शूद्र सांस्कृतिक बंधुत्व से भागे हुए हिन्दू

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

हम सबके अंदर जातिप्रेम और दलितघृणा कूट-कूट भरी हुई। किसी भी अवसर पर हमारी बुद्धि नंगे रूप में दलित विरोध की आग उगलने लगती है। दलितों से मेरा तात्पर्य शूद्रों से है। अछूतों से हैं।

सवाल उठता है अछूतों से आजादी के 60 साल बाद भी हमारा समाज प्रेम क्यों नहीं कर पाया? वे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से हम आज भी दलितों से नफरत करते हैं। उन्हें पराया मानते हैं। मेरे कुछ हिन्दुत्ववादी पाठक हैं वे तो मुझपर बेहद नाराज हैं। मैं उनसे यही कह सकता हूँ कि अछूत समस्या, दलित समस्या मूलतः सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक समस्या ही नहीं है। बल्कि यह एक सांस्कृतिक समस्या भी है।

दलित समस्या को हमने अभी तक राजनीतिक समस्या के रूप में ही देखा है। उसके हिसाब से ही संवैधानिक उपाय किए हैं। उन्हें नौकरी से लेकर शिक्षा तक सब चीजों में आरक्षण दिया है। आजादी के पहले और बाद में मौटे तौर पर वे राजनीतिक केटेगरी रहे हैं। उनकी सांस्कृतिक और आर्थिक नजरिए से हमने कभी सामूहिक मीमांसा नहीं की है। संस्कृति और आर्थिक जीवन के उन चोर दरवाजों को बंद करने का प्रयास ही नहीं किया जिनसे हमारे मन में और समाज में दलित विरोधी भावनाएं मजबूती से जड़ जमाए बैठी हैं।

जाति को राजनीतिक केटेगरी मानने से जातिविद्वेष बढ़ता है। जाति व्यवस्था सांस्कृतिक-आर्थिक केटेगरी है। संस्कृति इसकी धुरी है आर्थिक अवस्था इसका आवरण है। अंग्रेजों को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने आधुनिक भारत में जातिप्रथा को प्रधान एजेण्डा बनाया। सामाजिक व्यवस्था के रूप में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रयासों से ही जातिप्रथा का अध्ययन आरंभ हुआ।

कंपनी शासन के लोग नहीं जानते थे कि जातिप्रथा क्या है ? वे यहां शासन करने के लिए आए थे और यहां के समाज को जानना चाहते थे।यही बुनियादी कारण है जिसके कारण अंग्रेज शासकों के अनुचर इतिहासकारों, मानवविज्ञानियों,प्राच्यविदों आदि ने जातिप्रथा का गंभीरता के साथ अध्ययन आरंभ किया।

अति संक्षेप में इतिहासकार रामशरण शर्मा के ‘शूद्रों का प्राचीन इतिहास’ ग्रंथ के आधार पर कह सकते हैं कि प्राचीनकाल में मवेशियों को लेकर जमकर संघर्ष हुए हैं और बाद में जमीन को लेकर संघर्ष हुए हैं। जिनसे ये वस्तुएं छीनी जाती थीं और जो अशक्त हो जाते थे,वे नए समाज में चतुर्थ वर्ण कहलाने लगते थे।फिर जिन परिवारों के पास इतने अधिक मवेशी हो गए और इतनी अधिक जमीन हो गयी कि वे स्वयं संभाल नहीं पाते थे,तो उन्हें मजदूरों की आवश्यकता हुई और वैदिककाल के अंत में वे शूद्र कहलाने लगे।

हमारे बीच में शूद्रों के बारे में अनेक मिथ प्रचलन में हैं इनमें से एक मिथ है कि शूद्र वर्ण का निर्माण आर्य पूर्व लोगों से हुआ था। यह नजरिया एकांगी है और अतिरंजित है। इसी तरह यह भी गलत धारणा है कि आरंभ में सिर्फ आर्य ही थे।

वास्तविकता यह है कि आर्थिक तथा सामाजिक विषमताओं के कारण आर्य और आर्येतर ,दोनों के अंदर श्रमिक समुदाय का उदय हुआ और ये श्रमिक आगे जाकर शूद्र कहलाए। यह ऐतिहासिक सच है कि वैदिककाल के आरंभ में शूद्रों और दासों की संख्या कम थी। लेकिन उत्तरवर्ती वैदिककाल के अंत से लेकर आगे तक शूद्रों की संख्या बढ़ती गई, उत्तर वैदिक काल में वे जिन अशक्तताओं के शिकार रहे हैं,वे वैदिककाल में नहीं थीं।

