 प्रतिशत, नदियों और 1 प्रतिशत वनस्पतियों में निहित है। इसमें भारत की स्थिति देखें तो आजादी के बाद से लगातार हमारी मीठे जल को लेकर जरूरत कई गुना बढ़ चुकी है। सन् 1947 में देश में मीठे जल की उपलब्धता 6 हजार घन मीटर थी, वह वक्त के साथ इतनी तेजी से घटी है कि आगामी 10 वर्षों में इसके 16 हजार घन मीटर हो जाने की संभावना जाताई जा रही है। भारत विज्ञान की तमाम सफलताओं के बाद भी अभी तक वर्षा जल का मात्र 15 प्रतिशत ही उपयोग कर पा रहा है, शेष बहकर नदियों के माध्यम से समुद्र में चला जाता है, जबकि आगामी वर्षों में देश में जल की माँग 50 प्रतिशत और बढ़ जाने की संभावना व्यक्त की जा रही है।
अब, प्रश्न यह है कि सरकार क्या करे? इसका उत्तर भी यहीं निहित है। ऐसे में सरकार के सामने इसे लेकर यह जरूरी हो जाता है कि वह अपनी इस प्रकार की नीति बनाए, जिसमें एक तरफ पानी को लेकर जनजागरण का जल साक्षरता अभियान चलाने में उसे सफलता हासिल हो सके, तो दूसरी ओर वह समुद्र में व्यर्थ बह जाने वाले नीर का अपने लिए अधिकतम उपयोग करने में सफल हो जाए। यहां केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जाडवेकर और उनके विभाग को “जल साक्षरता अभियान” की शुरूआत करते वक्त इसकी सफलता को लेकर यह अच्छे से ध्यान में रखना जरूरी होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार स्वच्छता अभियान का आरंभ अपने मौखिक संदेश और व्यवहारिक कर्म के माध्यम से किया, वैसा ही कुछ इस अभियान के साथ हो, क्योंकि बड़े पद पर बैठे व्यक्ति का अनुसरण नीचे के पदों पर आसीन लोगों और आम जन के बीच किया जाता है। हम देख भी रहे हैं कि आज से 5 माह पूर्व जब प्रधानमंत्री का एक कदम स्वच्छता की ओर अभियान आरंभ हुआ, तभी से मोदी की प्रेरणा से घर-घर में इसे लेकर सामान्य जाग्रति आना शुरू हो गई। आज स्थिति यह हो गई है कि बच्चे भी अपने मां-बाप को कचरा इधर-उधर फैंके जाने पर टोकने लगे हैं।
अपने “जल साक्षरता अभियान” चलाने के साथ केंद्र सरकार को चाहिए कि वह इस दिशा में जरूरत पड़ने पर कुछ कदम सख्ती से उठाए। जैसे देशभर में प्रत्येक घर के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग जरूरी करना, जहां-जहां भी बड़े नाले हैं और उनका विकास के नाम पर जो पक्कीकरण इन दिनों पंचायत-नगरीय निकायों, राज्य सरकारों द्वारा किया जा रहा है, उसे रुकवाना, जिससे कि जल का अधिकांश भाग छन-छन कर जमीन के अंदर पहुंच सके। आबादी के स्थान में जहां कहीं नीची खाली पड़ी जमीन हो, वहां तालाब बनाने के प्रयास करना, जिससे कि मानसूनी वर्षा का जल एकत्रित होकर जमीन के तल तक पहुंच सके।
केंद्र प्रदेश सरकारों के माध्यम से यह सुनिश्चित करे कि नगरों और महानगरों में घरों की नालियों का जो गंदा पानी निकलता है, उसे गढ्ढे बनाकर एकत्र किया जाए और फिर उससे शहरभर में लगे पेड़-पौधों की सिंचाई की जानी चाहिए, ऐसा करने से प्रतिदिन कई टेंक साफ पेयजल की बचत की जानी संभव होगी। स्वयंसेवी संस्थाओं की मदद ली जाकर लोगों को स्वैच्छा से जल मीटर लगाने के लिए प्रेरित किए जाए तथा यह संदेश फैलाया जाए कि जिसके यहां भी व्यर्थ पानी बहता पाया गया तो उस पर भारी जुर्माना होगा।
