चरमपंथी अपने हितों के लिए पवित्र धार्मिक ग्रंथों की तोड़-मरोड़ कर करते हैं व्याख्या

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गौतम चौधरी 

किसी भी आस्था के साथ खिलवाड़ किया जा सकता है। यह आसान है और इसे करना कठिन नहीं है। धर्म मानवता को संमृद्ध करने और समाज को आगे बढ़ाने के लिए काम करने वाला चिंतन है लेकिन इसी चिंतन को कभी-कभी चरमपंथी अपने हितों के लिए उपयोग करने लगते हैं। यह किसी भी आस्था और धर्म के साथ हो सकता है। चूंकि इस्लाम रेगिस्तान में विकसित होने वाला चिंतन है, इसलिए इसमें आसानी से चरमपंथी गुट प्रवेश कर जाते हैं और पवित्र धार्मिक ग्रंथों की अपने अनुसार व्याख्या कर उसका दुरूपयोग करने लगते हैं। लंबे समय से इस्लाम के पवित्र ग्रंथों की कुछ चुनिंदा आयतों को हिंसा और नफ़रत को सही ठहराने के लिए उद्धृत किया जा रहा है। ये वो लोग नहीं कर रहे हैं, जो इस्लाम के सच्चे सिपाही हैं अपितु वो कर रहे हैं जिनका अपना एक एजेंडा और स्वार्थ है। पवित्र ग्रंथ में एक स्थान पर यह कहा गया है कि ‘‘उन्हें मार डालो, जहाँ कहीं भी पाओ,’’ स्वार्थी तत्व,  इस्लाम की पवित्र किताब को अंधाधुंध आक्रामकता का समर्थन करती हुई दिखाते हैं। वास्तव में मुख्यधारा के इस्लामी विद्वान बिल्कुल इसके अलग व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। वही आयतें जब संदर्भ में समझी जाती हैं तो वे आत्मरक्षा, न्याय और दया पर बल देती हैं, न कि असीमित हिंसा पर। समस्या साफ़ है। चरमपंथी पवित्र ग्रंथों के पाठ का दुरुपयोग करते हैं जबकि इस्लाम के असली विद्वानों की सावधानीपूर्वक व्याख्या उनकी सोच को पूरी तरह खारिज कर देती है।

अल्लाह के द्वारा प्रदत आसमानी पवित्र आसमानी ग्रंथ की कई आयतें निःसंदेह रूप से युद्ध का ज़िक्र करती हैं लेकिन वे इस्लाम के शुरुआती दौर की विशेष रक्षात्मक लड़ाइयों से जुड़ी हैं, न कि हिंसा की खुली छूट से। इसका प्रमुख उदाहरण है सूरह 9, आयत 5, जिसे अक्सर ‘‘तलवार की आयत’’ कहा जाता है। ‘‘जब हराम महीने बीत जाएँ, तो मुशरिकों को जहाँ पाओ, क़त्ल करो,’’ सतही तौर पर यह आयत डरावनी लग सकती है। उग्रवादी इसका हवाला देकर दावा करते हैं कि मुसलमानों को परम सत्ता की ओर से सब गैर-मुसलमानों को मारने का आदेश है लेकिन विद्वानों का कहना है कि क़ुरआन 9-5 दरअसल 7वीं सदी के एक विशेष संघर्ष से संबंधित है। यह उन अरब मुशरिकों (मक्का के बहुदेववादियों) के बारे में उतरी जिन्होंने संधि तोड़ी और मुसलमानों पर हमला किया, यानी यह आदेश सिर्फ़ उन्हीं गद्दार दुश्मनों के ख़िलाफ़ था न कि सभी गैर-मुसलमानों पर यह लागू होता है। यहाँ तक कि पवित्र ग्रंथ ने युद्ध से पहले उन्हें चार महीने का समय दिया ताकि वे हमले बंद कर दें और जब युद्ध अपरिहार्य हो गया, तब भी 9-5 अंत में कहता है कि अगर वे तौबा कर लें तो उन्हें जाने दो। अगली ही आयत, 9-6, आदेश देती है कि जो दुश्मन शरण या सुलह चाहता है, उसे सुरक्षा दो और सुरक्षित जगह तक पहुँचाओ। इन विवरणों से साफ़ है कि क़ुरआन ने कभी अंधाधुंध हत्या का समर्थन नहीं किया बल्कि विद्वानों के अनुसार यह आदेश सिर्फ़ गद्दार और हमलावरों तक सीमित था। चरमपंथियों के द्वारा फैलाये गए झूठ से पवित्र ग्रंथ सकारात्मक व्याख्या से वंचित  हो जाता  है। ऐसा कभी संभव ही नहीं है कि सार्वभौमिक सत्ता किसी असहमति रखने वाले अच्छे व्यक्ति की हत्या का आदेश पारित करे। 

यह एक व्यापक सिद्धांत को दर्शाता है। इस्लाम के पवित्र ग्रंथ केवल आत्मरक्षा या स्पष्ट उत्पीड़न के ख़िलाफ़ लड़ाई की अनुमति देता है न कि आक्रामक युद्ध की। स्पष्ट तौर पर कहा गया है। ‘‘अल्लाह की राह में उनसे लड़ो जो तुमसे लड़ते हैं लेकिन हद से न बढ़ो; निस्संदेह, अल्लाह हद से बढ़ने वालों को पसंद नहीं करता’’ (पवित्र ग्रंथ का हिन्दी रूपांतरण)। शुरुआती मुसलमानों को केवल तब हथियार उठाने की अनुमति मिली जब वे वर्षों तक उत्पीड़न और निर्वासन झेल चुके थे। पहली आयत (22-39) में कहा गया-‘‘लड़ने की अनुमति उन्हें दी गई है जिन पर ज़ुल्म हुआ है।’’ इस्लामी शिक्षाएँ युद्ध में भी कड़े आचरण पर ज़ोर देती हैं। मसलन, निहत्थों, औरतों, बच्चों या संपत्ति को नुकसान पहुँचाना मना है। संक्षेप में, पवित्र ग्रंथ की यही व्याख्या है कि तथाकथित ‘‘युद्ध आयतें’’ सिर्फ़ विशेष परिस्थितियों में रक्षात्मक युद्ध से संबंधित हैं।