एक मिथ यह भी है कि शूद्र हमेशा से मैला उठाते थे,अछूत थे। यह तथ्य और सत्य दोनों ही दृष्टियों से गलत है। यदि हिन्दूशास्त्रों के आधार पर बातें की जाएं तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि त्रेता-युग का आरंभ होने के समय वर्णव्यवस्था का जन्म नहीं हुआ था। न कोई व्यक्ति लालची था और न लोगों में दूसरों की वस्तु चुराने की आदत थी।

चतुर्वर्ण की उत्पत्ति के संबंध में सबसे प्राचीनतम उल्लेख ऋग्वेद के पुरूषसूक्त में मिलता है। अनुमान है कि इसे संहिता के दशम मण्डल में बाद में जोड़ा गया था। बाद में इसे वैदिक साहित्य, गाथाकाव्य, पुराण और धर्मशास्त्र में अनुश्रुतियों के आधार पर कुछ हेर-फेर के साथ पेश किया गया। इसमें कहा गया है कि ब्राह्मण की उत्पत्ति आदिमानव (ब्रहमा) के मुँह से,क्षत्रिय की उनकी भुजाओं से, वैश्य की उनकी जांघों से, और शूद्र की उनके पैरों से हुई थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि शूद्र और अन्य तीनों वर्ण एक ही वंश के थे और इसके फलस्वरूप वे आर्य समुदाय के अंग थे।

शूद्रों के प्रति भेदभाव और घृणा सामाजिक विकास के क्रम में बहुत बाद पैदा हुई है। कायदे से हम सब एक हैं हममें और शूद्रों में बुनियादी तौर पर कोई अंतर नहीं है। कालांतर में श्रम और श्रम विभाजन की प्रक्रिया में हमने शूद्रों को अलग करने की आदत डाली,उनसे भेदभावपूर्ण व्यवहार आरंभ किया। उनके साथ उत्पीड़क का व्यवहार करने लगे और एक अवस्था ऐसी भी आयी कि हमने उनके सांस्कृतिक-सामाजिक उत्पीड़न को वैधता प्रदान करने वाला समूचा तर्कशास्त्र ही रच डाला।

सवाल उठता है कि शूद्र पदबंध आया कहां से? रामशरण शर्मा ने लिखा है कि जिस प्रकार सामान्य यूरोपीय शब्द ‘स्लेव’ और संस्कृत शब्द ‘दास’ विजित जनों के नाम पर बने थे, उसी प्रकार शूद्र शब्द उक्त नामधारी पराजित जनजाति के नाम पर बना था। ईसापूर्व चौथी शताब्दी में शूद्र नामक जनजाति थी। क्योंकि डियोडोरस ने लिखा है कि सिकंदर ने आधुनिक सिंध के कुछ इलाकों में रहने वाली सोद्रई नामक जनजाति पर चढ़ाई की थी। इतिहासकार टालमी ने लिखा है सिद्रोई आर्केसिया के मध्यभाग में रहते थे जिनके अंतर्गत पूर्वी अफगानिस्तान का बहुत बड़ा हिस्सा पड़ता है और इसकी पूर्वी सीमा पर सिन्धु है।

सवाल यह है शूद्र हमारे आदिम बंधु हैं। क्या उन्हें हम आधुनिककाल में समस्त भेदभाव त्यागकर अपना मित्र नहीं बना सकते? अपना पड़ोसी, अपना रिश्तेदार, अपना भाई, अपना जमाई,अपना बेटा नहीं बना सकते?

हमें गंभीरता के साथ उन कारणों की तलाश करनी चाहिए जिनके कारण शूद्र हमसे दूर चले गए और आज भी हमसे कोसों दूर हैं। हम सांस्कृतिक तौर पर पहले एक-दूसरे के साथ घुले मिले थे लेकिन अब एक-दूसरे के लिए पराए हैं,शत्रु हैं।

पहले शूद्र एक ही शरीर और एक ही समाज का अनिवार्य अंग थे। आज एक-दूसरे से अलग हैं,एक-दूसरे के बारे में कम से कम जानते हैं,एक-दूसरे बीच में रोटी-बेटी-खान-पान-पूजा-अर्चना के संबंध टूट गए हैं। यह विभाजन हम जितनी जल्दी खत्म करेंगे उतना ही जल्दी सुंदर भारत बना लेंगे। भारत की कुरूपता का कारण है जातिभेद और शूद्रों के प्रति अकारण घृणा।

