रंगोली बिना सुनी है हर घर की दीपावली

                                   आत्माराम यादव पीव  

दीपावली पर रंगोली के बिना घर आँगन सुना समझा जाता है। जब रंगोली सज जाती है तब उस रंगोली के बीच तेल- घी का दीपक अंधकार को मिटाता एक संदेश देता है वही आज रंगोली के बीच पटाखे छोडने को लोग शुभ मानते है । पौराणिक या प्राचीन इतिहास मे मनुष्य ने लोक कलाओ की अभिव्यक्ति  रंगोली का कब प्रयोग किया इसका उदाहरण देखने को नही मिलता किन्तु भोगोलिक दृष्टि से लोक संस्कृति मे मांगलिक आयोजनो के अवसर पर मालवा में लोक चित्रावन के जरिये लोग अपने घर आँगन मे लीप पौत कर रंगोली सजाकर अपने घर का सूनापन दूर करने मे दक्ष थे। लोकजीवन सहल सुलभ साधनों और रंग उपकरणों द्वारा जीवन की गहन एवं विविध अनुभूतियों को अप्रतिम कल्पना शक्ति एवं सर्जनात्मक ऊर्जा से रूपंकर कलाओं में अभिव्यक्त करता रहा है जिसे  मालवी लोकचित्रावण के व्यापक फलक में समाहित किया गया हैं- रंगोली, अल्पना, मांडणा, भित्तचित्रा, मेंहदीकला, भित्ति अलंकरण कला(म्युरल), गुदनाकृति, वस्त्राचित्रा(छीपाकला) आदि ऐसी प्राचीनतम कला इसका प्रमाण है ओर यही कारण है कि बोलचाल में मांडणा शब्द ही मालवी लोकचित्रावण का पर्याय बन चुका है। धार्मिक आनुष्ठानिक अवसरों, सामाजिक आयोजनों और सांस्कृतिक पर्व त्यौहारों पर लोक चित्रावण के साथ गीत, नृत्य, कथा, संगीत आदि लोक तत्वों का भी समावेश रहता है। यह कला कर्म चाहे एक सधे हाथ का प्रतिफल हो, किन्तु उसमें परिवार व समाज के अन्य सदस्यों की कलात्मक अभिरूचि एवं क्रियात्मक सहभागिता भी महत्वपूर्ण होती है। लोक चित्रावण की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं दी जाती। यह लोककला विरासत के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी पनपती विकसित और समृद्ध होती हुई जन जीवन का अभिन्न अंग बनी हुई है।

            दीपावली के समय मालवा की यह रंगोली कला का विस्तार देखते देखते एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश की सीमाओ को लांघता हुआ पूरे देश का हिस्सा बन गया है ओर लोग कोई भी मांगलिक पर्व हो या घर मे खुशियो का दिन हो उस दिन घर की बेटियाँ, बहुए सहित परिवार की महिलाए अपने घर-आँगन को अच्छी तरह बुहारकर, गोबर से लीपकर और सुखाकर कई डिब्बों मे सँजोकर रखी गई विभिन्न रंगो की रंगोली से रांगोली बनाती हैं। जो अपने घरो मे विशेष आकार-प्रकार की रांगोली बनाती है पहले वे उसके अनुसार बनने वाली कला, चित्र या आकृति के लिए बिंदकी डालती है फिर एक एक बिंदकी के सिरों को मिलाकर लकीर पूरी करके आकृति बनाते हैं। फिर उसे रंग बिरंगे पावडर रंगों के भरकर सुंदर रांगोली की संरचना करतें हैं। जैसे कोई पुष्प ,कोई देवता या देवी या बेलपत्ती बनाना हो या फूल बनाना हो तो पहले गिनकर बिंदिया डालते हैं और उन्हें मिलाकर लकीरें बनाते हैं। पत्तियों में हरा रंग और फूल पंखुरियों में लाल अथवा गुलाबी रंग भरते हैं। सिन्दूरी रंग से स्वस्तिक बनाते हैं। प्रतिदिन घर की द्वार-देहरी पर बनाई जाने वाली रांगोली आकार प्रकार में छोटी होती है और बार-त्यौहार पर वृहद और विविधताए लिए होती है जो मोहक होती है, जो जितनी सुंदर आकर्षक हो उस रंगोली को बनाने मे उतना ही समय लगता है इसलिए देखा गया है की एक रंगोली को बनाने के लिए अनेक युवतिया, बच्चे लगे रहते है।

