मुफ्त की बजाय गरीबों का आर्थिक स्वावलम्बन जरूरी

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– ललित गर्ग-
आजादी के अमृत काल में सशक्त भारत एवं विकसित भारत को निर्मित करते हुए गरीबमुक्त भारत के संकल्प को भी आकार देना होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं उनकी सरकार ने वर्ष 2047 के आजादी के शताब्दी समारोह के लिये जो योजनाएं एवं लक्ष्य तय किये हैं, उनमें गरीबी उन्मूलन के लिये भी व्यापक योजनाएं बनायी गयी है। विगत नौ वर्ष में ऐसी गरीब कल्याण की योजनाओं को लागू किया गया है, जिससे भारत के भाल पर लगे गरीबी के शर्म के कलंक को धोने के सार्थक प्रयत्न हुए है एवं गरीबी की रेखा से नीचे जीने वालों को ऊपर उठाया गया है। वर्ष 2005 से 2020 तक देश में करीब 41 करोड़ लोग गरीबी रेखा से ऊपर आए हैं तब भी भारत विश्व में एकमात्र ऐसा देश है जहां गरीबी सर्वाधिक है। वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक के अनुसार भारत में कुल 23 करोड़ गरीब हैं। यह स्पष्ट संकेत है कि तमाम कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद गरीबी उन्मूलन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए नए विचारों एवं कल्याणकारी योजनाओं पर विमर्श के साथ गरीबों के लिये आर्थिक स्वावलम्बन-स्वरोजगार की आज देश को सख्त जरूरत है। गरीबों को मुफ्त की रेवड़िया बांटने एवं उनके वोट बटोरने की स्वार्थी राजनीतिक मानसिकता से उपरत होकर ही संतुलित समाज संरचना की जा सकती है।
गरीबी के आंकड़ों में कमी के लिए इनदिनों दो घटनाक्रमों का जिक्र सुनने को मिल रहा हैं। पहला, ग्रामीण रोजगार गारंटी जैसे विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए बड़ी मात्रा में नगद भुगतान और दूसरा प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना एवं उज्ज्वला योजना के तहत सब्सिडी युक्त ईंधन एवं मुफ्त अनाज। गरीबी के स्तर पर इन कार्यक्रमों के प्रभाव को मापने का एक आधार है। मसलन, इन कार्यक्रमों से लोगों को रोजगार प्राप्त हुआ है और उन्हें मजदूरी से आय मिलती है, यह गरीबी दूर करने का प्रभावी तरीका है। कल्याणकारी योजनाओं के रूप में सस्ती गैस का अर्थ है एक प्रमुख घरेलू खर्च की बचत। वहीं मुफ्त खाद्यान्न का अर्थ है भोजन पर होने वाले खर्च में बचत यानी बढ़ी हुई आय।
भारत अमीर-गरीब के बीच बढ़ रहा फासला एक चिन्ता का कारण ही नहीं, बल्कि बड़ा राजनीतिक मुद्दा होना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से यह मुद्दा कभी भी राजनीतिक मुद्दा नहीं बना। शायद राजनीतिक दलों की दुकानें इन्हीं अमीरों के बल पर चलती है और गरीबी कायम रहना उनको सत्ता दिलाने का सबसे बड़ा हथियार है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में अमीर अधिक अमीर हो रहे हैं और गरीब अधिक गरीब। विपक्ष के सामने इससे अच्छा क्या मुद्दा हो सकता है? इस मामले में राहुल गांधी ने पहली बार अपनी भारत जोड़ो यात्रा में यह मुद्दा उठाकर अपने राजनीतिक कद को तनिक ऊंचाई दी है। उनके कारण कम से कम अमीर और गरीब के बीच बढ़ती हुई खाई का सवाल देश के मानस पटल पर दर्ज हुआ है। राजनीति से इतर अर्थशास्त्रियों और विश्व की नामचीन संस्थाओं की रपटों में यह सवाल लगातार रेखांकित हो रहा है। लेकिन मोदी सरकार बिना शोर-शराबे के गरीबी उन्मूलन के मिशन पर लगी है।
