आलोचना

मूल्यांकन के पोंगापंथी मॉडल के परे हैं तुलसीदास

परंपरा और इतिहास के नाम पर हिन्दी का समूचे विमर्श के केन्द्र में तुलसीदास के मानस को आचार्य शुक्ल ने और कबीर को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आधार बनाया। सवाल किया जाना चाहिए कि क्या दलित-स्त्री-अल्पसंख्यकों के बिना धर्मनिरपेक्ष आलोचना संभव है? कबीर के नाम पर द्विवेदीजी की आलोचना दलित साहित्य को साहित्य में हजम कर जाने की मानसिकता से संचालित है, वहीं रामचन्द्र शुक्ल- रामविलास शर्मा यही काम अपने तरीके से करते हैं। इन दोनों ही मूल्यांकन दृष्टियों में एक तथ्य समान है और वह है साहित्य एवं आलोचना में पितृसत्तात्मक विचारधारा का वर्चस्व बनाए रखना। शुक्ल-द्विवेदी-रामविलास-नामवर समीक्षा के मानक पितृसत्तात्मक विचारधारा से न तो संघर्ष करते हैं और न किसी भी किस्म की आलोचना ही पेश करते हैं। रामचन्द्र शुक्ल-रामविलास शर्मा के यहां साहित्य की सामाजिकता की खोज का काम यथार्थ के आग्रह से प्रेरित है, इसमें पितृसत्तात्मक विचारधारा की पूरी तरह अनदेखी की गयी है, दूसरी ओर हजारीप्रसाद द्विवेदी के यहां परंपरा और इतिहास के मूल्यांकन में विचारधारा के मानवतावादी पक्ष की खोज पर जोर है, यहां पर भी पितृसत्ताात्मक विचारधारा के प्रति उपेक्षा का भाव व्यक्त हुआ है।

गजानन माधव मुक्तिबोध के द्वारा भक्ति-आंदोलन का जो मूल्यांकन पेश किया गया है वहां एक सरलीकरण का सहारा लेते हुए निर्गुण काव्य धारा को निम्नवर्ण और सगुण काव्य धारा को सवर्ण जाति से जोड़ दिया गया है, साथ ही कृति के तौर पर रामचरितमानस को सवर्ण विचारधारा की अभिव्यक्ति माना गया है। मुक्तिबोध मुगल काल के जमींदार और किसान के अन्तर्विरोधों को देख ही नहीं पाते, जिसकी ओर इरफान हबीब ने ध्यान खींचा है। किसान विद्रोह मध्यकाल में बड़े पैमाने पर हुए जिनका हमारे साहित्यिक उत्पादन के साथ गहरा संबंध है। यह गलत है कि साहित्य में किसान को पहलीबार प्रेमचंद ने प्रतिष्ठित किया बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि साहित्य में किसान पहलीबार भक्ति आंदोलन में दाखिल होता है।

उत्तरभारत में सतनामियों का संघर्ष सन् 1627 में विद्रोह के रूप में फूटता है।यह पहला किसान विद्रोह है जो अपने को भक्ति आंदोलन से सीधे जोड़ता है। दूसरा सवाल उठता है कि क्या किसी भी कृति को खासकर मध्यकालीन कृति को जाति विशेष या वर्ण-विशेष से जोड़ना सही होगा। इससे भी बड़ा सवाल है कि क्या कृति का जाति से संबंध होता है? क्या काव्यधारा को सवर्ण या निम्नपर्ण से जोड़ा जा सकता है? क्या सृजन को जाति से जोड़ा जा सकता है? क्या चरित्रों की जाति अथवा सामाजिक हैसियत अथवा विचारों के आधार उसे जाति विशेष के साथ नत्थी किया जा सकता है ?जी नहीं, कृति, फिनोमिना, प्रवृत्ति का जाति या वर्ण या धर्म से रिश्ता नहीं होता। कृति की समाज सापेक्ष और प्राचीनकृतियों (महाकाव्य)की समाज निरपेक्ष दुनिया रही है। कबीर के निर्गुण पंथ में सिर्फ अन्त्यज की नहीं थे बल्कि उच्चवर्ण के कवि भी थे, उसी तरह सगुणभक्ति में सिर्फ सवर्ण ही नहीं थे बल्कि अन्त्यज और गरीब तबके के लोग भी थे। मुक्तिबोध के मत से जो लोग सहमत हैं वे इस पहलु पर भी सोचें कि क्या सगुण भक्ति को उसके पारंपरिक होने के कारण सफलता मिली थी? क्या उसकी सफलता का कारण यह है कि उसने ब्राह्मणों के खिलाफ कम शत्रुता पैदा की? यदि ऐसा ही था तो पंजाब के जाट काश्तकार सिखधर्म के झंडे तले क्यों इकट्ठा हुए? जबकि मथुरा-आगरा के जाट काश्तकार ‘सगुण भक्ति’ से जुड़े थे और इनमें से अधिकांश अपनी आजीविका,बीज और पशुओं के लिए कर्ज में डूबे हुए थे।

