भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता जिस तरह से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए पैरवी की होड़ में लगे हैं, उसकी पृश्ठभूमि में मोदी की लोकप्रियता को भुनाने की कवायद नजर आती है। जबकि पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह लोकसभा चुनाव के करीब सवा साल पहले किसी चेहरे को सामने लाने में सकुचा रहा है। इसीलिए उन्होंने अनुशासन का हवाला देते हुए बयानबाजी पर संयम बरतने की हिदायत पार्टी नेताओं को दी है। लेकिन इस हिदायत को चुनौती देते हुए पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा बिहार के पूर्व भाजपा अध्यक्ष सीपी ठाकूर और सांसद शत्रुधन सिन्हा ने प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के तौर पर मोदी का नाम जनता के सामने रखने की मांग कर डाली। जाहिर है,जो नेता गठबंधन धर्म की खूबियों और खामियों से रूबरू हैं, वे भी मोदी का नाम पुरजोरी से उछाल रहे हैं। साफ है भाजपा में मोदी न केवल लोकप्रियता के शिखर पर है, बलिक उनकी स्वीकार्यता भी निरंतर बढ़ रही है। भाजपार्इ शिवसेना और अकाली दल का राजग गठबंधन से साथ छोड़ देने की भी चिंता नहीं कर रहे हैं। दूसरी तरफ मोदी को संघ और संत समाज का भी प्रबल और मुखर समर्थन मिलता दिखार्इ दे रहा है। जयपुर चिंतन शिविर में राहुल गांधी को सोनीया गांधी के बाद दूसरे प्रमुख नेता की हैसियत से नवाज दिए जाने के बावजूद युवाओं में उनके प्रति उत्साहजनक रूझान दिखार्इ नहीं दे रहा है। ऐसे अनुकूल माहौल में मोदी की लोकप्रियता को भाजपार्इ भुनाना चाहते हैं तो इसमें गलत क्या है ?
वैसे तो लोकसभा चुनाव के सवा-डेढ़ साल पहले किसी भी दल में बतौर प्रधानमंत्री किसी नेता का चेहरा सामने लाना कोर्इ तार्किक बात नहीं है। इस बाबत शरद यादव ने ठीक ही कहा है कि प्रधानमंत्री पद को लेकर इस तरह की जल्दबाजी या दीवानापन ठीक नहीं है। इसके बजाए भ्रष्टाचार, बेरोजगरी व एफडीआर्इ जैसे मुददों पर कारगर बहस होनी चाहिए। दरअसल खासतौर से इलेक्ट्र्रोनिक मीडिया राजनीति में असमय गैर जरूरी तलाश की प्रवृति को पनपाने व उकसाने का काम कर रहा है। संभव है समाचार चैनलों को राहुल बनाम मोदी की प्रधानमंत्री पद से जुड़ी बहसें टीआरपी अच्छी दे रही हों ? लेकिन चेनलों को यहां यह भी गौर करने की जरूरत है कि लोकसभा चुनाव से पहले इसी फरवरी माह में पूर्वोत्तर के चार राज्यों और फिर अक्टूबर-नबंवर में कर्नाटक, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं, मीडिया इनकी भी खोज- खबर ले?यदि शीला दिक्षित वापिस होती हैं तो यह उनकी लगातर चौथी जीत होगी। तब वे क्यों नहीं कांगे्रस बनाम संप्रग गठबंधन की प्रधानमंत्री हो सकती? मघ्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहन और छत्तीसगढ़ रमण सिंह तीसरी पारी खेलने में कामयाब होते हैं तो वे क्यों नही नरेंद्र मोदी की जगह ले सकते ? किंतु हकीकत यह है कि मीडिया ने मोदी से जुड़े प्रत्यक्ष – अप्रत्यक्ष हर विवाद को बहस का मुददा बनाकर उनकी छवि के दो रूप गढ़ दिए। एक कि मोदी संप्रदायिक हैं और प्रखर हिंदुत्व उनका प्रमुख अजेंडा है। दूसरे, मोदी विकास पुरूष हैं और गुजरात युवाओं को रोजगार देने की बड़ी आधार भूमि बन रही है। टाटा द्वारा गुजरात में नेनौ कार का कारखाना लगाना और मोदी ने चुनाव में अपनी दम पर लगातार तीसरी पारी खेलकर उन पर जो गोधरा का कलंक लगा था,उसे रसातल में पहुंचा दिया। अब वही मोदी हैं और वही समाचार चैनल हैं जो एक समय उनकी कटटर सांप्रदायिक छवि गढ़ रहे थे,किंतु अब तुलनात्मक दृशिट से सर्वश्रेश्ठ प्रधानमंत्री होने की छवि रच रहे हैं। ऐसे में यदि भाजपा या उसके चरित्र के अन्य सहयोगी संगठन, मोदी की लोकप्रियता को भुनाने की कवायद में लग गए हैं तो इस मुददे को गैर जरूरी मानकर क्यों हाशिए पर धकेला जाए ? मोदी का रास्ता प्रषस्त करने का काम तो मीडिया ही कर रहा है। भाजपा, संघ,विहिप,बंजरग दल और अन्य साधु समाज तो मीडिया की प्रधानमंत्री पद के लिए की खोज से महज कदमताल मिलाने का काम कर रहे हैं।
