—विनय कुमार विनायक
हे भाई! उम्मीद नहीं कर उम्मीद नहीं कर
हे भाई! दूसरों से कुछ भी उम्मीद नहीं कर
बहुत अधिक दुख होता है उम्मीद टूटने पर,
मगर दूसरों की उम्मीद पर सदा खरा उतर!
हे भाई! उम्मीद नहीं कर उम्मीद नहीं कर
हे भाई! धोखा मिलता है उम्मीद पालने पर
दूसरों की उम्मीद पर जीवन जीना है दूभर
मानव प्रयत्न कर खुद हो जाएँ आत्मनिर्भर!
हे भाई! उम्मीद नहीं कर उम्मीद नहीं कर
हे भाई! उम्मीद टूट जाने पर गुस्सा न कर
अब सारे सगे सम्बंधी मतलबी होते अक्सर
नाउम्मीद होकर जीना है आनंदप्रद सुखकर!
इंसान होकर इंसानियत की हमेशा कद्र कर
मानव हो जीओ घृणा द्वेष से ऊपर उठकर
हे भाई! सच्चाई की राह पर चलना डटकर
स्वाभिमान से जीओ बनो ज्ञानी गुरु रहबर!
किसी मनुष्य से कभी कोई अपेक्षा ना कर
किसी मनुष्य की कभी भी उपेक्षा मत कर
अपेक्षा और उपेक्षा से जीवन होता है दुस्तर
जीओ जीवन उदासीन साधु संत सा बनकर!
हाँ में हाँ मिलाओ तो तुम बने रहोगे बेहतर
मगर नहीं कहनेवाले हो जाते हैं शीघ्र बदतर
हे बंधुवर! देखो एकबार किसी को नकार कर
रिश्तेदारी टूट जाएगी चुटकी बजाते क्षण भर!
हे भाई! कभी किसी की आलोचना नहीं कर
और ना किसी के आलोचना करने पर बिफर
दूसरे से आलोचना सुन अपने में सुधार कर
कहने वाले फिर भी कहेंगे दंभी घमंडी पामर!
सगे भाई बहन भी धोखा देते ऐन वक्त पर
बचपन में इठलाते थे जिसे गोद में खेलाकर
वो यौवन में बैरी भार्या के बहकावे में आकर
पितृसम अग्रज को भी अनुज चुभाते नश्तर!
मैंने उस अनाथ भाई को मरते देखा कलपकर
जिसने छोटे भाई को पढ़ाया खुद हल जोतकर
उसे लात मार भगाया घर से काबिल होने पर
काका खुश है भतीजे का बपौती घर हड़प कर!
ये हस्र क्यों भाई का?क्योंकि खुद पढ़ाई छोड़कर
उसने सुनहरा भावी ख्वाब देखा भाई को पढ़ाकर
खुद पढ़कर भाई को पढ़ाते तब होता जीवन उर्वर
जग को विज्ञ करना क्या उचित खुद अज्ञ रहकर?
प्रश्न जटिल है हल जोतनेवाले का हल नहीं पक्षधर
हल जोत जग को खिलाए जो वो भले हो देव अमर
पर उसे भोले शंकर सा जहर पीना पड़ता जीवन भर
जिसे ज्ञान दिया अंत में वो नहीं आते कफन लेकर!
ना किसी की कृपा लो नहीं किसी पर अति कृपा कर
किसी से उम्मीद पाल कर कभी नेकी नहीं किया कर
नेकी कर दरिया में डाल मगर खुद को रख संभालकर
कर्तव्य करो सामर्थ्य भर तब होता गुजर बसर आदर!
आज अतिप्रबल है लोभ मोह ईर्षा द्वेष छल-छंद मत्सर
किसी को कुछ दान करें तो सोच विचार करें पात्रता पर
यह समय नहीं दधीचि सा छली इंद्र को दें अस्थि पंजर
साथी को साथ संगी को हाथ बेटे को दें भू धन बाँटकर!
भाई बहन एक हाड़-मांस के, एक दूसरे से रहें मिलकर
भाई-भाई का भय हर,कोख के साथी निश्छल प्यार कर
बहन बेटी मातृ रुप लेकर आई कभी नहीं तिरस्कार कर
सब अपने हिस्से का कर्तव्य करें मनुज का उद्धार कर!
क्या लेकर आए हो क्या लेकर जाओगे मनोमालिन्य कर
जो पाया है यहाँ आकर वो भी साथ ना जाएगा जाने पर
इस मर्त्य देह से अपनों से अपनापन निभाओ खुश होकर
सक्षम हो स्वार्थी न बन कोई साथ न देगा अक्षम होने पर!
—विनय कुमार विनायक