भारत सत्ता, संपदा, तकनीक, इमारत, इंफ्रास्ट्रक्चर, उद्योग-धंधे, आरक्षण आदि में कितनी ही तरक्की कर ले, कितना ही बड़ा उपभोक्ता बाजार खड़ा कर ले हम जब तक शूद्रों के साथ सांस्कृतिक संबंध सामान्य नहीं बनाते सारी दुनिया में हमारा नाम पिछड़े देशों में बना रहेगा। समाज में सामाजिक तनाव बना रहेगा।

कुछ अमरीकीपंथी दलित विचारक हैं जो यह मानकर चल रहे हैं कि दलितों की आर्थिक स्थिति सुधर जाएगी तो दलितों की मुक्ति हो जाएगी। दलितों के पास दौलत आने ,उनके उपभोक्ता बनने से जातिभेद की दीवार नहीं गिरेगी बल्कि जातिभेद और बढ़ेगा। उपभोक्तावाद भेदभाव खत्म नहीं करता बल्कि भेदभाव बढ़ाता है।

वस्तुओं के समान उपभोग से सांस्कृतिक भेदभाव की दीवारें गिरती नहीं हैं उलटे सांस्कृतिक भेदभाव की दीवारें मजबूत होती हैं। उपभोक्तावाद को भेदभाव से मदद मिलती है वह बुनियादी सामाजिक भेदभाव को बनाए रखता है।

उपभोक्तावाद में यदि भेदभाव की दीवार गिरा देने की ताकत होती तो अमेरिका और ब्रिटेन में नस्लीय भेदभाव की समाप्ति कभी की हो गयी होती। वस्तुओं का उपभोग भेद की दीवारें नहीं गिराता। वस्तुएं सांस्कृतिक मूल्यों को अपदस्थ नहीं करतीं। जातिभेद के सांस्कृतिक मूल्यों को अपदस्थ करने वाले नए मूल्यों को बनाने की पूंजीपति वर्ग में क्षमता ही नहीं है यदि ऐसा ही होता तो काले लोगों को विकसित पूंजीवादी मुल्कों में भयानक नस्लीय भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता।

11 COMMENTS

  1. आदरणीय जगदीश्वर जी, मुझे इस आलेख में कुछ भी नया नहीं लगा। बहरहाल, बहुत सारी चीज़ों को एक जगह कर देने के लिए धन्यवाद।

  2. आदरणीय चतुर्वेदी जी के सम्पूर्ण आलेख से सहमत होना चाहता हूँ किन्तु अपनी अज्ञानता के कारण उन्ही से जानना चाहता हूँ की क्या विदेशी आक्रान्ताओं ने , जातीय विमर्श को दलितोद्धार के उद्देश्य से आरम्भ किया था या भारत की जनता के उन अलगाव वादी बिदुओं पर बाकायदा सोच समझकर काम किया जिनसे साम्राज्वाद को मजबूती मिले .?

  3. हिन्दू धर्म के अनुसार कोइ अछूत नहीं है . अछूत मानने की कुरीति एक मूर्खतापूर्ण अन्धानुकरण और अज्ञान के प्रसार के कारण फैली. बाद में हिन्दू विरोधी इतिहासकारों ने उसे एक विकृत रूप में प्रस्तुत कर समाज को तोड़ने में कोई कसर नहीं रखी .

    किसी भी हिन्दू संस्कारी घर में आज भी जाइए तो पायेंगे कि परिवार के लोगों में ही आपस में मल त्याग के पश्चात् हाथ पैर धोने तक एवं स्त्रियों के मासिक धर्म के समय वस्तुओं एवं दूसरों को न छूने का अनुशाशन होता है .

    कारण यह रहा है कि हिन्दुओं को आदि काल से ही बीमारी फैलाने में अदृश्य जीवाणुओं एवं विषाणुओं के योगदान एवं इनके स्पर्श द्वारा फैलाने की संभावना का ज्ञान था . इसी कारण जो व्यक्ति समाज में सफाई के कार्य में संलग्न था उसके द्वारा दूसरों को उस कार्य में संलग्न होते समय छूने पर प्रतिबन्ध था . बाद में स्नान के पश्चात कोई प्रतिबन्ध नहीं था . उस समय दवाओं एवं रासायनिक पदार्थों का उतना प्रचलन नहीं था इसलिए यह सब ज्यादा ध्यान से पालन करने पर जोर था .

