परिवारों में पनप रहा मायके का हस्तक्षेप

      

जिंदगी के अनुभवों से कई पेचिदा कहानियां फूटती हैं, जिन्हें समझने के लिए धैर्य की जरूरत होती है। ऐसी पेचीदा कहानियों से कई प्रश्न निकलते हैं और इन प्रश्नों के उत्तर कहानियों के अंत में स्वमेव मिल जाते हैं मगर इन्सान धैर्य खो देता है और कहानी समझ नहीं आ पाती।
हमारे सामाजिक एवं परिवारिक जीवन में आए दिन कई समस्याओं का आगमन और समाधान होता है। आगमन और समाधान दोनों ही मानव प्रदत्त हैं। आगमन सरल है मगर समाधान जटिल। आगमन मूर्खता का प्रतिफल है जबकि समाधान बौद्धिक क्षमता का परिणाम है।
महिला और पुरुष पति और पत्नी के रूप में परिवार के प्रमुख स्तंभ रहते हैं। रक्त संबंधित भाई-बहन, चाचा-ताया आदि परिवार की शाखाएँ हैं। दादा और पिता मूलबीज है, दादी और माँ धरती स्वरूप हैं। जैसे आम को बीजने से बबूल पैदा नहीं होता मगर यह धरती की तासीर और उर्वरा शक्ति पर निर्भर करता है कि नये वृक्ष की गुणवत्ता कैसी है? यह बात कपोल कल्पना नहीं अपितु वैज्ञानिक है।
अत: संस्कार वह उर्वरा शक्ति हैं, जो माँ से मिलते हैं  और माँ के संस्कार मायके से आते हैं। यहां यह स्थापित नहीं किया जा सकता कि परिवार की समस्याओं की जनक माँ अथवा महिला ही है लेकिन यह तो सत्य है कि बच्चों में परिवारबोध के एहसास का प्रकाशपुंज पिता या दादा की अपेक्षा माँ और दादी ही ज्यादा प्रज्वलित करती हैं। पिता और दादा प्रेरणा देते हैं, डाँटते और रोकते हैं ताकि परिवार के मानसिक, बौद्धिक और सुसंस्कृत सामाजिक विकास पर दुनियावी माया के तिलिस्म का काला साया न पड़े। ऐसे में जिस महिला के मायके के संस्कार और शिक्षा पतित है, उस महिला के ससुराल के पुरुषजन चाहे जितने भी योग्य या बौद्धिक क्यों न हों, वहां समस्याओं का आगमन निरंतर रहता है।
परिवार में माँ की महत्ता उसकी महत्ती भूमिका के कारण ही है। स्पष्ट है कि माँ, मायका और परिवार में बहुत गहरा संबंध है।
मगर परिवारिक जीवन की परिस्थितियों में आजकल एक नया मुद्दा उजागर हो रहा है। मैं कई समाचार पत्रों-पत्रिकाओं में ऐसे विषय देख चुका हूँ, सुन चुका हूँ, अनुभूत कर चुका हूँ जिनका लबोलुआब यह रहता है कि अक्सर जिन परिवारों में कलेशजनक समस्याओं का आगमन होता है वहाँ किसी न किसी रूप में मायके का अनावश्यक हस्तक्षेप प्रत्यक्ष कम मगर परोक्ष रूप में अधिकतर रहता है। परिवारिक जीवन का यह एक ऐसा पक्ष है जिस पर शायद ही समाज ने नजरसानी की हो।पुराने दिनों में जब लड़कियों का विवाह छोटी आयु में हो जाता था तब मायके के हस्तक्षेप की बात उठी है कहीं ? वर्तमान में लड़कियां बोधविहीन नहीं होती। वे मायके के अच्छे या बुरे संस्कारों से लैस होकर आती हैं। यदि किसी लड़के का बाप चोर-लुटेरा हो सकता है तो यह कैसे तय हो सकेगा कि लड़की का बाप भलामानस है? एक लड़का अपराधी हो सकता है तो लड़कियां भी तो हैं?
स्त्री अधिकारवाद के बढ़ते प्रभाव में मायके के हस्तक्षेप का मुद्दा हाशिए पर है। सोशल मीडिया पर मैंने कई स्थानों पर इस मुद्दे पर पोस्ट देखे हैं।
मेरी भी बहन है, मेरा परिवार भी मेरी बहनों-बेटियों का मायका है। हमें भी बहन से प्यार और अथाह लगाव है इसलिए आशा करता हूँ कि अन्यथा न लेते हुए समाज में सिर उठाती एक नई समस्या के प्रतिपादक बने। यहां ऐसे ही प्रतिपादन की आवश्यकता है जैसे हमने दहेज हत्या की समस्या को समझा है। दहेज हत्या को समाज दुरुपयोग की हद तक समझ गया है।