उग्रवादी न केवल युद्ध की आयतों को तोड़ते-मरोड़ते हैं बल्कि गैर-मुसलमानों से संबंधों पर आधारित आयतों की भी अपने तरीके से व्याख्या कर लेते हैं। आमतौर पर एक ऐसी आयत है जिसका चरमपंथी खूब दुरूपयोग करते हैं। पवित्र ग्रंथ की व्याख्या 5-51, ‘‘ऐ ईमान वालो! यहूदियों और ईसाइयों को दोस्त न बनाओ,’’ कट्टरपंथी और इस्लाम विरोधी दोनों ही इसे सब यहूदियों और ईसाइयों से नफ़रत का आदेश बताते हैं जबकि असल में यह गलतफहमी एक शब्द पर आधारित है। ‘‘औलिया’’ का अर्थ साधारण मित्र नहीं बल्कि राजनीतिक/सैन्य संरक्षक या सहयोगी है। क्लासिकल तफ़्सीर बताती है कि यह आयत मदीना के एक मुस्लिम नेता (अब्दुल्लाह बिन उबय्य) के बारे में उतरी गयी थी, जिसने एक यहूदी क़बीले (बनू कैनुक़ा) के साथ मिलकर मुसलमानों के ख़िलाफ़ ग़द्दारी की थी। इस आयत का उद्देश्य सिर्फ़ ऐसे गद्दारों को संरक्षक न बनाने की चेतावनी देना था न कि सामान्य यहूदियों और ईसाइयों से दोस्ती करने पर रोक की बात करता है। वास्तविकता तो यह है कि पवित्र ग्रंथ में कुछ ऐसी भी आयतें हैं जो ईसाइयों की न्यायप्रियता की प्रशंसा करती हैं और अन्य जगह पर गैर-मुसलमानों के साथ न्याय और भलाई करने की अनुमति देती हैं । 

इसी तरह क़ुरआन 60-1 का दुरुपयोग भी होता है, जिसमें कहा गया कि ‘‘अल्लाह के दुश्मनों से दोस्ती मत करो।’’ इस आयत से ‘‘वाला-बर्रा’’ जैसी चरमपंथी विचारधारा निकाली गई कि मुसलमानों को सभी गैर-मुसलमानों से नफ़रत करनी चाहिए लेकिन संदर्भ साफ़ है-यह आयत उन मक्कावालों के बारे में उतरी थी जो युद्धरत दुश्मन थे न कि आम गैर-मुसलमानों के बारे में। उसी सूरह (60) में आगे कहा गया कि जो गैर-मुसलमान तुमसे नहीं लड़ते, उनके साथ इंसाफ़ और नेकी करो। पैग़म्बर मुहम्मद साहब ने भी कई गैर-मुसलमानों से दोस्ताना और सम्मानजनक संबंध रखे। ऐतिहासिक रिकार्ड बताते हैं कि उनके यहूदी मित्र भी थे। यह इस बात का सबूत है कि गैर-मुसलमानों से मित्रता इस्लामी सिद्धांतों के अनुरूप है।

ये सभी उदाहरण एक सरल सच्चाई दिखाते हैं। आयतों को समझने में संदर्भ बहुत अहम है। इस्लामी विद्वान सर्वसम्मति से कहते हैं कि इस्लाम के पवित्र ग्रंथों को ऐतिहासिक परिस्थिति और उसकी मूल शिक्षाओं के आलोक में पढ़ना चाहिए। उग्रवादी संदर्भ काटकर हिंसा का नैरेटिव गढ़ते हैं जबकि पवित्र ग्रंथ लगातार दया और न्याय पर बल देता है। यह कहता है-‘‘अगर वे शांति की ओर झुकें, तो तुम भी शांति की ओर झुको’’ (पवित्र ग्रंथ की हिन्दी व्याख्या 8-61) और ‘‘धर्म में कोई जबरदस्ती नहीं’’ (पवित्र ग्रंथ की हिन्दी व्याख्या 2-256)। अन्याय, ज़बरदस्ती और बेमतलब हिंसा की इसमें कोई जगह नहीं। आधुनिक इस्लामी विद्वान बार-बार दोहराते हैं कि आतंकवादी समूहों की हिंसा इस्लाम की शिक्षाओं से बहुत दूर है।

निष्कर्ष के तौर पर देखें तो बरेलवी संप्रदाय के इस्लामिक विद्वान, मुफ्ती तुफैल कादिरी साहब कहते हैं, वे आयतें जिनका हवाला उग्रवादी देते हैं, वास्तव में वह अर्थ नहीं रखतीं। जब हम पवित्र ग्रंथ को संदर्भ, भाषा और विद्वानों की व्याख्या के साथ पढ़ते हैं, तो स्पष्ट हो जाता है। इस्लामिक पवित्र ग्रंथ केवल अत्याचार के ख़िलाफ़ या आत्मरक्षा में लड़ाई की अनुमति देता है, शांति और माफी को प्राथमिकता देता है और युद्ध में भी नैतिक आचरण पर ज़ोर देता है। यह न तो गैर-मुसलमानों से नफ़रत सिखाता है और न ही निर्दोषों के ख़िलाफ़ हिंसा। 

गौतम चौधरी 

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