जीवन की घटनाओं को पर्दें पर जीवित करने की जो पहल दादा साहब फलके ने की थी, उसके पीछे एक मकशद हुआ करता था। लेकिन जैसे वक्त बदलता गया, सिनेमा के मायने भी बदलते गये। कभी सिनेमा का इस्तेमाल जागरूकता के लिए किया गया तो कभी इसका उद्देश्य केवल मनोरंजन करने तक ही सीमित रहा।
दरअसरल हिन्दी सिनेमा हमेशा से उन दर्शकों के लिए बना था जो अपनी जिंदगी के कुछ पलों की छलक सिनेमा में देखना चाहते थे। कुछ पल के लिए ही सही सिनेमा देखकर दर्शक अपने ख्याबों की दुनिया में गोते लगा लिया करते थे। यही कारण रहा है कि हिन्दी सिनेमा में हर मुद्दे पर फिल्मों का निर्माण हुआ और दर्शकों का फिल्मों के प्रति रूझान बड़ता गया।
19वीं सदी की बनने वाली फिल्में एक मकशद को लेकर बनायी जाती थी, जो समाज में एक संदेश छोड़ती थी। जब दर्शक सिनेमा घर से बाहर निकलता था तो उसका पूरा ध्यान उन तत्वों पर होता था फिल्मों मंे डायरेक्टर द्वार दिखाये गये होते थे। वहीं उस डायरेक्टर का मकशद पूरा होता था।
पर अब मसौदा कुछ और ही है हिन्दी सिनेमा का दौर बदलता जा रहा है। जहां पहले सामाजिक और मनोरंजक फिल्में बनती थी वहीं अब समाज कुछ इस तरह की फिल्में परोसी जा रही है जिनका न तो कोई मकशद है और ना कोई संदेश।
बीते माह में रिलीज होने वाली कई फिल्में ऐसी हैं जो केवल सैक्स अपीलिंग से जुड़ी हुई है। जो केवल युवा वर्ग की जेबों से पैसा खिचने का एक उद्देश्य लिए हैं। फिल्मों के टाईटल कुछ इस तरह के बनाये गये हैं कि युवा वर्ग इन फिल्मों को देखने के प्रेरित होता है। हाल ही में रिलीज इसी तरह के कुछ ‘‘लव का दी एण्ड’’, ‘‘लव का पंचनामा’’, ‘‘कुछ लव जैसा’’ सभी एक जैसे टाईटल हैं। और सभी में लव जैसा कुछ भी नहं दिखाया गया। कहने का मतलब केवल इतना है जो 19वीं सदी में प्रेम हुआ करता था, आज उस शब्द का मतलब लव में बदल गया है। और लव का मतलब सैक्स और अफेयर से लगाया जाने लगा है। शायद यह सही भी है।
इसके अलावा युवा दर्शकों की भीड़ को बड़ने के लिए सिनेमा जगत का एक और पेंतरा देखिए कि फिल्में अब टूडी, थ्रीडी और फोरडी फोरमेट में बनने लगी है। फिर वो चाहे जैसी भी हो। फिल्मों में न तो स्टोरी रह गयी है और ना ही क्रलाईमेक्स रहा है। अगर कुछ रहा है तो वो है केवल सैक्स अपीलिंग।
अभिनेत्री सुषमिता सेन की ‘‘7 खून माफ’’ को सेंसर वोर्ड ने ए ग्रेट दिया तो अभिनेत्री को इस बात से खुशी हुई कि वो युवा वर्ग को आकर्षित कर सकेगी। वहीं अभी थ्रीडी इफेक्ट में बनी, हाॅरर विथ सैक्स से भरपूर फिल्में ‘‘हाॅनटिंड’’ व ‘‘रागनी एमएमएस’’ को भी सेंसर वोर्ड ने ए ग्रेट दिया है।
युवा वर्ग सोचता है इन फिल्मों में लव स्टोरी देखने को मिलेगी लेकिन ऐसा नहीं होता। इन फिल्मों में केवल अश्लीलता और भद्दापन ही परोसा गया है। इस अश्लीलता और भद्देपन की बजह से फिल्मों की वास्विक शाक खतरे में आती नजर आ रही है। भले ही डायरेक्टर इस बात को कह कर अपना पल्ला झाड़ ले कि वो वहीं परोसते है जो आज का दौर चाहता है। लेकिन इससे दादा साहब फालके की आत्मा में कितनी ठेस पहंुचती होगी ये तो वही……..