    परन्तु कालान्तर में यह कारण और यह ज्ञान भूल कर यह एक कुरीति बन गयी .

    इसमें न तो कहीं कोई मवेशी युद्ध था और न ही कोई जमीनी युद्ध था . यह सब कहानियां तो तथाकथित हिन्दू विरोधी इतिहासकारों के अवैज्ञानिक दिमागों की उपज हैं .

    इन इतिहासकारों एवं समाज शास्त्रियों के मन में विज्ञान के प्रति आकर्षण तो बहुत होता है और ये विज्ञान की दुहाई भी बहुत देते हैं पर अधिकतर यह विज्ञान को न समझने वाले कथा वाचक पंथी लोगों जैसे ही होते हैं .

    यह समस्या इस तरह के दुर्भावना पर आधारित लेखों से नहीं जाने वाली … इसके लिए वैज्ञानिक तरीके से सोचना जरूरी है . नहीं तो लेखक जैसे विद्वान् लोग यदि हिन्दुओं के एक वर्ग को अछूत प्रथा के कारण के लिए उनकी समाज के एक वर्ग के प्रति घृणा को जिम्मेदार बताते रहेंगे तो दोनों वर्ग एक दूसरे से घृणा के सिवाय और क्या करेंगे ?

    एक समय था जब लोग अपने ही घर में पखाने स्वयं साफ़ नहीं करते थे . परन्तु आज के युग में यह भ्रान्ति जा चुकी है . कारण वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास एवं ज्ञान का प्रसार है . कुछ दिनों पहले स्वाइन फ्लू फैला था तब तो लोग खांसते हुए पड़ोसी को भी अछूत मानने लगे थे …

    अछूत समस्या का मूल रूप से विनाश शिक्षा एवं वैज्ञानिक सोच के विकास से होगा न कि किसी कम्युनिस्ट क्रांति से !

