शिक्षा का गोरखधंधा – हिमांशु शेखर

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iim_indoreदेश में शिक्षा के क्षेत्र में चल रहे गोरखधंधे को जानना और समझना हो तो इस दृष्टि से इंदौर के इंस्टीटयूट आफ मैनेजमेंट स्टडीज यानी आईएमएस के एमबीए ई-कामर्स के किसी विद्यार्थी से बातचीत की जा सकती है। वैसे तो यह संस्थान देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के अंतर्गत आता है और इसकी ख्याति मध्य प्रदेश के अलावा देश भर में फैली हुई है। पर यहां छात्रों को उच्च शिक्षा के नाम पर जिस तरह बरगलाया जा रहा है, उससे उभरने वाले सवालों को समझने की जरूरत है। क्योंकि यह एक ऐसा मामला है जिससे देश के कई शिक्षण संस्थानों के विद्यार्थी जूझ रहे हैं। सही मायने में कहा जाए तो यह पूरी शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त अराजकता का एक नमूना है।इस संस्थान के कुछ विद्यार्थी हाल ही में दिल्ली आए थे। वे अपने संस्थान में व्याप्त अनियमितता के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं। पर उनके मन के अंदर बैठे भय और संस्थान के प्रशासन का खौफ ऐसा है कि वे सूचना के अधिकार के तहत जानकारी भी मांग रहे हैं तो किसी दूसरे व्यक्ति के जरिए और जब वे किसी पत्रकार से बात भी कर रहे तो हैं तो अपनी पहचान छुपाए रखने के शर्त पर। इस संस्थान में सेंटर फार ई-बिजनेस की स्थापना 2000 के दिसंबर में हुई थी। जिसके तहत मास्टर आफ ई-कामर्स कोर्स की शुरूआत हुई थी। इसमें दो तरह से प्रवेश दिया जाता था। एक पांच साल का इंटीग्रेटेड कोर्स था। जिसमें बारहवीं के बाद दाखिला दिया जाता था। वहीं स्नातक के बाद भी सीधे दो साल के मास्टर आफ ई-कामर्स में दाखिला मिलता था। अभी भी दाखिला के लिए ये दोनों रास्ते अपनाए जाते हैं लेकिन अब कोर्स का नाम बदल गया है। अब इस कोर्स का नाम हो गया है एमबीए इन ई-काॅमर्स।

जब मास्टर आफ ई-कामर्स कोर्स शुरु हुआ था तो इसे जमकर प्रचारित किया गया था और इसके प्रति छात्रों में भी एक खास तरह का आकर्षण था। संस्थान के द्वारा जारी प्रोस्पेक्टस में जो जानकारी दी गई है, अगर उसे सही माना जाए तो इस कोर्स के लिए संस्थान ने अमेरिका के ईस्टर्न मिशीगन विश्वविद्यालय के साथ एक समझौता किया था। जिसके तहत इस कोर्स के विद्यार्थियों को कई तरह की सुविधाएं मिलनी थी। पर यह सब थोड़े ही दिनों में छलावा साबित हुआ। नामांकन के वक्त जो प्रोस्पेक्टस दिया गया था उसमें साफ लिखा हुआ है कि संस्थान छात्रों को प्लेसमेंट में सहयोग करेगी और व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए इंटर्नशिप की व्यवस्था भी करेगी। यह भी कहा गया था कि प्लेसमेंट के काम में पारदर्शिता के लिए हर साल संस्थान प्लेसमेंट बुलेटिन प्रकाशित किया जाएगा। पर वहां के छात्र बताते हैं कि ये सारे दावे खोखले साबित हुए और अब उनकी हालत बद से बदतर होती जा रही है।

