चुनाव आयोग खुद तय करे कि वह चाहता क्या है?

सिद्धार्थ शंकर गौतम 

पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र चुनाव आयोग ने निष्पक्ष एवं निर्विवाद चुनाव कराने के लिए जिस तरह की सख्ती दिखाई है वह काबिले तारीफ़ हैं| खासकर उत्तरप्रदेश और पंजाब में चुनाव आयोग विशेष सतर्कता बरत रहा है| इन दोनों राज्यों में उसकी सतर्कता ने चुनाव में अवैध रूप से खर्च होने वाले करोड़ों रुपये जब्त कराये हैं| वैसे भी उत्तरप्रदेश और पंजाब, दोनों ही प्रदेशों का माहौल चुनावी समर के वक़्त कुछ ज्यादा ही हिंसक और खर्चीला होता रहा है| इस बार भी दोनों प्रदेशों का माहौल कुछ इसी तरह का रहने वाला लगता है| केंद्र सरकार ने अकेले उत्तरप्रदेश में चुनाव के दौरान केंद्रीय सुरक्षा बल की ७०० कंपनियां तैनात करने का फैसला किया है| चूँकि दिल्ली का रास्ता उत्तरप्रदेश से होकर जाता है, इसलिए भी राजनीतिक दलों सहित चुनाव आयोग और सरकार ने कमर कस तैयारी की है| इस लिहाज से देखें तो उत्तरप्रदेश की जनता को चुनावी कसरत काफी महंगी पड़ने वाली है|

चुनाव आयोग की सख्ती ने एक ओर जहां राजनीतिक दलों की नींद उड़ा दी है वहीं अपने एक बेतुके फरमान से चुनाव आयोग स्वयं की भद भी पिटवा रहा है| दरअसल चुनाव आयोग ने लखनऊ और नोएडा सहित समूचे उत्तरप्रदेश में मायावती और हाथी की मूर्तियों को ढ़कने का कार्य समय सीमा में पूर्ण करने का आदेश देकर देश में नई बहस छेड़ दी है| अपने आदेश को सही साबित करने बाबत चुनाव आयोग के पास तर्क है कि चूँकि हाथी बहुजन समाज पार्टी का चुनाव चिन्ह है, इस वजह से राज्य की जनता का हाथी की मूर्तियों से प्रभावित होना स्वाभाविक है| जहां तक बात मायावती की मूर्तियों को ढंकने की है तो चुनाव आयोग ने एक भी ऐसा तर्क नहीं दिया है जिस पर सहमति जताई जा सके| क्या ऐसा संभव है कि प्रदेश की जनता मात्र हाथियों और मायावती की मूर्तियों से प्रभावित हो बसपा को वोट दे दे| कदापि नहीं| बल्कि चुनाव आयोग के इस बेतुके फरमान की वजह से तो बसपा का वोट बैंक बढना स्वाभाविक है| पता नहीं चुनाव आयोग को ऐसे फैसले करते वक़्त यह याद क्यूँ नहीं आता कि जो दल बाहुबली एवं आपराधिक चरित्र के व्यक्तियों को चुनावी टिकट थमा देते हैं, उनपर अंकुश लगाया जाना चाहिए ताकि राजनीति में जिस शुचिता एवं इमानदारी का दावा राजनीतिक दल करते हैं, उस दावे को जनता-जनार्दन के दरबार में हकीकत के धरातल पर उतारा जा सके|

मौटे अनुमान के अनुसार चुनाव आयोग के समस्त दावों को धता बताते हुए राजनीतिक दलों ने बड़ी संख्या में दागी व्यक्तियों को अपनी पार्टी की ओर से अधिकृत उम्मीदवार घोषित किया है| प्राप्त आंकड़ों के अनुसार दागियों को सबसे ज्यादा टिकट देने के मामले में कांग्रेस ने अन्य दलों के मुकाबले बाज़ी मारी है| यह वही कांग्रेस है जो चार दिन पहले तक बाबू सिंह कुशवाहा एंड पार्टी को भाजपा में प्रवेश दिए जाने के मामले पर देश-प्रदेश एक किए हुए थी| मगर जब बात चुनाव जीतने पर आई तो सारी इमानदारी और शुचिता ताक पर रख दी गई| समाजवादी पार्टी के जिस गुंडाराज का विरोध कर बसपा राज्य में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब रही थी, दागियों को टिकट देने के मामले में दूसरे नंबर पर है| इस मामले में तीसरा स्थान सपा और चौथा स्थान भाजपा को मिला है|

क्या चुनाव आयोग को यह सब नहीं दिखता? दिखता तो है मगर लगता है जैसे राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण को रोक पाने में नाकाम चुनाव आयोग ने इसे अपनी मूक सहमति दे दी है| अब चूँकि चुनाव आयोग नाम की स्वतंत्र संस्था अस्तित्व में है तो काम दिखाने के लिए भी कुछ न कुछ तो करते रहना होगा| बस राजनीति को अपराधियों से मुक्त करवाने में विफल चुनाव आयोग अपनी बेबसी को छिपाने के लिए ऐसे तुगलकी फरमान जारी करने लगा है जिससे राजनीति में शुचिता तो आने से रही, हाँ उसकी स्वयं की विश्वसनीयता पर ज़रूर सवाल खड़े किए जाने रहे हैं| यदि चुनाव आयोग स्वयं के अस्तित्व की विश्वसनीयता को जनता की नज़रों में बरकरार रखना चाहता है तो उसे बेतुके आदेश देने से बचते हुए राजनीति में आपराधियों के प्रवेश पर कैसे लगाम लगाईं जाए; पर विचार करना चाहिए| ऐसे आदेशों से आम-आदमी का तो कोई भला नहीं होता, अलबत्ता चुनाव आयोग के कार्य और फरमान देश में नई बहस को ज़रूर जन्म दे देते हैं|

मुझे याद है, मध्यप्रदेश, राजस्थान और दिल्ली में नवम्बर २००८ में हुए विधानसभा चुनाव में चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों पर जिस तरह की सार्थक पाबंदियां लगाई थीं, उससे आम आदमी के मन-मस्तिष्क में चुनाव आयोग की एक साफ़ एवं निष्पक्ष छवि का निर्माण हुआ था मगर अब हाथियों और मायावती की मूर्तियों को ढंकने के आदेश ने चुनाव आयोग की सार्थक छवि पर निश्चित तौर पर कुठाराघात किया है| अब यह चुनाव आयोग को तय करना है कि अपने नाम के अनुरूप कैसे चुनावी माहौल को आम-जनता के अनुकूल बनता है?

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

1 COMMENT

  1. आयोग का फैसला पक्षपात से भरा है इसका बसपा को लाभ ही मिलेगा.

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