  4. मान्यवर मित्र आर. सिंह जी, आपकी संतुलित टिप्पणी हेतु धन्यवाद.
    -एकलव्य के प्रति द्रोणाचार्य के अन्याय को रेखांकित करने वाली घटना तब के समाज के व्यवहार का परिचायक नहीं , अपवाद है जिसे व्यास देव जी ने बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत किया है. स्वयं व्यास देव भी तो क्षूद्र से ऋषी पद तक अपनी विद्वत्ता और साधना, त्याग के कारण पहुंचे थे. वे या तो इस घटना को राज्य समर्थक के पूर्वाग्रह के कारण गायब कर देते और या फिर एक क्षूद्र के प्रती हुए व्यवहार को एक क्षत्रीय अत्याचार के रूप में बड़े भावुक ढंग से प्रस्तुत करते और समाज की कुछ और ऐसी घटनाओं के प्रसंग प्रस्तुत करते. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. द्रोणाचार्य जैसे श्रेष्ठ पुरुष भी कभी-कभी किसप्रकार पूर्वाग्रहों के शिकार बन सकते हैं, यह उसकी इमानदार प्रस्तुती है. द्रोणाचार्य को इस अपराध के लिए व्यासदेव जी ने कितना कठोर दंड दिया है ; यह देखिये. सारा जीवन उन्हें इसके लिए अपमानित होना पडा और मृत्यु के बाद भी आजतक कलंकित हैं. क्षुद्रों सेघृणा करने वाले समाज में ऐसा होना संभव है क्या ?
    # अतः एकलव्य की यह घटना क्षुद्रों के प्रति आम समाज द्वारा असमानता का व्यवहार न किये जाने का प्रमाण है या उनपर अत्याचार व उनके अपमान का प्रमाण है ? पर हिन्दू समाज के दुश्मनों को तो केवल गलत अर्थ ही निकालने हैं, चुन-चुन कर. और हम भी ऐसे भोले की अपने दुश्मनों को पहचाने बिना उनके समाज तोड़क, घृणा व विद्वेष फैलाने के षडयंत्रों का आसानी से शिकार बन जाते हैं.
    # अतः यदि क्षुद्रों से दुर्व्यवहार तब के समाज में आम प्रचलित होता तो यह एकलव्य की घटना उल्लेखनीय कभी न बनाती. जहां रोज़ ऐसी घटनाएँ होती हों, कौन परवाह करता इसकी.
    फिर राज्य आश्रय पाए हुए गुरु द्रोणाचार्य जैसे सम्मानित व शक्तिशाली व्यक्ती की आलोचना . अत्याचारी, अन्यायी कौरवों के शासन काल में नभी कैसे ऊँचे ऋषी और कैसा श्रेष्ठ समाज रहा होगा ? कैसा अद्भुत व्यक्तित्व रहा होगा व्यास देव जी का !
    तब इतिहास लेखन राजाओं को खुश करने के लिए आज की तरह नहीं किया जाता होगा. जैसा की मुग़ल शासन में और अंग्रेज़ी शासन में लिखा गया. धर्मपाल जी द्वारा एकत्रित अकाट्य प्रमाण बतला रहे हैं की अपना जो इतिहास हम आजकल पढ़ रहे हैं, वह ८०-९० % तक झूठा है.
    – तो बात केवल इतनी है की हमारे इतिहास ग्रंथों के कुटिलता पूर्वक निकाले गए अर्थों को हमें अपनी बुधी से समझना, परखना होगा. विदेशी मुग़ल इतिहासकारों ने चापलूसी और जिहादी मानसिकता से इतिहास के नाम पर भारी झूठ लिखा. क्रिस्टी कट्टरपंथ के शिकार अँगरेज़ और अन्य यूरोपीय इतिहासकारों ने सुनियोजित ढंग से विपुल झूठा इतिहास लिख कर हम पर थोंप दिया; जो देशभक्त , आत्मविश्वासी, स्वाभिमानी भारतीय पैदा ही न होने दे. फिर भी देशभक्त भारतीय पैदा हो रहे हैं, इसका समाधान करने में लगी विदेशी ईसाई ताकतें ही भारत की समस्याओं की जन्मदाता हैं. इन सब बातों को समझे बिना हम अपनी समस्याओं का समाधान नहें कर पायेंगे.
    # एक बात में स्पष्ट कर दूँ कि मैं इसाई विरोधी नहीं हूँ. ईसामसीह का में एक हिन्दू ऋषी जैसा ही सामान करता हूँ. देशभक्त ‘ पूअर क्रिश्चन मूवमेंट’ जैसे देशभक्त ईसाईयों का में आदर करता हूँ . पर जो ईसाई विदेशी ताकतों के इशारे पर देश को तोड़ने का काम करते हैं, उनका विरोध मैं तो क्या प्रत्येक देशभक्त करेगा. नियोगी कमीशन रपट में स्पष्ट कहा गया है कि ईसाई आसानी से सी.आई.ए के एजेंट बन जाते हैं. यह कमीशन भाजपा ने नहीं, नहरू जी न बिठाया था. एक हज़ार पृष्ठों की इसकी रपट अभी भी उपलब्ध है.
    – तो देशभक्त ईसाई हमारे भाई हैं और विदेशी ताकतों के इशारों पर देश को नागालैंड, मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा की तरह तोड़ने वाले इस देश के दुश्मन हैं. हम सब जानते हैं कि वहाँ के समाज को भारत की मुख्य धारा से दूर ले जाने वाले और भारत विरोधी आतंकी घटनाओं, हत्याओं के पीछे ईसाई संगठन व चर्च है.