रामचरित मानस के संदर्भ में पहली समस्या यह है कि मानस के जितने भी मूल्यांकन हैं वे महाकाव्य के रूप में उसकी अंतर्वस्तु के विवेचन तक ही सीमित हैं। जबकि महाकाव्य की विधागत विशेषताओं की इस प्रसंग में पूरी तरह अनदेखी हुई है। इस प्रसंग में पहला सवाल यही उठता है कि क्या किसी कृति की एक ही किस्म की आलोचना परंपरा हो सकती है? क्या ऐतिहासिक पाठ अथवा एपिक पाठ का इकहरा मूल्यांकन संभव है? क्या एपिक के रूप में मानस सिर्फ आध्यात्मिक कृति है?

रामभक्ति में डूबे लोगों के लिए रामचरित मानस सब रोगों की दवा है। दुखों के विरेचन का महाख्यान है। कथावाचकों के लिए वक्तृत्व-कला का सबसे बड़ा स्रोत है। मासकल्चर के कारखाने फिल्म और टीवी उद्योग का रामचरित मानस कंठ-हार है। समय-समय पर राम-कथा पर केन्द्रित हिन्दी फिल्में और धारावाहिक आते रहे हैं, इनके प्रसारण से रामायण की कृति के रूप में खपत बढ़ी है, पाठक, दर्शक और श्रोता बढ़े हैं, मानस आज शब्द के रूप में ही नहीं दृश्य और श्रव्य मीडिया में भी बेहद जनप्रिय है।इसके कारण समय-समय पर बाजार में छाई मंदी को दूर करने में भी मदद मिली है, उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री में इजाफा हुआ है।हम यह भी कह सकते हैं कि महाकाव्य कृतियां आज भी बाजार को चंगा बनाए रखने का सबसे बड़ा प्रेरक तत्व हैं। उनकी प्रतिष्ठा आज भी सबसे ज्यादा है। उन्हें सांस्कृतिक माल के रूप में ज्यादा स्वीकृति प्राप्त है। तुलसी को जितनी जनप्रियता आधुनिक काल में मिली, ”रामचरित मानस” की जितनी बिक्री आधुनिक काल में हुई, रामकथा का जितना प्रसार आधुनिक काल में हुआ, उतना मध्यकाल में भी नहीं हुआ।

हिन्दी का साहित्य जगत ”रामचरित मानस” को साहित्यिक कृति बनाने के लिए कठोर परिश्रम कर रहा था, उसके लिए आभामंडल तैयार करने का काम कर रहा था, तो दूसरी ओर मीडिया ने अपने तरीके से रामकथा और रामचरित मानस का प्रसार किया, इससे साहित्यकारों के द्वारा बनाया गया आभामंडल छार-छार होकर रह गया। आधुनिक मीडिया तकनीक ने छापे की मशीन के आने के साथ मानस को पोथी के दायरे से बाहर निकालकर किताब के रूप में प्रतिष्ठित किया, ”रामचरित मानस” को लोक-साहित्य के दायरे से निकालकर साहित्य के दायरे में प्रतिष्ठित किया, फिल्म, रेडियो, टीवी और ऑडियो उद्योग ने उसे मासकल्चर के क्षेत्र में प्रतिष्ठा दिलायी। आज स्थिति यह है कि ‘रामचरित मानस’ लोक-साहित्य से लेकर मासकल्चर तक समान रूप से स्वीकृत और प्रतिष्ठित पाठ है। इसके कारण मानस का पापुलर पाठ के रूप में ग्रहण और आस्वाद बढ़ा है। इसके अलावा रामलीला, नाटक और कथावाचकों की परंपरा ने भी इसे जनप्रिय पाठ के रूप में इस्तेमाल किया है।

-जगदीश्‍वर चतुर्वेदी