गोरे रंग का सौंदर्य शास्त्र औऱ विकृत मनोविज्ञान

डॉ अजय खेमरिया

क्या हमारी चमड़ी का रंग एक अति विशिष्ट मानसिकता को जन्म देता है मोटे तौर पर तो रंग का आपके कार्यव्यवहार,वयक्तित्व, सद्गुण, से कोई रिश्ता नही होता पर लोकाचार में आपकी चमड़ी का गोरा या कम गोरा होना बड़ा महत्व रखता है हम भारतीयों के बीच तो यह एक ग्रन्थि का निर्माण भी करता है। पिछले दिनों मेरे एक मित्र की बिटिया का वैवाहिक रिश्ता सिर्फ उसके कम गोरेपन के चलते नही हुआ,यह कहानी समाज के लगभग हर घर की है हम आये दिन इस गोरे काले रंग को लोकजीवन में हीनता अथवा रंगभेद के सबब के रुप में देखते सुनते रहते है। सच यह है कि हम आज भी लोकाचार में गौरी यानी अंग्रेजी मानसिकता से पीडित है हमारी समाज संरचना भले ही कितनी भी आधुनिक और उदार नजर आती हो लेकिन जमीनी सच यही है कि गोरी चमडी का आर्कषण हमारे मस्तिष्क में आज भी मजबूती से हमारी मानसिकता को अपनी जकडन में लिए हुए है। सच्चाई यह है कि हम सिर्फ सौन्दर्य खासकर नारी सौन्दर्य तक सीमित नही है सवाल समाज की सामूहिक रंग चेतना का है। आज झोपडी में रहने वाला भी अपने लिए गोरी कन्या की चाहत रखता है. आप वैवाहिक साइटो पर विज्ञापनो की भाषा को पढिए। कन्या तभी सुकन्या है जब वह गोरी हो। सुयोग्य मिलन (सुयेटेबिल मैच) गोरी कन्या की तलाश से पूरी होती है। यही मन: स्थिति कुछ कम अनुपात में सुयोग्य लडको की तलाश में देखी जाती है हॉ यदि लडका कमाऊ है और सरकारी अफसर है तो फिर गोरी लडकी की ख्वाहिशों का कोई अर्थ नही रह जाता है।
असल में हमारे लोक जीवन की बुनियादी धारणा सुंदरता के प्रति यही है कि गोरी चमडी सुंदरता की प्रधान शर्त है। हर सुंदर शख्स का गोरा होना जरूरी है यह प्रकृति विरूद्व सामाजिक मान्यता असल में सामाजिक से कही ज्यादा राजनीतिक है. गोरी चमडी कें अंग्रेजो ने इस पूरीं दुनिया पर करीब तीन सौ साल तक राज किया है या यूं कहिये दुनिया को गुलाम बना कर रखा है। गोरो के पास अकूत धन,ताकत और समृधि थी. इसलिए नारी सौन्दर्य की कसौटी गोरापन है। दुनिया भर के कवियो निबंधकारों की रूमानियत भरी रचनायें गोरी देह पर ही इसलिए केन्द्रित है क्योकि इन रचनाकारो की जीवनरेखा अधुनिक युग में गोरे शासन से ही चलती थी। इस गोरे वैषिष्टय को हमारे देश की सामजिक संरचना से भी वैश्विक ताकत मिली क्योकि भारत में गोरी चमडी या काले से कम रंग वाले लोग ऊंची जातियो में ही अधिक होते है ये ऊंची जातियां भारत में सदियो से समाज, संत, शासन, सबको नेतृत्व प्रधान करती रही है और काली त्वचा वाले अधिसंख्य भारतीयो के प्रति इनका लोकव्यवहार भेदभाव और छुआछुत मूलक रहा है। हमारे आंचल में प्रचलित एक कहावत से आप अंदाजा लगा सकते है कि त्चचा का रंग कितनी गहराई से हमारी मानसिकता में चलता है। वह कहावत है कि ‘काले ब्राहमण और गोरे शूद्र से बचकर रहना चाहिए। यानी ब्रहमण गलती से भी काला हो तो वह समाज व्यवस्था में स्वीकार्य नही है। लेकिन सवाल यह है कि जब दुनिया में कालों की संख्या ही सर्वाधिक है तो फिर सुंदरता के पैमाने पर काली महिलाओ को कहां रखा जाऐ? आज भी हम इस मानसिकता को व्यापक सामाजिक फलक पर बहस के लिए स्थापित करने में नाकाम रहें है लेकिन डॉ राम मनोहर लोहिया अक्सर जाति और वर्ण के खिलाफ इस मानसिकता को उजागर करतें रहतें थे। उनके आलेखो पर नजर दौडायें तो यही निष्कर्ष निकलकर आता है कि कम काले यानी भारतीय गोरे एक तरह से त्वचा के आधार पर ही अभिजात्य संवर्ग का प्रतिनिधित्व करतें है. और यह जैविक रूप से हम भारतीयो के मामले में सच भी है कि अभिजात्य समाज की त्वचा का रंग वैसा नही है जैसा कि दलित, पिछडो और आदिवासियों का है। सामाजिक रहन सहन, आवोहवा, खानपान के स्तर पर भी हमारा यह वर्ग चाहकर भी गोरी त्वचा बनाकर नहीं रख सकता है हॉं यह जरूर है कि लुटियंस की दिल्ली वाले सभी लोगो की त्वचा का रंग जरूर कुछ समय बाद ही बदल जाता है। शरद यादव दक्षिण के जिस नारी सौन्दर्य की चर्चा कर रहें थे असल में वह राजनीतिक अधिक थी। उनकी बात में सौन्दर्य और यौनिकता का भेद भी स्पष्ट नहीं हो पाया।
सवाल यह है कि वैश्विक परिदृष्य में गोरी हुकूमत का अवसान हुए सौ साल होने को आए है लेकिन गोरी त्वचा और उसमें समाहित स्वाभाविक विभेद के अहं को यह समग्र समाज आज भी नही मिटा पाया है दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बराक ओबामा भी पिछले दिनों भारत आकर स्वीकार कर चुके है कि वे स्यंम और उनकी पत्नी के परिजन रंगभेद का षिकार रहें है। विश्व सुंदरियो के क्लब में अपवाद स्वरूप ही काली महिलायें शामिल है बॉलीबुड से हॉलीबुड तक सब दूर गोरी त्वचा का जलबा बरकरार है।
हमारे उत्तर भारत के जीवन में काले लोग दक्षिण से आने वाले हमारे अधिक काले लोगो को कैसे देखते है? इसका अंदाजा लगाना व्यक्तिगत रूप से कठीन नही है। दिल्ली यूनिवर्सटी के छात्र संघ चुनाव में यदि छात्रा को अध्यक्ष बनाना है तो उसे गोरी सुंदरता धारी होना अनिवार्य है। यह अघोषित अर्हता है जिसे नारीवाद की दुकान चलाने वाले घुर वामपंथी/प्रगतिषील संगठन भी अपनाते है।
वस्तुत: तीन सौ साल तक मानव समाज पर राज करने वाली गोरी चमडी से जो मानसिकता वैश्विक स्तर पर स्थापित हो चुकी है उसे सौ साल समाज चिंतन से समाप्त होने के लिए काफी कम समय है। आशा की जानी चाहिए क अगले सौ साल में यह त्चचा के रंग पर अधारित भेदभाव की मानसिकता समाप्त हो जायेगी। तब तक डॉ लोहिया को याद किया जाता रहेगा यह भी सच है।

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