  5. जगदीश्वरजी: क्या, आपसे निम्न बिंदुओं पर विचार जान सकता हूं?
    मेरी प्रतिक्रिया।
    जाति/(वर्ण) चार बिंदुओंपर खडी थी/है, (१) व्यवसाय बंदी, (२) रोटी बंदी (३) स्पर्श बंदी (४) बेटी व्यवहार (विवाह सीमाएं)
    (१)व्यवसाय बंदी समाप्ति पर है: आज दलित भी (क्षत्रिय व्यवसाय) सेना में, राजनीति और शिक्षा में (ब्राह्मण व्यवसाय) , वाणिज्य, खेती इत्यादि, वैश्य व्यवसाय में भी आपको हर कोई जाति/वर्णके लोग मिल जाएंगे। बाटा, टाटा दलित(?) व्यवसाय में।
    (२)रोटी बंदी समाप्ति पर: यदि आप होटल में. विमानमें, रेल गाडी में अल्पाहार या भोजन करते हैं।किस जाति का बनाया हुआ? तो रोटी बंदी लगभग समाप्त ही है।
    (३) स्पर्श बंदी समाप्तिपर : आप विमान, बस, रेल, इत्यादि में प्रवास करते हैं। तो निकट के यात्री को स्पर्श हो ही जाएगा। वह कौन जाती का है, आपको क्या पता?
    निष्कर्श: रोटी बंदी, व्यवसाय बंदी, और स्पर्श बंदी (आप का शब्द “अछूत”) समाप्ति की राह पर है।
    (४) केवल बेटी व्यवहार, बहुत कुछ टिका हुआ है। पर और पढनेका अनुरोध है।
    विवाह कौन व्यक्ति, किससे करे, वह उसका–
    (४क)अपना, वयक्तिक (शायद स्वतंत्र मानवाधिकार है।) निर्णय है। आप अपने बेटे/बेटी को भी आप बलपूर्वक जहां चाहे वहां ब्याह नहीं सकते!
    (४ख) और, विशेष विवाह का साफल्य, समान गुणावगुणों पर अनुरूपता पर निर्भर करता है। यह (Compatibility) अनुरूपता और पूरकता के आधारपर सुनिश्चित होता है।पूरक कर्तव्य निष्ठाएं, और अनुरूप भाषा, आहार, त्यौहार, आदर्श, परंपराएं (ऐसे कमसे कम बिसियों गुण) मिला सकते हैं। जहां केवल शारीरिक आकर्षणों से विवाह होते हैं, और जहां ऐसी परंपराएं नहीं है, उन देशों में कुटुंब समाप्तिपर है।विवाह सफल होने पर भी कामुकता समाज को धीरे धीरे, गिराती है।
    अंतिम मत:
    यह जाति का उपयोग भेद के लिए ना हो। आपसी परस्पर सहायता का एक गुट तो आवश्यक है।जहां यह नहीं है, वे देश कौटुम्बिक अनैतिकता में आगे हैं। यूनान, और रोम कुटुम्ब खतम होनेसे मिट गए, ऐसा मैंने पढा हुआ है। भेद भाव मनमें रहा तो मनुष्य़ भेद के लिए और कारण ढूंढ लेगा।
    मन से, भेद तो संघ में नहीं। वहां समरसता है, ममता है। ममता के बिना समता नहीं। दूसरे में भी वही आत्मा विद्यमान है, यही भाव ममता, समरसता, समता, ला सकता है।
    दीनदयालजी कहते हैं: “……बुराई का वास्तविक कारण व्यवस्था नहीं, मनुष्य है। मनुष्य ही प्रथम आता है।बुरा व्यक्ति अच्छी-से-अच्छी व्यवस्था में घुसकर बुराई फैला देगा। किसी अच्छी परंपरा पर जब बुरा व्यक्ति जा बैठा तो तो वहां बुराई आ गई।”
    इस लिए संघ —-व्यक्ति व्यक्ति में नैतिकता लाने का मौलिक काम कर रहा है। परंपराएं सशक्त होती है। वे बटन दबाया और खतम हो गयी, ऐसा नहीं है। मेरे दादा, पिता, मैं, और मेरी संतति –इन चारों के जीवनमें काफी काफी बदलाव आया है। ऐसा बदलाव लाना शतकों तक चलेगा।
    बहुत कहना है। पर मर्यादा में लिख रहा हूं।

  6. चतुर्वेदीजी के तर्क भी ठीक हैं,पर डाक्टर राजेश कपूर ने जो प्रमाण पेश किये हैं उनको भी एकाएक झुठलाया नहीं जा सकता,पर इन सब के बीच मुझे महाभारत का एकलब्य याद आरहा है.वह कौन है?और उसका अंगूठा क्यों कटा?कही इसी के बीच हमारे इस वादविवाद का उत्तर तो नहीं छिपा है?

  7. चतुर्वेदी जी का आलेख अकाट्य तर्क के मानकीकरण का मोहताज नहीं …पूरे वैज्ञानिक तथ्यों ,आर्थिक ,सामाजिक ,सांस्कृतिक विश्लेषणों का भारतीय परिप्रेक्ष में जातीय असमानता के कारणों और निदान पर यथार्थ चिंतन …सभी सुधी पाठक यदि अपने जातीय या परम्परागत पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर यदि इस आलेख को पढ़ें तो उचित संज्ञान का बोध अवश्य होगा …..श्रीराम तिवारी