गंगा, कावेरी, नर्मदा और यमुना जैसी सदानीरा बड़ी-छोटी नदियों को जिन किसी भी माध्यमों से गंदा किया जा रहा है, उन्हें तत्काल प्रभाव से रोकने के लिए कदम उठाए जाने होंगे। आज बड़े-बड़े उद्योगपति अपनी फैक्टरियों का करोड़ों टन कचरा रोज इन नदियों में विकास के नाम पर बहा रहे हैं, जो कि स्थानीय और दूरदराज के लोगों के लिए जहां-जहां से ये नदियां होकर गुजरती हैं, उनकी बीमारी का कारण बन रहे हैं। सरकार को उन पर भारी जुर्माना ठोकना होगा, और इन उद्योगों से कहना होगा कि आप अपने यहां के गंदे पानी को बिना टीटमेंट किए सीधे नदियों में नहीं छोड़ सकते। हालांकि इसे लेकर नियम बने हुए हैं किंतु उनका पालन नहीं हो रहा है, जो नियमों का पालन नहीं कर रहे उनके प्रति कठोर कार्रवाही सरकार को करनी होगी।
बड़ी नदियों के जल का शोधन करके पेयजल के रूप में प्रयोग किया जा सके, इसके लिए राज्य शासन-प्रशासन को केंद्र की ओर से निर्देश दिए जा सकते हैं। वहीं जंगलों का कटान होने के कारण वाष्पीकरण चक्र बिगड़ गया है, जिसके कारण देश में वर्षा नहीं होने और भूमिगत जल में निरंतर कमी आ रही है, इसलिए भूमिगत जल को बढ़ाने के लिए जरूरी है कि वृक्षारोपण लगातार किया जाए और जो वृक्ष लगाए गए हैं, उनकी मॉनीटरिंग व्यवस्था सुनिश्चित होना चाहिए, जिससे पता चलता रहे कि सही मायनों में कितने वृक्ष जीवित बच सके हैं।
केवल जल साक्षरता नहीं तो केन्द्रीय और राज्यों की सरकारें जल संरक्षण को अनिवार्य विषय बना कर प्राथमिक से लेकर उच्च स्तर तक नई पीढ़ी को पढ़वाने का कानून बनाने की दिशा में आगे आयें। यह कुछ सार्थक कदम है, जिन्हें सरकार “जल साक्षरता अभियान” की सफलता के लिए प्राथमिक तौर पर अपना सकती है। वास्तव में यदि सही मायनों में सरकार इन्हें अपना लेती है, तब जरूर कहा जा सकेगा कि उसके आरंभ किए गए “जल साक्षरता अभियान” के संपूर्ण देश में सफल हो जाने की संभावना है, अन्यथा तो यह देश में चलाए गए कई अभियानों की तरह ही एक कर्मकाण्ड बन कर रह जाएगा।
नदियों के जोड़ने के लिए एक बार फिर तत्परता दिखाई जा रही है.समय समय पर यह उत्साह सामने आता रहा है और दबता रहा है.यह परिकल्पना नई नहीं है.यह परिकल्पना और सुझाव सत्तर के दशक के आरम्भ या शायद उससे भी पहले सामने आया था. तबसे अब तक इस पर समय समय पर उबाल आता रहा है,पर कुछ अरसे के बाद दब जाता है.ख़ास कर जब कांग्रेसेतर सरकार आती है,तब इसके बारे में अधिक चर्चा होने लगती है,जिसका प्रारम्भ १९७७ के जनता पार्टी के सरकार से होता है.
अगर सच कहा जाए,तो आज यह चर्चा और इस दिशा में प्रयत्न सबसे बेमानी या बिना मतलब का है.सत्तर या अस्सी के दशक में नदियों में जल था,उस समय उस जल के सदुपयोग पर विचार किया जा सकता था.आज तो भारत की अधिकतर नदियां नालों में परिवर्तित हो चुकी हैं,जिसमे पानी के स्थान पर केवल गन्दगी बहती है.अतः सर्वप्रथम इन नदियों को उनके स्वाभाविक रूप में लाने की आवश्यकता है.इसके बाद ही किसी अन्य प्रयोग की सम्भावना पर विचार किया जा सकता है.