      आजकल बाजारों में रांगोली बनाने के लिए विविध आकृतियों के सांचे और तरह-तरह के रंगीन पावडर आदि सामग्री सहज उपलब्ध हैं। इसके बावजूद इस पारम्परिक लोक कलाकर्म के प्रति मालवा की नई पीढ़ी का रूझान धीरे-धीरे घटना चिन्ताजनक है। जबकि दक्षिण भारतीय राज्यों, बंगाल और महाराष्ट्र में, मध्यप्रदेश ,उत्तरप्रदेश सहित राजस्थान ओर गुजरात मे यह लोककला कहीं अधिक व्यापक आधार बनाये हुए हैं। यह सुखद ही कहा जा सकता है की इस पर्व पर रंगोली की आपूर्ति करने के लिए पूरे देश मे कुछ समय के लिए हजारो लोगो को रोजगार भी मिल जाता है ओर अब हर शहर गाँव के बाजारो में इन रंगोली की सजी सेकड़ों दुकानों को देख सकते है । रंगोली कला मालवा के लोकजीवन में कलात्मक सौन्दर्य बोध की अभिव्यक्ति का सशक्त आधार बनी हुई है। पर्व-त्यौहारों विशेषकर दीपावली के अवसर पर मांडणा कला की बहार देखते ही बनती हैं।

      हर साल दीपावली आते ही देश के सभी गांवों और शहरों के कच्चे-पक्के घर-आँगन रांगोली और मांडणों से सुसज्जित हो उठतें हैं। मांडणा मांडने के लिए सफेद आज एक से एक रंग आ गए है कई कंपनियो को करोड़ो का कारोवार इन्ही रंगो से होता है लेकिन सदियों से इस व्यापार पर आज भी चूना , खड़िया मिट्टी और गेरू एसजे व्यापार कम नही हुआ है ओर जहा ग्रामीण लोग आज भी इन्हे पसंद करते है वही शहरो मे पुराने लोग भी चूना ओर खड़िया मिट्टी को गलाकर एवं अच्छी तरह गाढ़ा बनाकर और फिर एक काड़ी में रूई लपेटकर मांडणा आकृतियां  बनाते हैं। गांवो में आज भी लोगों के घर बड़े बड़े आँगन है जो घर की महिलाओ के हाथों का अद्भूत कौशल और रचनात्मक प्रतिभा की बानगियां के साक्षी बनते है तथा शहरो मे आँगन के अभाव मे लोग अपने घर के द्वार पर ही  इन मांडणा आकृतियों को बनाकर खुश होते है। यदि मांडणों की बाहरी रेखाएं श्वेत रंग की होती हैं, तो भीतरी भाग का भराव गेरूए चित्रों से किया जाता हैं। दीपावली की खुसिया मे अनेक लोग अपने घरो के अंदर भी पुजा स्थान पर रंगोली सजाते है। दीपावली के बाद आने वाली एकादशी जो देवउठनी कहलाती है उसे दिन भी लोग अपनी  देहरी पर पांव की आकृति गीले चूने और खड़िया मिट्टी से बनाते है आंगल ओर आँगन की पददिया को सजाया जाता है। एक पखवाड़े तक लोग दीपावली से गोवर्धन पुजा सहित देवउठनी एकादशी तक रोज रांगोली सजा कर अपनी खुशी का इजहार करते है । रांगोली प्रतिदिन बनती है और मिट जाती है। मांडणा कला जीवन के उल्लास, उमंग की प्रतीक हैं। पर्यावरण स्वच्छता और सौन्दर्य बोध की चेतना किरण को लोक जीवन में सदियों से कायम रखने में मालवा की मांडणा कला का अनूठा योगदान है जो देशवासियो को आल्हादित करता है।

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