  8. बंधुवर डा. चतुर्वेदी जी, अस्पृश्यता का कलंक मिटाना ही चाहिए. निस्संदेह यह मानवता के विरुद्ध एक पाप और अपराध है. पर इसके उपाय क्या हैं ?
    – क्या इसके लिए ज़रूरी नहीं की इसके मूल कारणों को जाना जाए ? रोग के मूल कारण को जाने बिना उपचार कैसे संभव है ?
    – आप मित्रों ने इतिहास को गहराई से जाने बिना घोषित कर दिया है कि हिन्दू धर्म, हिन्दू समाज, हिन्धू धर्म ग्रन्थ इस बुराई का मूल हैं. अगर ये सच है तो उसे स्वीकार करना ही चाहिए. पर ये सच है क्या ? ज़रा इमानदारी से सच को जानने का प्रयास करें.
    * गांधीवादी विचारक श्री धर्म पाल जी ने लगभग ५० साल तक इतिहास का अध्ययन करने के बाद १० पुस्तकों का एक संच तैयार किया जो सर्व सेवा संघ के वाराणसी केंद्र पर मुझे सरलता से मिल गया. इन पुस्तकों में वे सारे तथ्य प्रमाणों सहित उपलब्ध हैं जो कि उयरोपीय कट्टरपंथी ईसाई इतिहासकारों के षडयंत्रों और इतिहास के विकृतीकरण को उजागर करते हैं.
    * इन पुस्तकों में एक ‘दी ब्यूटीफुल ट्री’ नामक पुस्तक में अंग्रेजों द्वारा किये सर्वेक्षणों से पता चलता है कि भारत में सन १८०० तक भी जातियां तो थीं पर छुआ-छूत नाम को भी नहीं थी. विद्यालयों में ब्राहमण, क्षत्रीय, कुम्हार, नाई, डोम आदि सभी जातियों के छात्र और शिक्षक बिना किसी भेद-भाव के एक साथ पढ़ते थे. फिर ये तो सरासर धांधली है कि सारा दोष हिन्दू ग्रंथों व हिन्दू समाज पर थोंप दिया जाए.
    * अनेकों अकाट्य प्रमाणों से पता चलता है कि आक्रमक ईसाई कट्टरपंथियों ने भारतकी लूट और धर्मांतरण के लिए भारत के इतिहास को विकृत किया और हमारी शिक्षा, कृषी, व्यापार,सोच और समाज व्यवस्था को बिगाड़ा, नष्ट-भ्रष्ट किया. हमारे ग्रंथों, देवों, परम्पराओं, ब्राह्मणों के विरुद्ध घृणा फैलाने का सुनियोजित अभियान चलाया. कुछ ताकतें आज भी वही सब गुप्त रूप में कर रहे हैं.

    * डा. मीना जी जिस भाषा, तकनीक व शैली का इस्तेमाल करते हैं वे सब बिलकुल उन्ही विदेशी कट्टरपंथियों वाली है जो भारत में अलगाववाद को बढ़ावा देकर देश को तोड़ना चाहते हैं, जातिवादी घृणा फैलाना चाहते हैं. आप सरीखे कम्युनिस्ट मित्र अपने हिन्दू विद्वेष के कारण उनके सहायक जाने- अनजाने में अनेक दशकों से बनते आ रहे हैं.

    # यदि हम जातिवाद के कलंक को ईमानदारी से मिटाना चाहते हैं तो इसके लिए सारे हिन्दू समाज, हिन्दू धर्म ग्रंथों को गरियाना कैसे उचित है ? क्या इसका यह मतलब नहीं कि कुछ लोग ( जैसे डा. मीना जी ) जातिवाद को दूर करने के बहाने हिन्दू समाज और साहित्य को बदनाम करने के गर्हित उद्देश्य की पूर्ती के गुप्त अजेंडे पर काम कर रहे हैं ? इसप्रकार वे भारत को तोड़ने और इसाईयत को फैलाने के उद्देश्य के लिए संलग्न नहीं हैं क्या ?
    – क्या यह उचित नहीं होगा कि अस्पृश्यता के समर्थकों के विरुद्ध हम सब मिल कर काम करते हुए हिन्दू समाज को यह भी स्मरण करवाते रहें कि २०० साल पहले वे इस मानवताविरोधी कुरीति के शिकार नहीं थे ?
    – मुझे विश्वास है कि सच्चे मन से छुआ-छूत के पाप को समाप्त करने वालों को इस प्रयास में ऐतराज़ नहीं होगा. पर जिन्हें हिन्दू समाज के विरुद्ध घृणा फैलानी है, वे तो इससे सहमत होही नहीं सकते. सच सामने आ जाएगा.