इस संदर्भ में ऋतु सारस्वत का 26 Aug 2019 का ‘अमर उजाला’ में प्रकाशित अपडेट्ड लेख के कुछ अंशों का अक्षरशः उद्धरण जरूरी हो जाता है। ऋतु लिखती हैं-
“……सवाल यह है कि दहेज निरोधक कानून का एकतरफा इस्तेमाल क्यों होता है। अदालतों में सिर्फ दहेज लेने के मामले ही क्यों पहुंचते हैं? जब 1961 में दहेज निरोधक कानून बना था, तब शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि इस कानून का इस सीमा तक दुरुपयोग होगा कि सर्वोच्च न्यायालय इसे ‘कानूनी आतंकवाद (जुलाई, 2005) की संज्ञा देगा। विधि आयोग ने अपनी 154वीं रिपोर्ट में स्वीकारा है कि आईपीसी की धारा 498ए के प्रावधानों का दुरुपयोग हो रहा है। ऐसा क्यों?
दरअसल संपूर्ण भारतीय समाज एक सामाजिक- सांस्कृतिक संक्रमण काल से गुजर रहा है। रिश्तों में, भौतिकता ने घुसपैठ कर ली है,  जिसके चलते अहम टकराने लगते हैं। महिलाएं शिक्षित हुई हैं, उन्होंने अपने विधिक अधिकारों को जाना है और यह किसी भी समाज एवं देश की उन्नति के लिए अपरिहार्य भी है। पर इसके साथ दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह जुड़ा है कि निज स्वार्थ की पूर्ति हेतु, या क्रोध में महिलाएं अपने पति एवं ससुरालजनों पर दहेज का मिथ्या आरोप लगाती हैं। सामान्यत: कोई यह सहजता से स्वीकार नहीं करता कि महिलाएं झूठे आरोप लगा सकती हैं, क्योंकि उन्हें सिर्फ शोषित ही माना जाता रहा है। कुछ प्रतिशत पुरुषों के दुर्व्यवहार का उदाहरण देकर पूरे पुरुष वर्ग को आपराधिक मानसिकता का ठहराना घोर अमानवीयता है। यों तो दहेज निरोधक कानून आपराधिक है, पर इसका स्वरूप पारिवारिक है। पारिवारिक झगड़े को दहेज प्रताड़ना के विवाद में परिवर्तित करना सरल है। कानूनवेत्ताओं की मानें, तो दहेज प्रताड़ना के नब्बे प्रतिशत मामले झूठे पाए जाते हैं।
‘हर कोई महिलाओं के अधिकारों को लेकर लड़ रहा है, लेकिन पुरुषों के लिए कानून कहां है, जो महिलाओं द्वारा झूठे केस में फंसा दिए जाते हैं? शायद इस बारे में कदम उठाने का वक्त आ चुका है।’ दिल्ली के एक ट्रायल कोर्ट की टिप्पणी यह बताने के लिए काफी है कि सामाजिक व्यवस्था असंतुलित हो रही है। किसी एक के लिए न्याय के लिए लड़ाई इतने पूर्वाग्रहों से ग्रसित नहीं हो जानी चाहिए कि दूसरा पक्ष बिना अपराध के ही प्रताड़ित और अपमानित होता रहे। दहेज निरोधक कानून महिलाओं के संरक्षण के लिए बना था, पर इसके निरंतर दुरुपयोग ने समाज के एक तबके को भयभीत कर दिया है। जरूरत इसकी है कि इस सामाजिक समस्या का हल समाज के भीतर से ही निकाला जाए। उल्लेखनीय है कि बिहार के मधुबनी और दरभंगा जिले के 32 गांवों के एक संगठन ‘बत्तीसगामा समाज’ ने विगत तीन सौ साल से दहेज लेने-देने पर प्रतिबंध लगा रखा है। क्या यह सारे देश में संभव नहीं है?”
जरूरत इस बात की है कि परिवार के बढ़ते झगड़ों का मायके के हस्तक्षेप की दृष्टि से भी चिंतन-मंथन किया जाए। कानूनविद और जज साहिबान भी परिवारिक कलह के इस पहलू पर जरूर ध्यान दें वरन् नारीवाद की अतिशयोक्ति में कई परिवार कलेशजनित होकर तबाह हो जाएंगे। घर-परिवार जीने लायक नहीं रहेंगे। •


केवल कृष्ण पनगोत्रा

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