मोदी को घोर सांप्रदायिक और मौत का सौदागार प्रचारित किए जाने के बावजूद जनता उन्हें लगातार चुन रही है,तो जाहिर है गुजरात की छह करोड़ जनता न तो उन्हें साप्रदायिक मानती है और न ही मौत का सौदागार। राजनाथ सिंह के अघ्यक्ष बनने के बाद यह मोदी के व्यकितत्व का ही मूल्याकंन और उससे उपजी अभिप्रेरणा है कि राजनाथ सिंह ने संघ और विहिप के नेताओं के साथ बैठक की और बाहर निकलकार पत्रकारों से बोले कि भाजपा को हिंदुत्व तथा राम मंदिर के मुददे से अलग करके नहीं देखा जा सकता। राजनाथ सिंह की यह दिशा भी है, दृशिट भी और दृढ़ता भी, जो नितिन गड़कारी में नहीं थी। राजनाथ यदि हिंदुत्व और राम मंदिर के साथ रोजगार, विकास और भ्रष्टाचार से मुकित के उपाय का अजेंडा जोड़ने में कामयाब हो जाते हैं तो सांसदों की सबसे ज्यादा संख्या भाजपा की झोली में होगी। यह मंदिर मुददा ही था, जिसकी लहर पर सवार होकर भाजपा ने लोकसभा में अपने सांसदों की संख्या 2 से बढ़ाकर 89, फिर 110 और बाद में 150 तक पहुंचार्इ और फिर केंद्र में गठबंधन की सरकार भी चलार्इ। हालांकि भाजपा ने पिछले हरेक लोकसभा चुनाव के घोषणा-पत्र में राम मंदिर निर्माण का मुददा शामिल रखा है, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली, क्योंकि उसमें सुशासन, विकास और रोजगार के मुददों को गुजरात की तरह अहमियत नहीं दी गर्इ थी। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को महज 18.8 प्रतिषत मत मिले थे, जबकि कांग्रेस ने 28.5 फीसदी वोट हासिल किए थे। वोट के करीब 10 फीसदी के इस अंतर को विकास का कोर्इ विष्वसनीय अजेंडा शामिल किए बिना पाटना नामुमकिन है। भाजपा को यह अंतर पाटना, मौजूदा दौर में इसलिए भी संभव है, क्योंकि कांग्रेस गठबंधन इस समय मंहगार्इ और भ्रष्टाचार के महान संकटों से घिरा है और चुनाव आने तक इन संकटों से वह उबर पाएगा, यह संकेत राहुल गांधी के पार्टी में नंबर-दो हो जाने पर भी नहीं मिल रहे हैं।
मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रुप में पेश करने में भाजपा के सामने सबसे बड़ा संकट राजग गठबंधन बिखरने का है। क्योंकि मोदी का चेहरा सामने आते ही जद अलग होने की पहल कर सकता है। अभी तक राजग सुशासन बनाम भ्रष्टाचार के अजेंडे को लेकर एक गांठ में बंधे हैं। अकाली दल भी इसी अजेंडे के साथ है। हालांकि गठबंधन की राजनीति में घटक दलों की आवाजाही बनी रहती है। बीजद, तृणमूल कांग्रेस, तेलुगुदेषम, बसपा और सपा भी भाजपा गठबंधन के सहयोगी रहे हैं। इसलिए यदि केंद्र में राजग की संभावनाएं प्रबल होती हैं और एकाध घटक दल छिटकता है, तो चार के आने की उम्मीद भी बनी रहती है लिहाजा भाजपा को लगता है कि नरेंद्र मोदी ही श्रेष्ठ नेतृत्व देकर राजग गठबंधन की वैतरणी पार लगा सकते हैं तो भावी प्रधानमंत्री के रुप मोदी का नाम आगे लाने में उसे झिझकने की जरुरत नहीं है। राजनाथ जिस तरह से अपनी पिछली गलतियों से सबक लेकर फूंक-फूंक कर कदम बढ़ा रहे हैं, कमोबेश उसी तर्ज पर मोदी को आगे बढ़ने की जरुरत है। अच्छा हो, यदि मोदी अटल बिहारी वाजपेयी के विचार, आचरण और समावेशी चरित्र की खूबियों को अपने अंतर में आत्मसात कर लें। यदि वे अटल-शैली को अपना लेते हैं तो राजग गठबंधन भी अंतत: उन्हें अपना लेगा। क्योंकि सत्ता का मोह सभी राजग घटक दलों को लुभा रहा है और मोदी को मीडिया ने इतना महिमामंडित कर दिया है कि जैसे सत्ता के द्वार खोल देने की चाबी उन्हीं के हाथों में है।