  9. आपने एसी कोयी बात नही लिखी जिससे आपसे हमारा विरोध हो,एतिहासिक तथ्यों को इतिहास कारो पर छोडते हुवे हम लोग यही मानते है कि आज के इस समय मे कोयी वर्ण नही है,जब कोयी वर्ण ही नही है तो फ़िर शुद्र कौन ??ब्राहम्ण कौन??जाती कभी वर्ण नही थी ना है,भेदभाव सारा का सारा अपने आप को सवर्ण कहने वाले हिन्दुओं की मानसिकता मे है जिसे देश के संविधान ने नही अनेकों निस्वार्थ भाव से काम करने वाले सन्तों,प्रचारको,हिन्दु संघठनों और आवश्यकता एवम शिक्षा ने बदला है और ये बदलाव जारी है.सामाजिक बदलाव बहुत धिरे होता है लिकिन होता बहुत स्थायी है राज सत्ता के आने या जने से इसकी गती मण्द या तिव्र हो सकती है लिकिन वो ही माध्यम हो एसा हम नही मानते है,अगर मैं ठेठ शास्त्रिय विवेचना करू तो बिना संस्कार के होने के कारण आज पुरा हिन्दु समाज ही शुद्र कहा जा सकता है,फ़िर जो लोग नाम धारी संकार करते भी है तो उनमे वो भाव नही होता न उससे व्यक्ति का व्यक्तित्व बदलता है या उसे अनुभव करता है…………….
    जैसे शरीर के सारे अंग समान होते है वैसे ही सारे सामाजिक अंग समान होते है,किसी एक की दुरव्स्था पुरे समाज को प्रभावित करती है,ये हिन्दु समाज का दायित्व है कि वो वंचित बन्धुओं की शिक्षा-स्वास्थ्य-सम्मान-सुरक्षा आदी की चिण्ता करे तथा उसे आगे बढाने में सक्रिय सहयोग देवे,और अपने व्यक्तिगत अनुभव से पता है कि अनेको लोग संघठन या अपने प्रयासों से इस काम में लगे है…………………….
    अनेक लोगो ने इसमे काम किया है पर
    मेरे विचार से जो प्रभावी काम संघ ने खडा किया वो बहुत ही प्रेरणादायक है,संघ मे किसी की जाती कभी नही पुछी जाती है,संघ जाती और पंथ के बारे मे चिंता भी नही करता फ़िर प्रत्येक स्वयंसेवक के घर होने वाले भोज,सह्भोजों,सबके घर से टिफ़िन लाकर उसे एक साथ मिला कर प्रेम से खने वाले कार्यक्र्मो,एक दुसरे के घरॊ मे प्रवास के लिये जाने ओर वहा भोजन करने साथ रहने आदी बाते करते करते प्रत्येक व्य्क्ति का जातिय अभिमान और जातिय हिन भावना सव्त: निकल जाती है.
    फ़िर उडुपी के हिन्दु सम्मेलन मे सभी शंकराचार्यों और सन्तो का “ना हिन्दु पतितो भवेत……….” का जय घोष,समरसता के लिये विभिन्न प्राकार के कार्य्क्र्म संघ ने अपने हाथ मे लिये,अभी तीन साल पहले सामाजिक समरसता वर्ष में प्रत्येक हिन्दु के घर समरसता का संदेश पहुचा था…………………………
    बहुत लोग लगे है काम में बहुतों की ओर आव्श्यक्ता है,बिमारी पुरानी है,ऊपर से ईलाज किया हुवा भी घातक है अत: धीरे धीरे परिवर्तन आ रहा है,समान बन्धु भाव से सभी हिन्दु मिल रहे है कटुता बहुत हद तक कम हुयी है,उम्मीद है सारे बेद खत्म होंगे…………………………….इक समरस समाज का निर्माण जल्द होगा………………
    “हिन्द्व सोदरा सर्वे,ना हिन्दु पतितो भवेत।
    मम दिक्षा हिन्दु रक्षा,मम मंत्र समानता॥”

  10. आदरणीय श्री चतुर्वेदी जी,
    नमस्कार।

    आपके अनेक आलेख पढे हैं। पहली बार ऐसा लग रहा है कि इस आलेख में आपने वह नहीं लिखा, जिसके लिये आप जाने जाते हैं। हालांकि कहीं-कहीं लेखक श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी जी की झलक मिल रही है।
    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

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