नया भारत-सशक्त भारत बनाने की जरूरत यह नहीं है कि चंद लोगों के हाथों में ही बहुत सारी पूंजी इकट्ठी हो जाये, पूंजी का वितरण ऐसा होना चाहिए कि विशाल देश के लाखों गांवों एवं करोड़ों लोगों को आसानी से उपलब्ध हो सके। लेकिन क्या कारण है कि महात्मा गांधी को पूजने वाला पूर्व सत्ताशीर्ष का नेतृत्व उनके ट्रस्टीशीप के सिद्धान्त को बड़ी चतुराई से किनारे करता रहा है। यही कारण है कि एक ओर अमीरों की ऊंची अट्टालिकाएं हैं तो दूसरी ओर फुटपाथों पर रेंगती गरीबी। एक ओर वैभव ने व्यक्ति को विलासिता दी और विलासिता ने व्यक्ति के भीतर क्रूरता जगाई, तो दूसरी ओर गरीबी तथा अभावों की त्रासदी ने उसके भीतर विद्रोह की आग जला दी। वह प्रतिशोध में तपने लगा, अनेक बुराइयां बिन बुलाए घर आ गईं। नई आर्थिक प्रक्रिया को आजादी के बाद दो अर्थों में और बल मिला। एक तो हमारे राष्ट्र का लक्ष्य समग्र मानवीय विकास यानी गरीबी उन्मूलन के स्थान पर आर्थिक विकास रह गया। दूसरा सारे देश में उपभोग का एक ऊंचा स्तर प्राप्त करने की दौड़ शुरू हो गई है। इस प्रक्रिया में सारा समाज ही अर्थ प्रधान हो गया है। लेकिन मोदी सरकार अर्थ की दौड में दुनिया की सर्वोच्च आर्थिक ताकत बनने के साथ गरीबी को दूर करने के लिये भी ठोस काम कर रही है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी आर्थिक असंतुलन एवं गरीबी को दूर करने एवं समतामूलक समाज की स्थापना के लिये प्रतिबद्ध है। संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में भारत के सार्थक प्रयास से सुरक्षा, विज्ञान, चिकित्सा, खाद्यान्न सहित कई क्षेत्रों में प्रगति की है। भारत विश्व में आर्थिक रूप से संपन्न 5 देशों में शामिल हो चुका है। कई क्षेत्रों में प्रगति करने के बाद भी देश में गरीबी एक राक्षस के रूप में खड़ी है। जिस तरह हम विजयादशमी के दिन राक्षस रूपी पुतला का वध कर बुराई पर अच्छाई को स्थापित करने का संकल्प लेते हैं उसी तरह हमें इस गरीबी पर विजय पाने का प्रण लेना होगा। इसके लिए देश में सभी को नौकरी सरकार या निजी संस्थाएं दे नहीं सकती हैं। इसलिए हमें स्वरोजगार एवं स्व उद्यमिता पर जोर देना होगा। स्वदेशी जागरण मंच की ओर से स्वावलंबी भारत के लिये संघ प्रयासरत है। संघ के प्रयासों से भी गरीबी दूर करने के लिये सकारात्मक वातावरण बनाया जा रहा है।