एक छात्र ने बताया कि पहले तो इस कोर्स का नाम बदलकर मास्टर आॅफ ई-काॅमर्स से बदलकर 2006-07 में एमबीए इन ई-काॅमर्स कर दिया गया। जबकि नाम बदलने के बाद कोर्स में कोई बदलाव नहीं किया गया। पहले जो पढ़ाया जाता था वही कोर्स का नाम बदलने के बाद भी पढ़ाया जाता रहा। अब यहां सवाल ये उठता है कि जब पाठयक्रम वही रहना था तो फिर नाम क्यों बदला गया? संस्थान का प्रशासन इस बाबत कहता है कि ऐसा बाजार की जरूरतों को देखते हुए किया गया था। अगर संस्थान के इस तर्क को सही माना जाए तो कायदे से छात्रों का प्लेसमेंट होना चाहिए था। पर ऐसा नहीं हुआ और बड़े अरमान के साथ इस कोर्स में दाखिला लेने वाले छात्रों को दर-दर की ठोकर खानी पड़ रही है।
संस्थान में व्याप्त अराजकता और शिक्षा के नाम पर मची लूट का अंदाजा सहज ही इस बात से लगाया जा सकता है कि प्लेसमेंट नहीं करवाए जाने के बावजूद संस्थान की ओर से हर साल इस कोर्स के छात्रों से दो हजार रुपए वसूले जाते हैं। सूचना के अधिकार के तहत जब छात्रों ने किसी और के जरिए जानकारियां मंगाई तो उससे मिली जानकारी संस्थान के दावों की पोल खोलती हुई नजर आती है। एक तरफ संस्थान की ओर से जारी प्रोस्पेक्टस में कहा गया है कि व्यावहारिक प्रशिक्षण की व्यवस्था में संस्थान की ओर से मदद की जाएगी। पर संस्थान के जनसंपर्क अधिकारी की ओर से लिखित सूचना में बताया गया कि सामान्यतः छात्र खुद ही इसकी व्यवस्था करते हैं। यह बात संस्थान के दोहरे चरित्र को उजागर करती है। साथ ही इसे अपनी जवाबदेही से बचने वाले कुतर्क के तौर पर भी लिया जाना चाहिए। प्लेसमेंट की बाबत भी लिखित तौर पर यह बताया गया कि कोर्स की शुरुआत से लेकर अब तक दो दर्जन से ज्यादा कंपनियां प्लेसमेंट के लिए आई हैं। जबकि छात्रों की मानें तो कभी भी इस कोर्स के छात्रों के प्लेसमेंट के लिए कोई कंपनियां आईं ही नहीं। छात्रों ने ही बताया कि जब-जब उन लोगों ने संस्थान में प्लेसमेंट की मांग को उठाया तो कहा गया कि इस कोर्स के विद्यार्थी अभी प्लेसमेंट में बैठने के काबिल नहीं है।

दरअसल, यह अकेला मामला नहीं है बल्कि देश के कई विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थाओं में शिक्षा के नाम पर इस तरह का गोरखधंधा चल रहा है। इसमें निजी शिक्षण संस्थान और सरकारी शिक्षण संस्थानों में कोई खास फर्क नहीं है। निजी क्षेत्र के ज्यादातर शैक्षणिक संस्थान का तो अहम मकसद ही ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना है। यहां जिस संस्थान की बात की जा रही है उसने तो प्लेसमेंट में सहयोग की बात कही थी लेकिन निजी क्षेत्र के शिक्षण संस्थान तो बाकायदा प्लेसमेंट की गारंटी देते हैं। ऐसे संस्थान इसी वायदे के बल पर छात्रों से फीस के नाम पर मोटी रकम वसूलने में कामयाब हो जाते हैं। बेरोजगारों के इस देश में ज्यादातर परिवार नौकरी मिलने का आश्वासन पाते ही अपनी गाढ़ी कमाई खर्च करने में नहीं हिचकिचाते। दाखिला लेते ही छात्र उनके चंगुल में फंस जाता है और संस्थान के द्वारा प्लेसमेंट नहीं देने के बावजूद वह कुछ नहीं कर पाता है।
इस तरह की घटनाओं को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। क्योंकि इन समस्याओं से पार पाए बगैर यहां की शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर नहीं लाया जा सकता। एक तरफ तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय का सपना देखते हैं वहीं दूसरी तरफ वित्त मंत्री का काम संभाल रहे प्रणब मुखर्जी अपने बजट भाषण में मौजूदा सरकार द्वारा शिक्षा के लिए किए गए वित्तिय प्रावधानों का उल्लेख करते हुए नहीं अघाते। पर जमीनी हालात से अनजान रहकर अगर ये घोषणाएं होंगी तो इसका सकारात्मक परिणाम तो आने से रहा।

हिमांशु शेखर

2 COMMENTS

  1. शैक्षणिक संस्थाओं में शिक्षा के नाम पर इस तरह का गोरखधंधा आम हो चुका हैं… मेरा यही मानना है की शिक्षा के बाजारीकरण पर रोक लगनी चाहिए नही तों एसी बाते सामने आती रहेंगी…..

    शिक्षा व्यवस्था को पटरी पर तब तक नहीं लाया जा सकता जब तक शिक्षा के नाम पर धंधा चालने वालो के खिलाफ कुछ नही किया जातां…मेरा तों यही मानना है की शिक्षा के धंधे को रोकने के लिए कुछ न कुछ करना होगा नहीं तों एसी बाते सामने आती रहेंगी……
    इस विषय पर लिखने के लिए बधाई…इस विषय पर लिखने के लिए बधाई…

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