भारत के गरीब बढ़ती महंगाई के कारण अधिक परेशानी झेलते हैं। भारत में मुद्रास्फीति दर पिछले दस महीनों से केंद्रीय रिजर्व बैंक के ऊपरी सहनशीलता स्तर (6 प्रतिशत) से अधिक रही है। वैश्विक बाजारों में राजनीतिक एवं कोरोना महामारी से आई उथल-पुथल और उससे आपूर्ति शृंखला में आए व्यवधान इसका प्रमुख कारण हैं। बढ़ती महंगाई से मध्यमवर्गीय परिवारों की पूंजी में गिरावट आई है, जिससे यह वर्ग गरीबी के चपेट में आया है तथा गरीब वर्ग और गरीब हुआ है। बढ़ती बेरोजगारी भी गंभीर समस्या बनी हुई है। वैश्विक महामारी के बाद सबसे अधिक बेरोजगारी असंगठित क्षेत्र में फैली है, क्योंकि इस क्षेत्र में कार्यरत श्रमिक सामाजिक सुरक्षा लाभों से वंचित रहते हैं और उन पर श्रम कानून लागू नहीं होते। इस श्रेणी में, प्रधानतः छोटे व लघु उद्योग आते हैं। जाहिर है कि इन परिस्थितियों में महंगाई एवं बेरोजगारी के समाधान गरीबी उन्मूलन में मील का पत्थर हो सकते हैं।
महंगाई का समाधान एक ज्वलंत मुद्दा है, मौद्रिक मोर्चे पर केंद्रीय रिजर्व बैंक के प्रयासों के अतिरिक्त केंद्र व राज्य सरकारों से और अधिक प्रयास अपेक्षित हैं जैसे उत्पादन शुल्क, वैट आदि करों में कटौती, आवश्यक वस्तुओं की पर्याप्त आपूर्ति, कालाबाजारी पर रोक, आयात में सीमा शुल्क कटौती द्वारा सरलीकरण, बड़े औद्योगिक एवं व्यापारिक घराने की बजाय निचले स्तर पर व्यापार एवं उद्यम को प्रोत्साहन इत्यादि। इससे गरीब की जमा-पूंजी व आय सुरक्षित होगी और उसके गरीबी रेखा से बाहर आने का रास्ता तैयार होगा। जापान एवं चीन जैसे देशों की तरह भारत के हर नागरिक को उत्पाद एवं उद्यम से जोड़ना होगा। प्रधानमंत्री कौशल विकास योजनाओं का लाभ अधिकाधिक युवाओं एवं गरीब तबके तक पहुंचे। कृषि क्षेत्र में उत्पादकता बढ़ाने के लिए सघन प्रौद्योगिकीकरण को अपनाया जाए तथा खाद्य प्रसंस्करण, पशुपालन, कुटीर उद्योग, ग्रामीण गैर-कृषि रोजगार, कृषि अनुसंधान आदि में निवेश को बढ़ावा मिले। एक और प्रभावी कदम उठाये जाने की भी अपेक्षा है, और वह है श्रम कानूनों में उदारीकरण द्वारा बड़े व श्रम प्रधान उद्योगों को प्रोत्साहित किया जाए। यह उत्साहवर्धक है कि हाल ही में केंद्र सरकार की ओर से महत्त्वाकांक्षी उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना लाई गई है। मनरेगा की तर्ज पर राष्ट्रीय स्तर की शहरी रोजगार गारंटी योजना लागू करना भी लाभदायक हो सकता है। निजी क्षेत्र द्वारा निवेश एवं रोजगार को प्रोत्साहित करना भी सकारात्मक परिणाम देगा। इन कदमों से गरीबी की रेखा से लोगों को ऊपर उठाने में मदद मिलेगी एवं आत्मनिर्भरता भी बढ़ेगी, रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे।
कल्याणकारी योजनाओं व आर्थिक संबल के अलावा भी देश को स्वावलम्बी बनाने, महंगाई व बेरोजगारी की चुनौतियों के दक्षतापूर्ण एवं कुशल प्रबंधन की जरूरत है। आज जब भारत आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, जरूरी है कि आर्थिक विकास का लाभ समाज के वंचित और शोषित वर्ग तक सुलभ हो। दिल्ली में सत्ता के गलियारों में अधिकारियों के बीच जारी सुगबुगाहटों की मानें तो दिसम्बर 2023 तक जारी होने वाली रिपोर्ट में गरीबी के आंकड़ों में गिरावट से दुनिया हैरान हो जाएगी और यह  अमृत काल की अमृत उपलब्धि होगी।

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